क्या समाज के गर्भ में कोई क्रांतिकारी जन उभार पल रहा है?
September 18, 2022इस प्रश्न का अर्थ और हमारी चुनौतियां
संपादकीय, अगस्त-सितंबर 2022 संयुक्तांक
आइए, इस बार सीधी बात करें। जब समय बुरा से बुरा होता जा रहा हो और जुल्मतों का दौर हद से गुजर गया हो, तो कभी-कभी सीधे-सीधे बात करना अहम ही नहीं जरूरी हो जाता है।
क्या समाज के गर्भ में कोई क्रांतिकारी जन उभार पल रह है? अगर हां, तो वह करवटें बदलता या अंगड़ाई लेता क्यों नहीं दिख रहा है? अर्थात, समाज के गर्भ में कोई हलचल पैदा क्यों नहीं हो रहा है, जैसा कि मां के गर्भ में पलने वाला बच्चे के कारण एक निश्चित अवधि के बाद अक्सर होता है?
जन साधारण, जिसका एक बड़ा हिस्सा मजदूर वर्ग है, की जीवन-स्थिति सुधरने की ध्वस्त होती उम्मीदें, उनके ऊपर दुखों के टूटते पहाड़ और हो रहे ताबड़तोड़ हमलों की बौछार की छोर से देखें तो पहले प्रश्न का जवाब ‘हां’ में मिलता है। सतह के नीचे एक बेचैनी और सरगर्मी दिखाई देती है जो और भी ज्यादा नारकीय स्थितियों में धंसते जा रहे जन साधारण के जीवन-अस्तित्व पर गहराते संकट के साथ-साथ यहां-वहां और यदा-कदा सतह के ऊपर दावानल के रूप में फूटती भी दिखाई देती हैं। इस बेचैनी में यह भावना भी निहित है कि शायद अब कुछ सकारात्मक नहीं होने वाला है। इसे ही हमलोग अपनी भाषा में कभी नहीं खत्म होने वाला संकट और हमला कहते हैं जो जनता के बीच उपरोक्त भावना के रूप में प्रकट होता है। इसे ही हम इस रूप में भी व्यक्त कर रहे होते हैं कि 2014 के पहले के दिन भी, जो बहुत खराब थे लेकिन आज की तुलना में बेहतर थे, अब वापस आने वाले नहीं हैं। 2014 के मोदी शासन के पहले हम इसी तरह की बात 1991 के बारे में भी कहा करते थे। यह वह समय था जब पहली बार देश में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की तेज आंधी मनमोहन सिंह के वित्तमंत्रीत्व में चलनी शुरू हुई थी, हालांकि इसकी नींव 1973 के वैश्विक संकट, जो आज तक जारी है, के बाद ही पड़ चुकी थी। दुनिया के कई देशों में स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट प्रोग्राम (SAP) के नाम से ठीक यही नीति पहले से ही लागू की जा चुकी थी जिसकी विशद चर्चा करने की यह उचित जगह नहीं है। अर्थव्यवस्था में तब से वित्तीयकरण की प्रक्रिया बहुत ही तेजी से बढ़ी है।
जब हम यदाकदा फूट पड़ने वाली बेचैनी की बात करें, तो यह साफ दिखता है कि वे ऐसी चिनगारियों की तरह हैं जो अस्थाई तौर पर प्रकट होती हैं और जंगल में बिना आग लगाये ही बूझ जाती हैं, मानों उनमें यथोचित मात्रा में गर्मी और ताप का अभाव हो। यह सच है कि एक साल से भी लंबे समय तक चले किसान आंदोलन ने जरूर यह काम करने की कोशिश की, लेकिन उससे भी बड़ा और अटल सत्य यह है कि स्वयं उस किसान आंदोलन को सर्वहारा मजदूर वर्ग के बीच से उठती चिनगारियों से उत्पन्न होने वाली गर्मी अर्थात ताप की जरूरत थी जो उसे पूर्णता तक ले जा सकती थी, जो उसे पूंजीवादी व्यवस्था को समूल रूप से खत्म करने की लड़ाई के एक अहम हिस्से व किरदार के रूप में, अर्थात सत्ता के लिए संघर्षरत सर्वहारा वर्ग (कुछ लोग इस पर हंस सकते हैं लेकिन तब वे क्रांतिकारी शक्ति के रूप में स्वयं अपने अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर रहे होंगे) की कोतल शक्ति, चाहे अस्थाई ही सही, में बदल सकती थी। हम पिछले दिनों देख चुके हैं कि किसान आंदोलन का समर्थन करने और उनके बीच लगातार लगे रहने वाली मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी ताकतों ने भी इस प्रश्न पर किस तरह के सुधारवादी रूख का परिचय दिया है। यथार्थ के पन्नों में जहां तक संभव था हमने उसकी आलोचना भी की है।
दूसरी तरफ, जहां तक दूसरे प्रश्न (अगर समाज के गर्भ में जन उभार पल रहा है तो हलचल क्यों नहीं हो रहा है?) का सवाल है, उसका जवाब तो पहले से ही ‘ना’ में है, और ऐसा क्यों है इसका उत्तर हम उन शक्तियों को देख कर दे सकते हैं जो इनके शीर्ष पर सवार हो इसे करवट बदलने के लिए प्रेरित करने और इस तरह गर्भ में एक हलचल पैदा करने का काम परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से करती हैं। जाहिर है उसमें कहीं कोई बुनियादी दिक्कत है।
लेकिन अगर हम यह भी मान लें कि कोई क्रांतिकारी शक्ति है जो वास्तव में समाज के गर्भ में पल रहे जन उभार से समाज में एक क्रांतिकारी हलचल और बदलाव पैदा करना चाहती है, तो भी यह प्रमुख सवाल उचित जवाब के बिना बचा रह जाता है कि आखिर हलचल पैदा करने के लिए मजदूर वर्ग की अगुआ प्रेरक शक्तियों में ठीक-ठीक कौन सी चीज का अभाव है जो उसे इस काम को करने में अक्षम बनाती है? इस प्रश्न पर यहां कितना विचार किया जा सकता है यह विचारनीय है, जिसका अर्थ यह है कि यह प्रश्न अतिगंभीर है और उचित प्लैटफार्म पर गंभीर बहस के द्वारा हल किए जाने की मांग करता है। लेकिन फिर भी यहां इतना तो कहा ही जा सकता है कि इसका हल महज नारे लगाने और क्रांतिकारी भावना से लबरेज हो कर गुस्सा प्रकट करने में तो कतई नहीं है। जन विक्षोभ और जन विद्रोह के बीच के सारे अंतर का मर्म, एक के दूसरे में नहीं बदल पाने की सारी कमजोरियों का असली मर्म ठीक-ठीक इसी उपरोक्त प्रश्न के सही जवाब में छुपा है।
क्रांतिकारी शक्तियों के बीच अक्सर यह बात होती है कि मजदूर वर्ग चुप बैठा है या उसके अंदर कोई विशेष प्रकार की हलचल नहीं दिखाई देती है, और इसीलिए देश के पैमाने पर उसके पदचाप कहीं सुनाई नहीं देते हैं, तो ऐसे में क्रांतिकारी शक्तियां आखिर क्या कर सकती हैं? जबकि यह हम सभी को पता है कि समाज के अंतवर्ती वर्गों में चाहे जितनी हलचल हो मजदूर वर्ग में एक विशेष प्रकार की, यानी क्रांतिकारी सरगर्मियों से भरी हलचल के बिना कोई बुनियादी परिवर्तन होने वाला नहीं है। हताशा से उपजा यह सवाल अन्य तरह के सैद्धांतिक सवालों, सही या गलत यह एक अलग प्रश्न है, में अपना ठौर पाता दिखता है। यह एक यथार्थ है कि मजदूर वर्ग के बीच क्रांतिकारी चेतना का काफी अभाव है, और वे अपने जीवन के अहम सवालों पर भी अभी तक चरम रूख लेने को तैयार नहीं हैं। आर्थिक विवशता उन्हें बुरी तरह घेरे हुई है। इस यथार्थ की हम कई तरीके से व्याख्या कर सकते हैं और इस पर पार पाने के लिए उठाये जाने वाले कदमों पर होने वाले मतभेद भी जायज हैं, लेकिन हम पाते हैं कि अक्सर इस यथार्थ का उपयोग भौतिकवाद, जो हमें यथार्थ को प्रस्थान बिंदु बनाकर उसे बदलने की प्रेरणा देने वाला सिद्धांत है और इसीलिए भौतिकवादी होने का अर्थ यथार्थवादी होना नहीं होता है, को मानने वाले लोग स्वयं अपनी तैयारियों में मौजूद कमियों को जाने या अनजाने ढंकने के लिए करते हैं। यह किसान आंदोलन में भी दिखा और मजदूर आंदोलन में भी अक्सर दिखता है, भले ही हमारे नारे क्रांतिकारी हों अथवा हमारी भावना क्रांतिकारी हो। दरअसल हारे हुए मन से जीतने की तैयारी नहीं की जा सकती है। लेकिन यह भी सही है कि महज क्रांतिकारी भावना से ओतप्रोत होने मात्र से ही जीतने की वास्तविक तैयारी नहीं की जा सकती है। कहने का अर्थ है कि क्रांतिकारी हलचल कैसे आएगी, इस पर विचार करने से बेहतर अपने देश एवं विश्व की अर्थव्यवस्थाओं का विश्लेषण कर यह जांचना ज्यादा सही होगा कि वह कब आने वाली है और इसके अनुरूप अपनी तैयारियों में लगना होगा। और ठीक यही बात आज की तारीख में अत्यंत पेचीदा मसला हो चुका है। लेकिन यह उसी हद तक पेचीदा है जिस हद तक हम इसे नहीं समझते हैं या नहीं समझना चाहते हैं। अन्यथा यह सब कुछ समझने की हमारी शक्ति से परे तो कतई नहीं है।
जैसे कि यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि अगर हम (क्रांतिकारी शक्तियां) यह मानते हैं कि संकट गहराता जा रहा है और जन विक्षोभ बढ़ रहा है, तो क्या हम यह पाते हैं कि इसका उचित समय व अवसर पर, जिसके आने की पूरी गारंटी है, उपयोग करने का एजेंडा हमारे पास है? हम जानते हैं कि इसके आम तौर पर क्या जवाब आते हैं। एक तो यह कि अगर हम क्रांतिकारी हैं तो एजेंडा पर तो ऐसा होगा ही, या है ही। लेकिन जब बात आगे बढ़ती है तो पता चलता है कि नहीं, वह एजेंडा सुदूर भविष्य का एजेंडा है। निकट भविष्य के लिए कुछ और ही एजेंडा है। अभी अन्य कार्य पड़े हैं जिससे आने वाले क्रांतिकारी हलचल के उपयोग का कोई जुड़ाव नहीं दिखता है। जैसे कि हम कह सकते हैं कि अभी फासीवाद से लड़ना है, इसके लिए बड़ा से बड़ा मोर्चे कायम करना है, जन संगठनों के स्तर पर देशव्यापी तालमेल करना, आदि आदि। लेकिन जो चीज इन सबके बीच से गायब (missing) है वह है कि इस बीच अगर कोई क्रांतिकारी हलचल आता है तो हम उसका उपयोग करेंगे या नहीं, या उसके लिए पहले से कोई तैयारी करने की तैयारी है नहीं? यह सवाल आते ही अन्य ढेरों सवाल पार्श्व में आ खड़े होते हैं। कुल मिलाकर इस पर एक ढीला-ढाला रूख लिया जाता है। क्रांतिकारियों के अल्पतम में होने की बात से लेकर आत्मगत तैयारी के सर्वथा अभाव की बात इन सबमें सबसे चर्चित और लोकप्रिय बात है। क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय पार्टी का न होना सबसे बड़ी समस्या के रूप में दिखाया जाता है, जो कि एक हद तक है भी। इसके लिए लेनिन का सूत्र उद्धृत किया जाता है, लेकिन यह बात भूला दी जाती है कि स्वयं लेनिन ने इन कमियों पर कैसे विजय पाई थी, उन्होंने क्रांतिकारी तरीके से अपने को अल्पमत से बहुमत में कैसे बदला था, या बदलने के रहस्य और उसकी गुत्थी का हल किस तरह निकाला था। कामरेड रोजा लक्जेमबर्ग जैसी हस्ती का भी कहना था कि जिसे जर्मन नहीं हल कर पाये उसे बोल्शेविकों ने कर दिखाया। लेकिन वह यह कहना भूल गईं कि वास्तव में तो जर्मनी के कम्युनिस्टों के लिए, जो एक हद तक बहुत बड़ा बहुमत हासिल कर चुके थे, ठीक वही बहुमत उनके पैरों की बेड़ियां बन गईं थीं और उन बेड़ियों को सही समय पर तोड़ने में स्वयं रोजा और लिब्कनेख्त जैसे क्रांतिकारी भी असफल रहे और इसलिए जर्मन क्रांति भी असफल रही जिसमें दोनों महान नेताओं की शहादत हुईं। चीजें धरातल पर वस्तुत: कैसे कोई रूप लेती हैं उसका यह सुंदर उदाहरण है। ये सभी बातें उचित प्लैटफार्म पर गंभीरता से बहस और विमर्श की मांग करती हैं जिसमें सनक के लिए कोई जगह नहीं हो सकती है। इसे समझने की जरूरत है कि बोल्शेविक पार्टी, जो चंद दिनों पहले तक अधिकांश सोवियतों में अल्पमत में थी और केंद्रीय स्तर के सोवियत में अंत तक अल्पमत में रही, उसने अक्टूबर क्रांति जैसी भूचाल पैदा करने वाली क्रांति कैसे संपन्न कर दी जिसमें बल का प्रयोग भी न्यूनतम हुआ। वह कौन सी कुंजी थी जिसने इस समस्या की गुत्थी सुलझा दी? वह कुंजी तो हमारे पास नहीं ही है, लेकिन क्या उस कुंजी की हमारे पास कोई समझ भी है इसे समझना जरूरी है, ताकि कल जब हमारा भी जनता के गुस्से से भरे ऊफान के शीर्ष पर सवार होने के कार्यभार से सचमुच हमारा सामना हो और जनता के बीच उठते तूफानों से हमारा वास्ता पड़े, तो हम बस यूं ही गुब्बार देखते नहीं रह जाएं।
फासीवाद के दैत्य से लड़ने के सवाल को लें। इसे परास्त करने वाली वास्तविक शक्ति मजदूर वर्ग तथा अन्य मेहतनकश वर्गों के संयुक्त मोर्चे के अलावा और कौन है? क्या उदार बुर्जुआ वर्ग की संसदीयता के सहारे इसे परास्त किया जा सकता है? क्या इसे संसदीय तरीके से आज हराया भी जा सकता है? इसे परास्त करने की लड़ाई एक जनक्रांति का रूप लिए बिना सफल होगी? क्या फासीवादी उभार के बीच कोई जनक्रांति पक रही है, पकने की कल्पना हम कर सकते हैं? अगर हां, तो उसके शीर्ष पर अंबानी-अडानी की दुकानें सजेंगी, या मजदूर वर्ग की शक्तियां विराजमान होंगी, क्या इस पर कोई बहस है? अगर मजदूर वर्ग की अगुआ शक्तियां उस पर सवार होंगी, तो फिर फासीवाद को परास्त करने के बाद वापस उसी बुर्जुआ जनतंत्र, जो पूरी तरह संकटजनित हो सड़ चुकी है और लगातार मृत शव की तरह सड़ांध मार रही है, की ओर क्यों लौटेगी? ऐसे न जाने कितने सवाल हैं जिनका उत्तर खोजने की हिम्मत क्रांतिकारी शिविरों में आज अनुपस्थित दिखाई देती है।
बोला जाता है कि क्रांतिकारियों के बीच एकता नहीं है और फिलहाल उनकी कोई एकल पार्टी नहीं बन सकती है, तो फिर क्रांतिकारी कार्यक्रमों की आत्मा (वर्तमान व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की बात जो सबमें मौजूद है) के सम्मिलन (fusion) के आधार पर हमारी शक्तियों का कोई योगफल क्यों नहीं प्राप्त किया जा सकता है जिसकी परिणति किसी ऐसे संयुक्त क्रांतिकारी कार्यक्रम में प्रकट हो जो हमारे आज के तथा भावी या अंतिम लक्ष्य को एकीकृत करते हों? इससे इनकार का क्या अर्थ है, सिवाय इसके कि हम फासीवाद के समक्ष नतमस्तक हो बिना किसी प्रतिरोध के हार मान लें या फिर एक बड़े मोर्चे का हिस्सा बनें जिसके शीर्ष पर कांग्रेस जैसी या कोई अन्य पार्टी (अंबानी-अडानी की ही तथाकथित विपक्षी दूकानें) और उसकी पूंछ पकड़ लें और यह उम्मीद करें कि फासीवाद का भूत भाग जाएगा? हम इन प्रवृत्तियों के विश्लेषण में नहीं जाना चाहते हैं, लेकिन यह तो कहना ही पड़ेगा कि ऐसी प्रवृत्तियों के हावी रहते जन विक्षोभ और जन विद्रोह के बीच की दूरी बनी रहेगी और इसका परिणाम यही होगा कि बहुत से बहुत अंबानी-अडानी की नई दुकानें नये साइनबोर्ड के साथ ही सजेंगी जिसे फासीवाद की पराजय और उसके भूत से मुक्ति माना जाएगा। इसका कुल निेचोड़ क्या है? यही कि न तो फासीवाद परास्त होगा, न ही उसकी जमीन ही बन पाएगी। उल्टे संसद में विपक्षी ताकतों की जीत से फासीवाद उलट कर एक नये और अत्यधिक हिंसक दौर के पूर्वकाल में प्रवेश करेगा।
हम यह करने के लिए मजबूर या अभिशप्त होते हैं और हमें क्या करना चाहिए यानी क्या करना हमारी क्रांतिकारी परंपरा के हिसाब से जरूरी है, ये दोनों अलग-अलग बातें हैं। कोई भी मार्क्सवादी-लेनिनवादी यह नहीं मानेगा या चाहेगा कि अगर सच में कोई जन उभार पल रहा है, तो उसकी अंगड़ाई लेने के वक्त को हमें यूं ही सिर्फ इसलिए जाने देना चाहिए क्योंकि हमारी एकल ताकत कमजोर है। यह समझना तो एक मामूली से भी मामूली चीज है कि हम सबकी एकल ताकत जरूरत की तुलना में काफी कमजोर है। यह कोई खोज नहीं है। असली खोज तो इस बात को समझने की है कि यह ”अंगड़ाई” ही हमारी सबसे मजबूत ताकत बन जा सकती है, लेकिन इसकी शर्त है कि हम इसके लिए पूर्व तैयारी करें। अक्टूबर क्रांति के पहले के चंद महीनों के दौर में बोल्शेविकों के द्वारा लिए जाने वाली कार्यनीति व रणनीति को देखें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी कुंजी कहां है। कोई यह गारंटी से नहीं कह सकता है कि कोर्नीलोव विद्रोह, जो प्रत्यक्षत: अस्थाई पूंजीवादी सरकार के विरुद्ध लक्षित था, को दबाने में बोल्शेविकों ने अगर भूमिका नहीं निभाई होती तो क्या अक्टूबर क्रांति हो पाती या नहीं। ये ठोस परिस्थितियों के ठोस आंकलन का विषय है जैसा कि लेनिन कहते हैं। यह आम तौर पर हमारी क्रांतिकारी कार्यवाहियों का ही एक हिस्सा है कि हम हार नहीं मानते, हालांकि जिसकाअर्थ यह कदापि नहीं होता है कि हम जीत ही जाएंगे। दुनिया में कहीं भी जीत की पक्की गारंटी के आधार पर क्रांतियां नहीं हुई हैं।