द्वंद्ववाद : परिमाण और गुण

August 3, 2022 0 By Yatharth

(ड्यूहरिंग मत-खण्डन से)

फ्रेडरिक एंगेल्स

हम जानते हैं कि श्रीमान ड्यूहरिंग ने समाजवाद के वैज्ञानिक सिद्वांत को एक ‘अति भव्य’ लेकिन दोषपूर्ण, कठोर तथा निर्जीव दार्शनिक प्रणाली में बदलने की कोशिश की थी। दर्शन के क्षेत्र में, खासकर द्वंद्ववाद के बारे में अपने ‘अति भव्य’ शैली में बात करते हुए, वे न सिर्फ मार्क्स के साथ बल्कि हेगेल और डार्विन के साथ भी बौद्धिक अनाचार करते हैं। हम इस लेख में देखेंगे कि एंगेल्स किस तरह उनकी दार्शनिक प्रणाली के खोखलेपन को उजागर करते हैं।

एंगेल्स श्रीमान ड्यूहरिंग को उद्धृत करते हैं –

“सत्ता के मूलभूत तार्किक गुणों का प्रथम एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि अंतर्विरोध का अपवर्जन कर दिया जाता है। अंतर्विरोध एक ऐसी परिकल्पना है, जिसका केवल विचारों के संयोजनों से ही सम्बन्ध हो सकता है, पर जिसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता। वस्तुओं में किसी प्रकार का अंतर्विरोध नहीं होता; या इसी बात को एक दूसरे ढंग से कहा जाये, तो वास्तविकता के रूप में स्वीकृत अंतर्विरोध स्वयं बेतुकेपन का चरम शिखर होता है… एक दूसरे का मुकाबला करने में लगी हुई और उल्टी दिशाओं में गतिमान शक्तियों का विरोध ही वस्तुतः संसार तथा उसके निवासियों के जीवन की समस्त प्रक्रियाओं का मूल रूप है। परन्तु तत्वों तथा व्यक्तियों की शक्तियों ने जो दिशाएं ग्रहण कर रखी हैं, उनकी यह प्रतिकूल बेतुके अंतर्विरोधों के विचार से जरा भी मेल नहीं खाती..यहां पर हम यह संतोष कर सकते हैं कि तर्कशास्त्र के कल्पित रहस्यों से सामान्यतया जो कुहासा उठा करता है, उसे हमने बास्तविकता में अंतर्विरोध को ढूंढ़ने के असली बेतुकेपन का एक स्पष्ट चित्र पेश करके एकदम साफ कर दिया है और यह प्रमाणित कर दिया है कि अंतर्विरोध के द्वंद्ववाद के सम्मान में ₹- उस बहुत भद्दे ढंग से तराशी गयी लकड़ी की गुड़िया के सम्मान में, जिसको विरोधी विश्व रेखांकन के स्थान पर बैठा दिया जाता है- धूप जलाने की व्यर्थता सिद्ध कर दी गयी है”।

‘दर्शनशास्त्र के पाठ्यक्रम’ में द्वंद्ववाद के विषय में बस केवल इतना ही कहा गया है। किन्तु अपने ‘आलोचनात्मक इतिहास’ में श्री ड्यूरिंग ने अंतर्विरोध के द्वंद्ववाद के साथ और विशेष रूप से हेगेल के साथ बिल्कुल दूसरे ढंग का व्यवहार किया है।

“हेगेलीय तर्कशास्त्र के अनुसार या कहना चाहिये कि लोगोस सिद्धांत के अनुसार अंतर्विरोध वास्तव में चिंतन में मौजूद नहीं होता, क्योंकि चिंतन का तो स्वरूप ही ऐसा है कि उसकी केवल प्रात्मनिष्ठ तथा सचेतन चिंतन के रूप में ही कल्पना की जा सकती है; बल्कि वह खुद वस्तुओं और प्रक्रियाओं में मौजूद होता है, और हम मानो उसका मूर्त रूप में अनुभव कर सकते है। अतः बेतुकापन विचारों का एक असम्भव संयोजन नहीं रहता, बल्कि एक वास्तविक शक्ति बन जाता है। तर्कसंगत तथा तर्कविरुद्ध की हेगेलीय एकता के विश्वास का पहला मूल मंत्र बेतुकेपन की वास्तविकता है… कोई वस्तु जितने अधिक अंतर्विरोधों से भरी है, वह उतनी ही अधिक यथार्थ है या दूसरे शब्दों में कोई वस्तु जितनी अधिक बेतुकी है, वह उतनी ही अधिक विश्वसनीय है। यह सूत्र जो किसी नवीन आविष्कार का फल नहीं है, बल्कि ईश्वरीय ज्ञान के धर्मशास्त्र और रहस्यवाद से उधार लिया गया है, तथाकथित द्वंद्ववादी सिद्धांत की नग्न अभिव्यक्ति है।”

ऊपर जिन दो अंशों को उध्दृत किया गया है, उनकी विधार-वस्तु का सारांश इस वक्तव्य के रूप में पेश किया जा सकता है कि अंतर्विरोध = बेतुकापन, और इसलिये वह वास्तविक संसार में नहीं घटित हो सकता। जो लोग अन्य मामलों में काफी ऊंचे दर्जे की व्यावहारिक बुद्धि का परिचय देते हैं वे, संभव है, यह समझें कि इस वक्तव्य को भी उतनी ही स्वतःस्पष्ट मान्यता प्राप्त है, जितनी इस वक्तव्य को प्राप्त है कि सीधी रेखा वक्र रेखा नहीं हो सकती और वक्र रेखा सीधी रेखा नहीं हो सकती। लेकिन व्यावहारिक बुद्धि चाहे जितनी चीख-पुकार मचाये, उसके बावजूद कुछ परिस्थितियों में अवकलन गणित सीधी रेखाओं और वक्र रेखाओं का समीकरण कर देता है और ऐसा करके ऐसी सफलताएं प्राप्त करता है, जिन्हें सीधी रेखाओं तथा वक्र रेखाओं के समरूप होने के विचार के बेतुकेपन पर जोर देनेवाली व्यावहारिक बुद्धि कभी नहीं प्राप्त कर सकती। और प्राचीन यूनानियों के समय से वर्तमान काल तक दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में तथाकथित अंतर्विरोध के द्वंद्ववाद ने जितनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, उसको ध्यान में रखते हुए तो श्री ड्यूहरिंग के मुकाबले में एक अधिक शक्तिशाली विरोधी भी इस एक वक्तव्य और अनेक गालियों के अलावा कुछ और युक्तियों से लैस होकर ही उसकी आलोचना करना आवश्यक समझता ।

यह सच है कि जब तक हम वस्तुओं पर उनकी विश्रामावस्या तथा निर्जीवितावस्था में विचार करते हैं, जब तक हम हरेक वस्तु पर अलग-अलग, उसे दूसरी वस्तुओं के पार्श्व में रखकर तथा एक के बाद दूसरी वस्तु पर विचार करते हैं, तब तक उनके भीतर का कोई विरोध हमारे सामने नहीं आता। कुछ ऐसे गुण हमारे सामने आते हैं, जो आंशिक रूप से समान, आंशिक रूप से एक दूसरे से भिन्न और यहां तक कि एक दूसरे के विरोधी भी होते हैं; लेकिन इस अंतिम अवस्था में ये गुण अलग-अलग वस्तुओं में बंटे होते हैं और इसलिये उनके भीतर कोई विरोध नहीं होता। पर्यवेक्षण के इस क्षेत्र की सीमाओं के भीतर हम प्रचलित, अधिभूतवादी चिंतन प्रणाली के आधार पर आगे बढ़ते जा सकते हैं। लेकिन जैसे ही हम वस्तुओं पर उनकी गति की अवस्था में, परिवर्तन की अवस्था में, उनकी जीवितावस्था में, एक दूसरे के साथ उनके पारस्परिक प्रभाव को ध्यान में रखते हुए विचार करते हैं, वैसे ही स्थिति बिल्कुल बदल जाती है। तब हम तत्काल अंतर्विरोधों में फंस जाते हैं। गति स्वयं एक अंतर्विरोध है; यहां तक कि साधारण यांत्रिक स्थिति परिवर्तन भी केवल इसी तरह सम्पन्न हो सकता है कि एक पिण्ड काल के एक ही क्षण में एक स्थान पर भी होता है और दूसरे स्थान पर भी; वह एक स्थान विशेष पर होता भी है और नहीं भी होता है। और इस अंतर्विरोध का निरंतर पैदा होते जाना और साथ ही हल भी होते जाना – इसी का नाम गति है।

इसलिये यहां एक ऐसा अंतर्विरोध हमारे सामने आता है, “जो वस्तुतः खुद वस्तुओं और प्रक्रियाओं में होता है और हम उसका मानो मूर्त रूप में अनुभव कर सकते हैं।”

और श्री ड्यूहरिंग को इस अंतर्विरोध के बारे में क्या कहना है ? वह फरमाते हैं कि अभी तक “बुद्धिसंगत यांत्रिकी” में कोई भी “ऐसा पुल नहीं है”, जो हमें “विशुद्ध गतिहीन से गतिशील तक” पहुंचा दे।

अब आखिर पाठक यह समझ सकता है कि श्री ड्यूहरिंग के इन प्रिय शब्दों के पीछे क्या छिपा है। उनके पीछे इसके सिवा और कुछ नहीं छिपा है कि जो मस्तिष्क अधिभूतवादी ढंग से सोचता है, वह विश्राम के विचार से गति के विचार तक पहुंचने में सर्वथा असमर्थ होता है, क्योंकि ऊपर जिस अंतर्विरोध का संकेत किया गया है, वह उसका रास्ता रोककर बड़ा हो जाता है। ऐसे मस्तिष्क के लिये गति को समझ पाना ही असंभव होता है, क्योंकि गति एक अंतर्विरोध है। और गति की अबोधगम्यता की घोषणा करके ऐसा मस्तिष्क अपनी इच्छा के विपरीत इस अंतर्विरोध के अस्तित्व को स्वीकार कर लेता है, और इस प्रकार वह खुद वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं में एक ऐसे अंतर्विरोध की वास्तविक उपस्थिति को स्वीकार कर लेता है, जो इसके अतिरिक्त एक वास्तविक शक्ति भी है।

यदि साधारण यांत्रिक स्थिति परिवर्तन में एक अंतर्विरोध निहित होता है, तो पदार्थ की गति के उच्चतर रूपों के लिये, और विशेषकर कार्बनिक जीवन तथा उसके विकास के लिये तो यह बात और भी अधिक सत्य है। हमने ऊपर देखा था1 कि जीवन यथार्थतः और मुख्यत: इसी का नाम है कि एक जीव प्रत्येक क्षण खुद भी होता है और साथ ही कुछ और भी होता है। अतः जीवन भी एक अंतर्विरोध है, जो खुद वस्तुओं और प्रक्रियाओं में मौजूद होता है और जो लगातार पैदा होता रहता है तथा जो अपने आपको लगातार हल करता रहता है। और जैसे ही अंतर्विरोध समाप्त हो जाता है, वैसे ही जीवन का भी अंत हो जाता है और मृत्यु आ पहुंचती है। इसी तरह हमने यह भी देखा था2 कि चिंतन के क्षेत्र में भी हम अंतर्विरोध से छुटकारा नहीं पा सकते; और उदाहरण के लिये मनुष्य की ज्ञान प्राप्त करने की मूलतया असीमित सामर्थ्य तथा केवल बाह्य रूप से सीमित और परिमित संज्ञानवाले मनुष्यों में उसकी वास्तविक उपस्थिति के बीच पाये जानेवाले अंतर्विरोध का हल – कम से कम व्यवहारतः हमारे लिये पीढ़ियों के अंतहीन क्रम में अन्नत उन्नति में पाया जाता है।

हम इस बात का पहले ही उल्लेख कर चुके हैं कि उच्चतर गणित का एक मूलभूत सिद्धांत यह अंतर्विरोध है कि कुछ खास परिस्थितियों में सीधी रेखाएं और वक्र रेखाएं एक हो सकती हैं। इससे यह दूसरा अंतर्विरोध भी सामने आता है कि जो रेखाएं हमारी आंखों के सामने एक दूसरे का प्रतिच्छेदन करती हैं, उनको प्रतिच्छेदन के बिंदु से केवल पांच या छ: सेंटीमीटर की दूरी पर ही समांतर प्रमाणित किया जा सकता है; अर्थात् यह सिद्ध किया जा सकता है कि इन रेखाओं का यदि अनन्तत्व तक विस्तार किया जाये, तो भी वे कभी आपस में नहीं मिलेंगी। और फिर भी इन और इनसे कहीं अधिक बड़े अंतर्विरोधों की सहायता से काम करते हुए हम ऐसे निष्कर्षों पर पहुंचते हैं, जो न केवल सही होते हैं, बल्कि जो निम्न गणित की पहुंच के बिल्कुल बाहर होते हैं।

लेकिन निम्न गणित में भी अंतर्विरोध भरे पड़े हैं। उदाहरण के लिये, यह एक अंतर्विरोध है कि A का मूल, A का घात हो; और फिर भी A1/2 = √A। यह एक अंतर्विरोध है कि कोई ऋणात्मक मात्रा किसी चीज का वर्ग हो; क्योंकि किसी भी ऋणात्मक मात्रा में यदि स्वयं उसी से गुणा किया जाये तो उसका फल एक धनात्मक वर्ग होता है। इसलिये ऋण एक का वर्गमूल न केवल एक अंतर्विरोध है, बल्कि एक बिल्कुल बेतुका अंतर्विरोध है। लेकिन फिर भी गणित की सही क्रियाओं का फल आवश्यक रूप से √-1 होता है। इसके अतिरिक्त जरा यह भी सोचिये कि यदि गणित को √-1 का प्रयोग करने की मनाही कर दी जाये, तो निम्न और उच्च दोनों प्रकार के गणित का क्या हाल होगा?

चर मात्राओं का प्रयोग करते हुए गणित स्वयं द्वंद्ववाद के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है, और यह बात महत्वपूर्ण है कि इस प्रगति का श्रेय एक द्वंद्ववादी दार्शनिक देकार्त को है। चर मात्राओं के गणित तथा अचर मात्राओं के गणित के बीच मोटे तौर पर उसी प्रकार का सम्बन्ध है, जिस प्रकार का सम्बन्ध द्वंद्वात्मक चिंतन तथा अधिभूतवादी चिंतन के बीच है। लेकिन फिर भी अधिकतर गणितज्ञ केवल गणित के क्षेत्र में ही द्वंद्ववाद को मानते हैं और उनमें से बहुतेरे द्वंद्ववादी ढंग से प्राप्त पद्धतियों का प्रयोग करते हुए भी पुराने, सीमित अधिभूतवादी ढंग से ही काम करते रहते हैं।

श्री ड्यूहरिंग के शक्तियों के विरोध पर तथा उनके विरोधपूर्ण विश्व रेखांकन पर हम और नजदीक से विचार करते, यदि इस विषय के सम्बंध में उन्होंने मात्र इन खोखले शब्दों के अलावा हमें कुछ भी और बताया होता। उनका यह विरोध न तो उनके विश्व रेखांकन में एक बार भी काम करता हुआ दिखाया गया है और न ही उनके प्राकृतिक दर्शन में। यह इस बात का सबसे पक्का प्रमाण है कि श्री ड्यूहरिंग “संसार तथा उसके निवासियों के जीवन की समस्त प्रक्रियाओं के” अपने “मूलरूप” की सहायता से सकारात्मक ढंग का कोई भी कार्य नहीं कर सकते। जिस आदमी ने असल में हेगेल के “सार के सिद्धांत” को अंतर्विरोधों में नहीं, “संसार तथा मूलरूप” बल्कि केवल विपरीत दिशाओं में हरकत करनेवाली शक्तियों की एक अतिसाधारण और पिटी-पिटायी बात में परिणत कर दिया है, वह निश्चय ही सबसे अच्छा काम केवल यही कर सकता है कि इस तुच्छ निरूपण का कहीं पर भी प्रयोग न होने दे।

मार्क्स की रचना ‘पूंजी’ के रूप में श्री ड्यूहरिंग को द्वंद्ववाद पर अपना क्रोध निकालने के लिये एक नया अवसर मिल जाता है। वह लिखते हैं:

“इन द्वंद्ववादी झालरों और भूलभुलैयों तथा धारणात्मक बेलबूटों की विशेषता यह है कि उनमें प्राकृतिक तथा बोधगम्य तर्क का अभाव है… यहां तक कि जो भाग प्रकाशित हो चुका है, उसपर भी हमें यह सिद्धांत लागू करना पड़ेगा कि एक खास दृष्टि से और साथ ही सामान्य दृष्टि से भी” (!) “एक सुप्रसिद्ध दार्शनिक पूर्वधारणा के अनुसार हरेक में सब को खोजना चाहिये और सब में हरेक को, और इसलिये इस मिश्रित एवं मिथ्याकल्पित विचार के अनुसार अंत में सब कुछ उसी एक चीज में परिणत हो जाता है।”

इस सुप्रसिद्ध दार्शनिक पूर्वधारणा की असलियत को अच्छी तरह समझने के कारण श्री ड्यूहरिंग बड़े विश्वास के साथ यह भविष्यवाणी भी कर देते हैं कि मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत प्रतिपादन का अंत में क्या “परिणाम” होगा; अर्थात् ‘पूंजी’ के जो खण्ड भविष्य में प्रकाशित होनेवाले हैं, उनमें क्या रहेगा। और यह भविष्यवाणी वह उस स्थल के केवल सात पंक्तियों के बाद ही कर देते हैं, जहां पर उन्होंने यह कहा है कि

“यदि सीधी और सरल मानव भाषा का प्रयोग किया जाये, तो अभी से यह बता सकना बिल्कुल असम्भव है कि दो” (अंतिम)I खंडों में आगे और क्या आनेवाला है”।

किंतु यह पहला अवसर नहीं है, जब श्री ड्यूहरिंग की रचनाएं भी उसी प्रकार की “वस्तुएं” प्रमाणित हुई हैं, जिनमें “अंतर्विरोध वास्तव में मौजूद होता है और हम उसका मानो मूर्त रूप में अनुभव कर सकते हैं”। लेकिन इससे उनके सामने कोई बाधा पेश नहीं होती है, वह विजयोल्लास में भरे हुए लिखते जाते हैं:

“फिर भी अधिक सम्भावना इसी बात की है कि तर्क की विकृति पर स्वस्थ तर्क की विजय होगी…. जिस किसी में लेशमात्र स्वस्थ निर्णय शक्ति है, वह श्रेष्ठता के इस ढोंग को देखकर और इस रहस्यमय द्वंद्ववादी बकवास को सुनकर… चिंतन प्रणाली और शैली की इन अपरूपताओं के साथ किसी प्रकार का भी वास्ता रखना नहीं चाहेगा। द्वंद्ववादी मुर्खताओं के अंतिम अवशेषों की मृत्यु के साथ-साथ आंखों में धूल झोंकने के इस साधन का सारा भ्रांतिजनक प्रभाव जाता रहेगा, और तब कोई यह विश्वास नहीं करेगा कि ज्ञान की किसी गूढ़ बात की तह तक पहुंचने के लिये उसे अपने आपको तरह-तरह की यातनाएं देनी चाहिये ; हालांकि असल में वहां अतिगूढ़ बातों का छिलका उतर जाने पर यदि सर्वथा अतिसाधारण बातों का नहीं, तो अधिक से अधिक साधारण सिद्धान्तों का ही चेहरा नजर आता है … स्वस्थ तर्क की हत्या किये बिना, लोगोस सिद्धांत के अनुसार, इस (मार्क्सीय) भूलभुलैयों को कागज पर उतारकर पाठकों के सामने प्रस्तुत करना असम्भव है”। श्री ड्यूहरिंग के मतानुसार मार्क्स की पद्धति यह है कि “वह अपने निष्ठावान अनुयायियों के लाभार्थ द्वंद्ववादी चमत्कार करके दिखाया करते हैं”, इत्यादि, इत्यादि।

मार्क्स के अन्वेषण के आर्थिक परिणाम कितने सही हैं और कितने गलत, इससे अभी हमारा कोई सम्बंध नहीं है। यहां पर तो हम केवल उस द्वंद्ववादी पद्धति पर विचार कर रहे हैं, जिसका मार्क्स ने उपयोग किया है। लेकिन एक बात निश्चित है- ‘पूंजी’ के अधिकतर पाठकों को पहली बार श्री ड्यूहरिंग से यह मालूम होगा कि असल में उन्होंने उस पुस्तक में क्या पढ़ा है। और श्री ड्यूहरिंग खुद भी इन लोगों में शामिल होंगे, क्योंकि 1867 में उनमें भी इस पुस्तक की एक ऐसी समीक्षा लिखने की सामर्थ्य थी (Ergänzungsblätter3, खंड 3, अंक 3)II, जो उनकी जैसी प्रतिभा के विचारक के लिये एक अपेक्षाकृत बुद्धिसंगत समीक्षा समझी जायेगी। और इस समीक्षा को लिखने के पहले उनको मार्क्सय विवेचन का ड्यूहरिंगीय भाषा में अनुवाद करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ी थी, हालांकि अब वह कहते हैं कि इस प्रकार का अनुवाद किये बिना काम नहीं चल सकता। और यद्यपि उस समय भी उन्होंने मार्क्सीय द्वंद्ववाद तथा हेगेलीय द्वंद्ववाद को एक ही चीज समझने की भूल की थी, तथापि उस समय तक उनमें पद्धति तथा उसके प्रयोग द्वारा उपलब्ध परिणामों के बीच भेद करने की क्षमता थोड़ी-बहुत बाकी थी और वह यह समझते थे कि आम तौर पर पद्धति का मजाक बनाकर उसके द्वारा प्राप्त परिणामों का खंडन नहीं किया जा सकता। 

बहरसूरत श्री ड्यूहरिंग से हमें जो सबसे अधिक आश्चर्यजनक सूचना मिली है, वह यह है कि मार्क्सीय दृष्टिकोण से अंत में सब कुछ एक चीज में परिणत हो जाता है”, और इसलिये उदाहरणार्थ पूंजीपति और मजदूर तथा उत्पादन की सामंती, पूंजीवादी और समाजवादी प्रणालियां भी मार्क्स के लिये सब एक ही चीज” हैं – और इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि अंत में जाकर तो मार्क्स और श्री ड्यूहरिंग भी दोनों” एक ही चीज में परिणत हो जाते हैं”। इस तरह की सरासर निरर्थक बातों का केवल एक यही कारण समझ में आता है कि “द्वंद्ववाद” शब्द सुनते ही श्री ड्यूहरिंग मानसिक अनुत्तरदायित्व की एक ऐसी अवस्था में पहुंच जाते हैं, जहां एक खास मिश्रित तथा मिथ्याकल्पित विचार के फलस्वरूप वह जो कुछ करते और कहते हैं, वह सब अंत में “एक ही चीज में परिणत हो जाता है”।

यहां उस शैली का एक उदाहरण प्रस्तुत है, जिसके बारे में श्री ड्यूहरिंग ने लिखा है कि:

“मैंने अतिभव्य शैली में ऐतिहासिक वर्णन किया है” या जिसके विषय में उन्होंने कहा है कि यह “वह संक्षिप्त विवेचन है, जो जाति और प्ररूप को निश्चित कर देता है, और जो बाल की खाल निकालकर और विस्तार की अतिसूक्ष्म बातों का वर्णन करके उन लोगों को खुश करने की कोशिश नहीं करता, जिनको किसी ह्यम ने पंडितों की भीड़ का नाम दिया था। उच्चतर एवं महानतर शैली में एकमात्र इस प्रकार का विवेचन ही पूर्ण सत्य के हितों के प्रति तथा शिल्पी संघों के बंधनों से मुक्त पाठकों के प्रति अपने कर्तव्य के अनुरूप होता है”।

अतिभव्य शैली में ऐतिहासिक वर्णन तथा जाति और प्ररूप का संक्षिप्त निर्धारण श्री ड्यूहरिंग के लिये निश्चय ही बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं, क्योंकि इस पद्धति का प्रयोग करते हुए वह सभी ज्ञात तथ्यों को विस्तार की अतिसूक्ष्म बातें कहकर अनदेखा कर जाते हैं और उनको शून्य के बराबर मान लेते हैं; और इसके परिणामस्वरूप उनको किसी बात का प्रमाण देने की जरूरत नहीं होती, बल्कि केवल मोटी-मोटी बातें कहकर, घोषणाएं करके और गालियां बककर ही उनका काम चल जाता है। इस पद्धति का एक और लाभ यह है कि उससे शत्रु को पैर रखने के लिये कोई जगह नहीं मिलती और उसके पास जवाब देने को इसके सिवाय और कोई तरीका नहीं बचता कि वह भी प्रतिभव्य शैली में इसी प्रकार की घोषणाएं करे, मोटी-मोटी बातें दुहराये और अंत में श्री ड्यूहरिंग को गालियां दे – या संक्षेप में कहा जाये, तो श्री ड्यूहरिंग के साथ गाली देने में होड़ करे, जो जाहिर है हर आदमी को रुचिकर नहीं प्रतीत हो सकता। इसलिये हमें इसके वास्ते श्री ड्यूहरिंग के प्रति अनुगृहीत होना चाहिये कि उन्होंने कहीं-कहीं पर अपवाद के रूप में उच्चतर एवं महानतर शैली को त्याग दिया है और अस्वस्थ मार्क्सीय लोगोस सिद्धांत के कम से कम दो उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत कर दिये हैं।

“इस भ्रांत एवं अस्पष्ट हेगेलीय विचार की चर्चा करने से कैसा हास्यास्पद प्रभाव पैदा होता है कि परिमाण गुण में बदल जाता है, और इसलिये जब एक पेशगी रकम एक निश्चित आकार प्राप्त कर लेती है, तो केवल इस परिमाणात्मक वृद्धि के द्वारा ही वह पूंजी बन जाती है।”

श्री ड्यूहरिंग ने इस बात को जिस “विशोधित” रूप में प्रस्तुत किया है, उससे निश्चय ही काफी अजीब प्रभाव पैदा होता है। पर हम यह देखें कि मार्क्स की मूल रचना में इसका क्या रूप है। मार्क्स ने पृष्ठ ३१३ पर (‘पूंजी’, द्वितीय संस्करण) अचल और चल पूंजी तथा बेशी मूल्य का विवेचन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि “मुद्रा की या मूल्य की हर रकम को इच्छानुसार पूंजी में नहीं बदला जा सकता। इस प्रकार का रूपांतरण करने के लिये, असल में, यह जरूरी होता है कि जो व्यक्ति मुद्रा अथवा मालों का मालिक है, उसके हाथ में पहले से ही कम से कम एक निश्चित मात्रा में मुद्रा अथवा विनिमय मूल्य विद्यमान हो”।4 मार्क्स ने उद्योग की किसी भी शाखा के उस मजदूर का उदाहरण दिया है, जो हर रोज आठ घण्टे खुद अपने लिये – अर्थात् अपनी मजूरी का मूल्य पैदा करने के लिये – काम करता है और बाकी चार घण्टे पूंजीपति के लिये, उस बेशी मूल्य को पैदा करने के लिये काम करता है, जो तुरंत पूंजीपति की जेब में चला जाता है। इस सूरत में रोजाना इतना बेशी मूल्य जेब में डालने के लिये, जिससे आदमी अपने एक मजदूर के समान जीवन बिता सके, उसके पास मूल्यों की कम से कम वह मात्रा होनी चाहिये, जो दो मजदूरों के लिये कच्चा माल, श्रम के औजार और मजूरी मुहैय्या करने के लिये काफी हो। और चूंकि पूंजीवादी उत्पादन का उद्देश्य केवल जिंदा रहना नहीं होता, बल्कि उसका उद्देश्य धन की वृद्धि करना होता है, इसलिये हमारा यह आदमी दो मजदूरों से काम लेने पर भी पूंजीपति नहीं बन पायेगा। एक साधारण मजदूर से दुगुना अच्छा जीवन बिताने के लिये, और जितना बेशी मूल्य पैदा होता है, उसके आधे भाग को फिर पूंजी में बदल देने के लिये उसे आठ मजदूरों को नौकर रखने के काबिल बनना पड़ेगा। अर्थात् उसके पास ऊपर हम जितनी रकम मानकर चले थे, उसकी चौगुनी रकम होनी चाहिये। और इतना सब कह चुकने के बाद तथा इस तथ्य का और अधिक स्पष्टीकरण तथा पुष्टि करने के बाद कि मूल्यों की हर छोटी-मोटी रकम पूंजी में बदले जाने के लिये पर्याप्त नहीं होती, बल्कि इस दृष्टि से विकास के प्रत्येक काल के लिये तथा उद्योग की प्रत्येक शाखा के लिये एक निश्चित अल्पतम रकम आवश्यक होती है, मार्क्स ने लिखा है कि “प्राकृतिक विज्ञान की तरह यहां भी (‘तर्कशास्त्र’ में) हेगेल द्वारा आविष्कृत उस नियम की सत्यता सिद्ध हो जाती है कि केवल परिमाणात्मक भेद एक बिंदु से भागे पहुंचकर गुणात्मक परिवर्तनों में बदल जाते हैं”।5

और अब पाठक जरा उस उच्चतर एवं महानतर शैली को देखें, जिसके प्रताप से मार्क्स ने सचमुच जो कुछ कहा था, श्री ड्यूहरिंग ने उसकी बिल्कुल उल्टी बात उनके मुंह में रख दी है। मार्क्स ने कहा है कि यह तथ्य कि मूल्यों की कोई रकम केवल उसी समय पूंजी में बदली जा सकती है, जब वह एक निश्चित आकार प्राप्त कर लेती है; और यह आकार परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है, मगर हर अलग-अलग सूरत के लिये एक निश्चित अल्पतम आकार आवश्यक होता है- यह तथ्य हेगेलीय नियम की सत्यता का प्रमाण है। लेकिन श्री ड्यूहरिंग ने मार्क्स के मुंह में यह बात रख दी है कि चूंकि हेगेलीय नियम के अनुसार परिमाण गुण में बदल जाता है, “इसलिये जब एक पेशगी रकम एक निश्चित आकार प्राप्त कर लेती है, तो वह पूंजी बन जाती है”। अर्थात् उन्होंने बिल्कुल उल्टी बात मार्क्स के मुंह में रख दी है।

श्री ड्यूहरिंग ने डार्विन के मामले में जिस तरह का व्यवहार किया था, उससे हम उनकी “पूर्ण सत्य के हितों में” और “शिल्पी संघों के बंधनों से मुक्त जनता के प्रति अपने कर्तव्य” का पालन करने के उद्देश्य से दूसरों की पुस्तकों के गलत उद्धरण देने की प्रादत का परिचय प्राप्त कर चुके हैं। यह बात अधिकाधिक स्पष्ट होती जाती है कि यह आदत वास्तविकता के दर्शनशास्त्र की एक आंतरिक आवश्यकता है, और यह निश्चय ही बहुत “संक्षिप्त विवेचन” है। और ऊपर से यह बात अलग है कि श्री ड्यूहरिंग ने मार्क्स से “कोई भी पेशगी रकम” कहलवाया है, जबकि असल में मार्क्स ने केवल कच्चे माल, श्रम के औजारों और मजूरी की शक्ल में पेशगी रकम का जिक्र किया है। और इस तरह श्री ड्यूहरिंग मार्क्स के मुंह से एक सर्वथा निरर्थक बात कहलाने में सफल हो गये हैं। और फिर वह खुद अपनी गढ़ी हुई बकवास को हास्यास्पद कहने का भी साहस करते हैं! जिस तरह उन्होंने डार्विन के मुकाबले में अपनी ताकत आजमाने के लिये एक काल्पनिक डार्विन बनाकर खड़ा कर दिया था, उसी तरह यहां उन्होंने एक काल्पनिक मार्क्स बनाकर खड़ा कर दिया है। यह निश्चय ही “अतिभव्य शैली में ऐतिहासिक वर्णन” है!

विश्व रेखांकन पर विचार करते हुए हम यह पहले ही देख चुके हैं6 कि मापगत सम्बंधों की इस हेगेलीय संक्रमण रेखा के सम्बंध में – जिसमें परिमाणात्मक अंतर कुछ खास बिंदुओं पर पहुंचकर अचानक गुणात्मक परिवर्तन में बदल जाता है – श्री ड्यूहरिंग के साथ एक दुर्घटना हो गयी थी। दुर्बलता के एक क्षण में उन्होंने खुद इस रेखा को स्वीकार कर लिया था और उसका उपयोग भी कर गये थे। वहां हमने एक अत्यन्त विख्यात उदाहरण का –  जल की समुच्चित अवस्थितियों के परिवर्तन का – हवाला दिया था। सामान्य वायुमण्डलीय दाब के नीचे जल 0° सेंटीग्रेड पर द्रव से ठोस बन जाता है, और 100° सेंटीग्रेड पर द्रव से गैसीय अवस्था में पहुंच जाता है, और इस तरह इन दोनों परावर्तन बिंदुओं पर पहुंचकर ताप का मात्र परिमाणात्मक परिवर्तन जल की दशा में एक गुणात्मक परिवर्तन पैदा कर देता है।

इस नियम के प्रमाण के रूप में प्रकृति की तरह मानव समाज के क्षेत्र से भी इस प्रकार के सैकड़ों तथ्यों का उल्लेख किया जा सकता है। उदाहरण के लिये मार्क्स की रचना ‘पूंजी’ के समूचे चौथे भाग में – ‘सापेक्ष बेशी मूल्य का उत्पादन’ – सहकारिता, श्रम के विभाजन तथा मैनुफेक्चर, मशीनरी और आधुनिक उद्योग की चर्चा की गयी है; पूरा का पूरा भाग ऐसे असंख्य उदाहरणों से भरा हुआ है, जिनमें परिमाणात्मक परिवर्तन से विचाराधीन वस्तुओं के गुण में परिवर्तन आ जाता है, और साथ ही गुणात्मक परिवर्तन से उनके परिमाण में फर्क पड़ जाता है, और इसलिये जिनमें – यदि हम उस शब्दावली का प्रयोग करें, जिससे श्री ड्यूहरिंग इतनी घृणा करते हैं, तो परिमाण गुण में रूपांतरित हो जाता है और गुण परिमाण में। जैसे मिसाल के लिये इसी तथ्य को लीजिये कि अनेक व्यक्तियों के सहयोग से, या बहुत-से बलों के संयोग के फलस्वरूप एक बल के बन जाने से, मार्क्स के शब्दों में एक “नयी ताकत” का सृजन हो जाता है, जो अपने अलग-अलग बलों के योग से मूलतया भिन्न होती है।7

इसके अलावा जिस अंश को, पूर्ण सत्य के हितों में श्री ड्यूहरिंग ने तोड़-मरोड़कर उसकी बिल्कुल उल्टी बात में बदल दिया है, उसके साथ मार्क्स ने एक फुटनोट भी जोड़ा था, जिसमें लिखा है: “आधुनिक रसायन विज्ञान का अणु सिद्धांत, जिसका वैज्ञानिक प्रतिपादन पहली बार लौरें और गेरहार्ट ने किया था, और किसी नियम पर आधारित नहीं है”8। लेकिन श्री ड्यूहरिंग के लिये इस सब का क्या महत्व है? वह तो जानते हैं कि :

“चिंतन की प्राकृतिक-वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा प्रस्तुत विशिष्ट रूप से आधुनिक शिक्षणात्मक तत्वों का खास तौर पर उन लोगों में प्रभाव होता है, जो मार्क्स और उसके प्रतिद्वन्द्वी लासाल की भांति अर्ध-विज्ञान और थोड़ी-बहुत दर्शनबाजी, बस इतने से मसाले से अपने पांडित्य पर नया रंग-रोगन चढ़ाकर बैठ जाते हैं”

-जबकि श्री ड्यूहरिंग के चिंतन में “यांत्रिकी, भौतिकी तथा रसायन विज्ञान के क्षेत्रों में यथार्थ ज्ञान की मुख्य उपलब्धियां आधार का काम करती हैं।” वे किस तरह करती हैं, यह तो हम देख चुके हैं। किन्तु इस मामले के बारे में अन्य व्यक्ति भी अपनी कुछ राय बना सकें, इसके लिये जरूरी है कि हम मार्क्स के फुटनोट में दिये गये उदाहरण पर कुछ और नजदीक से विचार करें।

वहां कार्बन के उन यौगिकों की समानुरूप मालाओं की चर्चा की गयी है, जिनमें से बहुतों का पता लगाया जा चुका है और जिनमें से हरेक का अपना अलग संरचना का बीजगणितीय सूत्र होता है। उदाहरण के लिये, यदि रसायन विज्ञान की तरह यहां भी कार्बन के एक परमाणु को C से सूचित किया जाये, हाइड्रोजन के एक परमाणु को H से, तथा आक्सीजन के एक परमाणु को O से और प्रत्येक यौगिक में उपस्थित कार्बन के परमाणुओं की संख्या को n से सूचित किया जाये, तो इनमें से कुछ मालाओं के आणविक सूत्रों को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है:

CnH2n+2    – सामान्य पैराफिनों की माला,

CnH2n+2O – साधारण अलकोहलों की माला,

CnH2nO2 -मोनोबेसिक वसा-एसिडों की माला।

उदाहरण के लिये इनमें से अंतिम माला को लीजिये; पहले फर्ज कीजिये कि n = 1; फिर फर्ज कीजिये कि n = 2; फिर n = 3 इत्यादि, इत्यादि। तब (समावयवियों को छोड़कर) निम्नलिखित परिणाम हमारे सामने आते हैं: 

CH2O2 – फार्मिक एसिड – क्वथनांक 100°, गलनांक 1°

C2H4O2 – ऐसीटिक एसिड – क्वथनांक 118°, गलनांक 17° 

C3H6O2 – प्रोपिओनिक एसिड – क्वथनांक 100°, गलनांक –

C4H8O2 – बुटीरिक एसिड – क्वथनांक 162°, गलनांक –

C5H10O2 – वैलेरियानिक एसिड – क्वथनांक 175°, गलनांक –

और C30H60O2, अर्थात् मेलिस्सिक एसिड तक यह क्रम इसी तरह चलता जाता है। मेलिस्सिक एसिड केवल 80° पर गलता है और उसका कोई क्वथनांक नहीं होता, क्योंकि बिना विघटन हुए उसका वाष्पन नहीं हो सकता ।

इसलिये यहां गुणात्मक दृष्टि से भिन्न पिण्डों की एक पूरी माला हमारे सामने है, जो तत्वों के साधारण परिमाणात्मक योग से बनती जाती हैं; और वस्तुतः यह योग भी सदा एक से अनुपात में होता है। यह बात सबसे अधिक स्पष्टता के साथ वहां सामने आती है, जहां यौगिक के सभी तत्वों का परिमाण एक से अनुपात में बदलता है। जैसे सामान्य पैराफिनों (CnH2n+2) में निम्नतम मेथेन (CH4) नामक गैस है, और अभी तक ज्ञात उच्चतम हेक्साडेकेन (C16H34) नामक एक ठोस वस्तु है, जिसके स्फटिक रंगहीन होते हैं और जो 21° पर गलती है धीर कहीं 278° पर जाकर उबलती है। दोनों मालाओं का प्रत्येक नया सदस्य पूर्वगामी सदस्य के आणविक सूत्र में CH2, या एक परमाणु कार्बन और दो परमाणु हाइड्रोजन के जुड़ जाने के फलस्वरूप अस्तित्व में आता है; और आणविक सूत्र में होनेवाला यह परिमाणात्मक परिवर्तन हर बार गुणात्मक दृष्टि से भिन्न वस्तु पैदा कर देता है।

लेकिन ये मालाएं तो मात्र एक विशेष रूप से स्पष्ट उदाहरण है। एक तरह से पूरे रसायन विज्ञान में और यहां तक कि विविध प्रकार की नाइट्रोजन आक्साइडों और फासफोरस या गंधक के आक्सीजनवाले एसिडों में भी, “परिमाण के गुण में बदल जाने” के उदाहरण भरे पड़े हैं; और यह तथाकथित भ्रांति एवं अस्पष्ट हेगेलीय विचार वस्तुओं और प्रक्रियाओं में मूर्त रूप में दिखाई देता है -और उसे देखकर श्री ड्यूहरिंग के सिवा और किसी का माथा खराब नहीं होता और न ही किसी की आंखों के सामने धुंध छा जाता है। और यदि मार्क्स ने सबसे पहले इस ओर ध्यान आकर्षित किया था, और यदि श्री ड्यूहरिंग ने इस संदर्भ को बिना समझे हुए पढ़ा (क्योंकि वरना निश्चय ही इस अभूतपूर्व अन्याय को बिना चुनौती दिये अपनी नजरों से नहीं निकलने दे सकते थे), तो सुप्रसिद्ध ड्यूहरिंगीय प्राकृतिक दर्शनशास्त्र पर पुनः दृष्टि डालने की कोई जरूरत नहीं रहती; बस इतना ही यह स्पष्ट करने के लिये बहुत काफी है कि मार्क्स और श्री ड्यूहरिंग इन दोनों में से किसमें “प्राकृतिक वैज्ञानिक चिंतन प्रणाली से प्राप्त विशिष्ट रूप से आधुनिक शिक्षणात्मक तत्वों” का प्रभाव है और “रसायन विज्ञान की मुख्य उपलब्धियों” से कौन अपरिचित है।

अंत में हम परिमाण के गुण में रूपान्तरित हो जाने के पक्ष में एक गवाह और पेश करेंगे। वह गवाह नेपोलियन है। नेपोलियन ने फ्रांसीसी घुड़सवार सेना और ममलूकों की लड़ाई का वर्णन किया है। फ्रांसीसी घुड़सवार सेना के सैनिक अच्छे सवार नहीं थे, लेकिन अनुशासनबद्ध थे। ममलूक लोग लड़ाई में अपने काल के सर्वोत्तम घुड़सवार समझे जाते थे, लेकिन उनमें अनुशासन का अभाव था। नेपोलियन ने कहा है:

“दो ममलूक निस्संदेह रूप से तीन फ्रांसीसियों से प्रबल सिद्ध होते थे; 100 ममलूक 100 फ्रांसीसियों के बराबर उतरते थे; 300 फ्रांसीसी आम तौर पर 300 ममलूकों को हरा देते थे, और 1000 फ्रांसीसी 1500 ममलूकों को अनिवार्य रूप से पराजित कर देते थे।”III

जिस प्रकार मार्क्स के मतानुसार विनिमय मूल्यों की किसी रकम का पूंजी में रूपान्तरण हो सकने के लिये उसका एक निश्चित अल्पतम मात्रा में होना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार नेपोलियन के मतानुसार घुड़सवार दस्ते में सैनिकों की एक निश्चित अल्पतम संख्या होने पर ही उसमें अनुशासन की वह शक्ति पैदा होती है, जो संवृत कम तथा सुनियोजित कार्यवाही में व्यक्त होती है और जो असंगठित घुड़सवारों की अपेक्षाकृत बड़ी संख्या के मुकाबले में भी भारी पड़ती है, हालांकि न असंगठित सैनिकों के घोड़े कहीं अधिक अच्छे होते हैं, वे कहीं अधिक कुशल सवार और योद्धा होते हैं और कम से कम उतने ही बहादुर होते हैं। लेकिन श्री ड्यूहरिंग के मुकाबले में इस सबसे क्या प्रमाणित हो सकता है? क्या यूरोप से टक्कर होने पर नेपोलियन बुरी तरह पराजित नहीं हुआ था? क्या उसकी हार पर हार नहीं हुई थी? और क्यों हुई थी? केवल इस कारण कि उसने घुड़सवार सेना के व्यूह कौशल में उस भ्रांत एवं अस्पष्ट हेगेलीय विचार को सम्मिलित कर दिया था! 

अगले अंक में जारी…

‘द्वंद्ववाद: निषेध का निषेध’

(ड्यूहरिंग मत-खण्डन से)

टिप्पणियां:

 I अपनी प्रधान आर्थिक रचना पर काम करते हुए मार्क्स ने उसके विभाजन की योजना को कई बार बदला था। 1867 में जब ‘पूंजी’ का पहला खंड प्रकाशित हुआ, मार्क्स का इरादा सारी की सारी रचना को तीन खंडों (चार पुस्तकों) में प्रकाशित करने का था। इसके अनुसार पुस्तक 2 और पुस्तक 3 दूसरे खंड में शामिल की जातीं। मार्क्स की मृत्यु के बाद एंगेल्स ने पुस्तक 2 और पुस्तक 3 को खंड 2 और खंड 3 के रूप में प्रकाशित किया। अंतिम पुस्तक ‘बेशी मूल्य का सिद्धांत’ (‘पूंजी’, खण्ड 4) एंगेल्स की मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई । -पृष्ठ 3 

 II ड्यूहरिंग ने मार्क्स की ‘पूंजी’ के पहले खंड की समीक्षा लिखी थी, जो 1867 में Ergänzungsblätter zur Kenntniss der Gegenwart नामक पत्रिका (खंड 3, अंक 3, पृष्ठ 182-186) में प्रकाशित हुई थी। -पृष्ठ 3

 III नेपोलियन, संस्मरण ”सैनिक कला पर प्रवचन’ नामक रचना पर सत्रह टिप्पणियां’ जो पेरिस में 1816 में प्रकाशित की गयी थी’, टिप्पणी 3, ‘घुड़सेना’। Memoires pour servir à l’histoire de France, sous Napoléon, êcrits par les généraux qui ont partagé publiés sur les manuscrits à Sainte-Hélène, sa captivite, et entièrement corrigés de la main de Napoléon (‘नेपोलियन के शासन फ्रांस के इतिहास स्पष्टीकरण करनेवाले संस्मरण, का उन जनरलों द्वारा सेंट हेलेन के द्वीप पर संकलित किये गये थे, जो काल में जो कैदियों के रूप में नेपोलियन के भाग्य के भागीदार बने थे। ये संस्मरण उन पाण्डुलिपियों के आधार पर प्रकाशित किये गये थे, जिनका नेपोलियन ने स्वयं संशोधन किया था’), खण्ड 1, जनरल काउंट डि मान्योलान द्वारा संकलित पेरिस 1823, पृष्ठ 262 । – 

पृष्ठ 6

फुटनोट: :
1देखिये प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ 135 – सं०

2देखिये प्रस्तुत संस्करण पृष्ठ 65, 141 – सं०

3’परिशिष्ट’ । – सं०

4पूंजी, हिन्दी संस्करण, मास्को, 1965 खंड 1, पृष्ठ 346 – सं०

5’पूंजी’, हिंदी संस्करण, मास्को, 1965, खंड 1, पृष्ठ 351 शब्दों पर जोर एंगेल्स का है। -सं०

6देखिये प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ 70- सं०

7’पूंजी’, हिंदी संस्करण, मास्को, 1965, खंड 1, पृष्ठ 370 – सं०

8वही, पृष्ठ 351 । – सं०