साम्राज्यवाद व सेटलर उपनिवेशवादी इजरायली जायनिस्टों से फलस्तीन की जंगे-आजादी जिंदाबाद

December 18, 2023 0 By Yatharth

3 दिसंबर को अमरीकी विदेश मंत्री लॉयड ऑस्टिन को इजरायल को यह चेताने के लिए मजबूर होना पड़ा है कि तात्कालिक रणकौशलात्मक विजयों के बावजूद उसके सामने रणनीतिक पराजय का खतरा मंडरा रहा है। यह बयान तब आया है जब इजरायल ने 6 दिन के अस्थाई युद्धविराम पश्चात फलस्तीनीयों के पूर्ण नस्ली सफाये की अपनी नृशंस मुहिम के तहत गाजा पट्टी में बड़े पैमाने का कत्लेआम फिर चालू कर दिया है। यह पूरी कातिल मुहिम अमरीका-नाटो की पूर्ण सामरिक मदद से चल रही है। न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक गाजा पट्टी में गिराए बमों के 90% 1 से 2 हजार पाउंड वाले हैं जबकि अमरीकी फौज के अनुसार इराक में 500 पाउंड के बम प्रयोग किए गए थे और ये भी बहुत बड़े होते हैं। इनमें से हर बम अमरीका में बना और सप्लाई किया गया है।

इस बीच अमरीकी राष्ट्रपति के ऊर्जा सुरक्षा सलाहकार अमोस हॉक्सटीन ने 20 नवंबर को इजरायल की यात्रा कर गाजा के प्राकृतिक गैस भंडार के विकास द्वारा आर्थिक उन्नति की भी चर्चा की है। इसके पहले हॉक्सटीन ने इजरायल व लेबनान के बीच भी गैस की खोज के लिए समुद्री सीमा बांधने का समझौता कराया था। गाजा के गैस भंडारों का विकास कैसे किया जाए, और उससे होने वाली आय में किसकी कितनी हिस्सेदारी हो यह भी एक लंबे समय से अनुसलझा मुद्दा रहा है। साम्राज्यवादी देशों द्वारा दुनिया भर के संसाधनों की लूट पहले से ही युद्ध का एक बड़ा कारक है। इस वक्त तो अमरीका नीत पश्चिम व चीन-रूस की दो साम्राज्यवादी धुरियों के बीच इसके लिए बढ़ती होड़ से अफ्रीका के सहेल क्षेत्र से सीरिया, उक्रेन, यमन, कोरिया व दक्षिण चीनी समुद्री इलाके में युद्ध व तनाव की गंभीर स्थिति पहले से ही मौजूद है। अब नाटो ने पश्चिम एशिया में दखलंदाजी हेतु अपनी नौसेना का बड़ा हिस्सा तैनात किया है जो इस क्षेत्र में उसके प्रभाव में कमी को रोकने का प्रयास है। उधर चीन-रूस धुरी इस वक्त शांति व युद्ध विराम की बातों से अपना प्रभाव बढ़ाने की नीति अपना रही है। पर प्रभावी रूप से दोनों की फलस्तीनी आजादी के पक्ष में कोई भूमिका नहीं है। 

आत्मरक्षा का अधिकार जायनिस्टों का नहीं, फलस्तीनीयों का है

जाहिर तौर पर यह मुहिम 7 अक्टूबर को हमास सहित 10 फलस्तीनी समूहों द्वारा इजरायल पर हमले के जवाब में ‘आत्म रक्षा’ के लिए शुरू की गई है। किंतु सच तो यह है कि गाजा के फलस्तीनीयों के खिलाफ जायनिस्ट हमलावर मुहिम 1967 के समय से ही चलती आ रही हैं, जब इजरायल ने गाजा पट्टी व वेस्ट बैंक को अपने कब्जे में लिया था। उसने इन इलाकों को नाममात्र को ही स्वायत्त किया है क्योंकि वह इन्हें चारों और से घेरे हुए है और इनकी खाद्य बिजली पानी दवाओं से लेकर निवासियों की यात्रा तक पर उसका नियंत्रण है। अतः इजरायल इन इलाकों पर काबिज होने की वजह से उसका ‘आत्म रक्षा’ का तर्क बुनियादी रूप से गलत है। ये तो कब्जे वाले क्षेत्रों के फलस्तीनी हैं जिनका अपनी आजादी के लिए सभी प्रकार का संघर्ष हर कानूनी व नैतिक आधार पर जायज है।

7 अक्टूबर के फलस्तीनी हमलों में निश्चय ही सैनिकों के अतिरिक्त कुछ इजरायली नागरिक मारे गए और यह तर्क दिया जा सकता है कि फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष को व्यापक जनसंघर्षों के आधार पर चलाया जाना चाहिए, एवं सशस्त्र मुक्ति संघर्ष का निशाना भी नागरिक नहीं औपनिवेशिक सैन्य ठिकाने होने चाहियें। लेकिन पहले 1948 में नकबा और 1967 के बाद से कब्जा किए हुए क्षेत्रों में जायनिस्ट व्यवहार बताता है कि जायनिस्टों ने फलस्तीनीयों को नागरिक तो दूर इंसान भी नहीं माना है। फलस्तीनीयों को कीड़े-मकोड़े कहकर सम्पूर्ण नस्ली सफाया घोषित नीति है। न सिर्फ सशस्त्र हमले में हरेक इजरायली मौत के बदले में 50-60 फलस्तीनी जानें लेना उसकी नीति रही है बल्कि 1982 में बेरूत के सबरा-शाटिला शरणार्थी शिविरों का सामूहिक जनसंहार हो या 1987 के प्रथम इंतिफादा (विद्रोह) से 1918 का वापसी मार्च, शांतिपूर्ण विरोध के हर प्रयास पर जायनिस्ट गिरोह ने ऐसी कातिल हिंसा का प्रदर्शन किया है कि हथियारबद्ध या निशस्त्र होने से जायनिस्टों की हत्यारी मानसिकता में कोई बदलाव नहीं देखा गया है। इसके अतिरिक्त सभी इजरायली नागरिक अनिवार्य सैन्य सेवा व प्रशिक्षण ही नहीं लेते हैं, बल्कि बच्चों-बुजुर्गों को छोड़कर वे सेना के रिजर्व का हिस्सा होते हैं।

गाजा का ध्वंस इतिहास के बर्बरतम अध्यायों में एक है

जायनिस्टों का ऐलान था कि हमास, दरअसल गाजा की पूरी आबादी, के सफाए पूर्व युद्धविराम नहीं। वैश्विक विरोध के बाद 24 नवंबर को 4 दिन का अस्थाई युद्धविराम हुआ, जो बाद में बढ़ाया गया। 26 नवंबर को स्विट्जरलैंड स्थित यूरो-मेड मॉनिटर ने गाजा में हताहतों के आंकड़े जारी किए। कुल मृत्यु 20,031 जिनमें 8,176 बच्चे और 4,112 महिलाएं हैं। 17,30,000 विस्थापित हुए अर्थात 80% से अधिक आबादी। इस तरह हर दिन 167 बच्चे तथा 377 नागरिक मारे गए। 59,240 घर जमींदोज तो 165,300 आंशिक ध्वस्त हुये। 1040 औद्योगिक इकाइयां, 266 स्कूल, 22 अस्पताल, 55 क्लिनिक व 46 एंबुलेंस, 91 मस्जिदें, 3 चर्च, 140 मीडिया दफ्तर नष्ट हुए। हर यूनिवर्सिटी ध्वस्त की गई है और कवि, प्रोफेसर, साहित्यकार चुन चुन कर मारे गए हैं। 64 पत्रकार व 210 डॉक्टर/स्वास्थ्य कर्मी मृत व 236 घायल हैं। इजरायल के 1 से 2 हजार हमास लड़ाके मारने के दावे को भी सच मानें तो मृतकों में 92% नागरिक हैं। गाजा में दो महीने में जो विध्वंस हुआ है वह द्वितीय विश्वयुद्ध के 6 साल की जर्मन शहरों पर बमबारी से हुए ध्वंस के समान है।

यह विध्वंस इजरायली फौज की उस दहिया डॉक्ट्रीन के मुताबिक है जिसमें नागरिक क्षेत्रों को बमबारी से पूरी तरह समतल किया जाता है। 2006 में बेरूत के दहिया उपनगर पर इसका प्रथम प्रयोग किया गया था। परंतु इतिहास में जायें तो इसका मूल सभी साम्राज्यवादी देशों द्वारा उपनिवेशों में छोटे से छोटे विद्रोह के बदले पूरी आबादी को आतंकित करने वाले सामूहिक दंड की नीति है। 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में जलियांवाला बाग का जनसंहार इसका एक उदाहरण था जो दो यूरोपीय मिशनरी स्त्रियों की पिटाई के प्रतिकार में पूरी आबादी को सबक सिखाने के नाम पर किया गया था। किंतु इस नीति का इजरायली रूप असल में नाजी हमलावरों से सीखा गया है जिन्होंने सम्पूर्ण युद्ध की नीति अर्थात पूरे शहरों-कस्बों-गांवों को समूचा नष्ट करने, जलाने, आबादी की गोलियों से, कुचलकर, जलाकर सामूहिक हत्या करने का कारनामा सोवियत संघ व पूर्वी यूरोप के हजारों स्थानों पर दोहराया था। जायनिस्ट इन नाजियों के ही ‘सच्चे’ वारिस हैं।

आबादी व समयावधि के आधार पर यह इतिहास के बर्बरतम अध्यायों में एक है। उक्रेन युद्ध में 20 महीनों में 9,614 नागरिकों की मौत हुई है। उक्रेन की आबादी के 22वें हिस्से और 49 दिन – गाजा में युद्ध उक्रेन की तुलना में नागरिकों के लिए 520 गुना घातक है। बच्चों की बात करें तो उक्रेन में 640 दिन की जंग में 4.4 करोड़ आबादी में 555 बच्चों की मौत हुई। गाजा की 23 लाख आबादी में 8,176 बच्चों की। साफ है कि बच्चों को इरादतन निशाना बनाया गया। इजरायली संसद में बिन्यामिन नेतन्याहू ने बोला था ‘याद रखो अमालक ने तुम्हारे साथ क्या किया’ अर्थात बाइबल का वो अंश जो हुक्म देता है – ‘मर्दों व औरतों, बच्चों व शिशुओं, पशुओं व भेड़ों, ऊंटों व गधों सबको कत्ल करो’। अर्थात इरादा ही जनसंहार है। रक्षा मंत्री गैलेंट ने भी फलस्तीनियों को मानव पशु कह उनके वध का ऐलान किया था। जायनिस्ट गिरोहों का घृणित रवैया दर्शाने वाली ऐसी भी रिपोर्टें हैं कि फलस्तीनी समूहों ने इजरायलियों पर घात लगाने के लिए खेलते बच्चों की रिकॉर्डिंग प्रयोग कीं जिन्हें सुनने पर ये गिरोह बच्चों के कत्ल के लिए उत्सुक हो घात लगाने वालों के शिकार बने। जायनिस्ट फौज के मुख्य रैबी (150 दूसरे रैबियों ने इसका समर्थन किया है) के मुताबिक सैनिकों द्वारा बलात्कार उचित हैं। 

गोएबेल्सियन दुष्प्रचार

नाजियों ने भी मानवता के खिलाफ (साम्राज्यवादी दुष्प्रचार है कि नाजी अपराध मात्र यहूदियों पर थे जबकि इनका बड़ा शिकार सोवियत व पूर्व यूरोप की जनता बनी) अपराधों को छिपाने की कुछ कोशिश की थी। उनके कब्जे वाले इलाकों की मुक्ति पर ही ये जुर्म पूरी तरह सामने आए। किंतु जायनिस्टों ने तो फलस्तीनियों सहित हर आलोचक के लिए अपनी नफरत खुले आम जाहिर कर नस्ली सफाये का लगातार ऐलान किया है। इसमें इजरायली राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री, विपक्षी नेता, मीडिया सभी शामिल थे। जायनिस्टों ने अस्पतालों, स्कूलों, मीडिया, डॉक्टरों व पत्रकारों के निवासों को चुन चुन कर निशाना बना पूरे परिवारों को मार डाला। अस्पतालों पर हमला तो जायनिस्टों ने जंग का खास मकसद बनाया हुआ है।

विश्व जनमत जुटाने हेतु साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी इतिहास के हर जाने-पहचाने झूठ व दुष्प्रचार का इस्तेमाल किया गया है। इजरायली ही नहीं, बीबीसी, सीएनएन, आदि से लेकर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का तथाकथित चम्पियन पूरा साम्राज्यवादी मीडिया फलस्तीन के सवाल पर पूर्ण झूठ का सहारा ले रहा है और जायनिस्ट हिंसा के पक्ष में इजरायल को निर्दोष जनतंत्र व फलस्तीनीयों को हत्या के योग्य दुर्दांत राक्षसी खलनायक दिखा रहा है।  शुरूआती रिपोर्ट 1400 इजरायली मृत्यु की थी जो अब घटते हुए 900 ही रह गईं हैं जिनमें दो तिहाई से अधिक सैनिक थे। मीडिया रिपोर्ट हैं कि इनमें से भी बहुत सारी मौतें इजरायली हेलिकॉप्टरों व फौजी यूनिटों द्वारा अंधाधुंध गोलीबारी में हुईं। हैनीबल डाइरेक्टिव नामक इजरायली नीति पूर्वविदित भी है कि नागरिकों के बंधक बनने से बेहतर है इजरायली फौज ही उन्हें मार डाले। फलस्तीनीयों पर बच्चों का सिर काटने, ओवन में बेक करने, सामूहिक बलात्कार, जलाने, बुजुर्गों, मरीजों का गला रेतने जैसे तमाम इल्जाम लगाए गए, जो एक के बाद एक गलत सिद्ध हुए हैं। फलस्तीन के सौ साल के इतिहास को नकार कर दुष्प्रचार किया जा रहा है कि 6 अक्टूबर पूर्व युद्ध विराम व पूर्ण शांति थी, एवं हिंसा 7 अक्टूबर को हमास ने हमला कर आरंभ की! इस ऐतिहासिक संदर्भ की बात करने वालों को एंटी सेमेटिक करार दे दिया गया है, मानो जायनिस्ट किसी विशिष्ट पवित्र नस्ल के लोग हैं जिनके ऊपर सभ्यता का कोई नियम लागू नहीं होता। दरअसल जायनिस्ट ठीक वही कर रहे हैं जो नाजियों ने किया था, जिनके अत्याचार का हवाला देकर जायनिस्ट मांग करते हैं कि उस जुल्म के मुआवजे बतौर उन्हें मानवीय सभ्यता के सभी कायदों के परे माना जाए। 

जायनिस्टों के सेटलर औपनिवेशिक जुल्म 

संदर्भ हेतु, 1969 में ही संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव में कहा गया था, “यह गंभीर चिंताजनक है कि रिपोर्ट किए गए सामूहिक दंड, मनमानी हिरासत, कर्फ्यू, घरों और संपत्ति के विनाश, निर्वासन और शरणार्थियों एवं कब्जे वाले क्षेत्रों के निवासियों के खिलाफ अन्य दमनकारी कृत्यों से (फलस्तीनी) अधिकार छीने गए हैं।” संयुक्त राष्ट्र महासभा में पश्चिमी साम्राज्यवाद के अलावा दुनिया भर ने इजरायल को औपनिवेशिक कब्जा करने वाला माना है। यह पश्चिम व जापानी उपनिवेशवादियों द्वारा एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, अमरीका, आदि की जनता के साथ असंख्य नृशंस अपराधों व जनसंहार के इतिहास को ही दोहरा रहा है।

फलस्तीनियों को असभ्य, बर्बर या इंसानों से नीचे दर्जे का बताना औपनिवेशिक आबादी को “असभ्य” बताये जाने के लंबे इतिहास के अनुरूप है। यूरोप/जापान के औपनिवेशिक लुटेरों ने गुलाम देशों के लोगों को इंसान समझा ही कब? हमेशा मानव-पशु ही समझा है। ‘Indians and dogs not allowed’, ऐसे बोर्ड हमारे ही देश में कितने क्लबों, होटलों पर लगे होते थे। यूरोप-अमरीका में अफ्रीकियों को पशुओं की तरह पिंजरे में प्रदर्शित किया जाता था। 1960 के दशक तक यूरोपीय सेटलरों के घरों में अफ्रीकी बच्चों को पालतू की तरह जंजीर से बांध रखा जाता था। नाजियों के सभी जुल्मों का प्रथम प्रयोग तो साम्राज्यवादी देशों ने उपनिवेशों में ही किया था – नस्ल-रंग भेद, सामूहिक दंड, बस्तियां जलाना-उजाड़ना, सेटलरों द्वारा हत्या-बलात्कार, जमीनों पर कब्जा, घेट्टो, यातना शिविर, जबरन अकाल, गुलाम श्रम, सामूहिक कत्ल, शरीरों पर विकृत प्रयोग, परिवारों को विलग करना, बेचना, जबरन प्रवास, वगैरह। इजरायली सेटलरों द्वारा फलस्तीनियों को मानव-पशु बोलना, सामूहिक कत्ल, नस्ली सफाया, बस्तियां उजाड़ना, जमीनों पर कब्जा, शरणार्थी बनाना, वगैरह  उसी पुरानी अमानवीय औपनिवेशिक नस्लवादी जहनियत को दर्शाता है।

यहीं उत्तरआधुनिकतावादी अस्मितावाद के शासक वर्गीय विचार पर भी गौर जरूरी है। यह विचार शोषित-उत्पीड़ित जनता की एकजुटता के आधार पर शोषक तंत्र के खिलाफ एक्यबद्ध संघर्ष से इंकार कर उत्पीड़ित जनता को हर मुमकिन आधार पर छोटे होते जाते समूहों में बांट कर अपने-अपने संकीर्ण हितों की पूर्ति की इच्छा को बढ़ावा देता है। उनके सजीव अनुभव (lived experience) या अनुभववाद को ही एकमात्र सत्य घोषित कर यह दूसरे किसी भी समूह द्वारा उनकी अवस्थिति की आलोचना को पूरी तरह खारिज कर देता है। इस प्रकार सभी उत्पीड़ितों के शोषण के लिए जिम्मेदार सामाजिक व्यवस्था से पूर्ण इंकार कर यह उन्हें दूसरे उत्पीड़ितों की कोई परवाह किए बगैर अपने संकीर्ण हितों पर बजिद होने के लिए प्रोत्साहित करता है। सभी उत्पीड़ितों के उत्पीड़न की साझा वजह के खिलाफ एक साझा एकजुट संघर्ष को नकार यह पूंजीवादी व्यवस्था में सीमित संसाधनों के बंटवारे में अधिक हिस्से के लिए विभिन्न समुदायों में परस्पर वैमनस्य को बढ़ावा देता है। व्यापक एकता के अभाव में सीमित शक्ति के कारण ये छोटे समूह जुझारू संघर्ष में असमर्थ होकर शासक वर्ग राजनीति में ही संरक्षण खोजने को मजबूर हो उसकी घृणित साजिशों के शिकार बनते हैं। निश्चय ही एक विशिष्ट उत्पीड़ित समुदाय के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय-उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाना कतई गलत नहीं।  यह पूरी तरह जायज है। लेकिन अगर कोई हर जगह मानवता के साथ अन्याय का विरोधी होने के बजाय खुद को मात्र एक समुदाय के साथ अन्याय के विरोध तक ही सीमित कर ले तो यह संकीर्ण नजरिया अंततः उसे कुछ वक्त बाद अन्याय के साथ ही खड़ा कर उत्पीड़क शासक वर्ग का औजार बना देता है। जायनिस्ट हों या मणिपुर के मैतेई मीरा पाईबीज, दोनों ऐसे ही अपने समुदायों के साथ हुए अन्यायों के विरोध के नाम पर खुद ही जुल्म के औजार बन गए हैं।

जायनिज्म का उपनिवेशवादी इतिहास 

यूं तो व्यापारिक पूंजीपतियों तथा उनके लुटेरे गिरोहों के साथ ही विभिन्न कारणों से यूरोप से प्रवास करने या करने के लिए मजबूर किए गए सेटलरों के जरिए उपनिवेशवाद पहले से जारी था, पर 19वीं सदी में मोनोपॉली पूंजीवाद के उभार पश्चात इसका साम्राज्यवादी अवतार सामने आया। दुनिया के देशों पर कब्जा करने, आबादी को गुलाम बनाने, संसाधनों को लूटने की जबर्दस्त होड़ शुरू हुई और साम्राज्यवादी देशों ने दुनिया को अपने प्रभाव क्षेत्रों में बांटा। 1876 में ब्रसेल्स में साम्राज्यवादी देशों ने एक सम्मेलन में दुनिया की बंदरबांट की। लेकिन पुनः बंटवारे के लिए छीना झपटी जारी रही। नतीजा साम्राज्यवादी देशों में 1914-18 की विनाशकारी वैश्विक जंग थी। जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी, तुर्की की धुरी पराजित हुई जिनके उपनिवेशों को विजयी ब्रिटेन, फ्रांस, अमरीका ने आपस में बांटा। फलस्तीन इसी विभाजन में 1917 में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आया।

सच है कि यहूदी अल्पसंख्यकों का यूरोप में नस्ली-धार्मिक उत्पीड़न होता था। परंतु यहूदी भी कोई एकाश्म या मोनोलिथिक समुदाय नहीं, वर्ग विभाजित थे। इनका संपन्न पूंजीपति भाग वित्तीय पूंजीवाद के शिखर समूहों में शामिल व औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी बंदरबांट में हिस्सेदार था। औपनिवेशिक देशों में वित्तीय पूंजीपतियों की सेवा में एक एडवेंचरिस्ट गिरोह (औपनिवेशिक लूट में हिस्सा पाने के लिए वित्तीय पूंजीपतियों के भाड़े के लुटेरे बन दुनिया में कहीं भी जाने को तैयार व्यक्ति) भी था। यूरोपीय यहूदी भी इस प्रक्रिया में शामिल थे। फलस्तीन पर सेटलर उपनिवेशवादी कब्जे का जायनिस्ट विचार 19वीं सदी के इसी औपनिवेशिक दौर की देन है। इसे औपनिवेशिक देशों के शासकों का संरक्षण हासिल था। 1917 में ब्रिटेन की बाल्फूर घोषणा ने इसे प्रोत्साहन दिया।

जर्मन नाजियों ने भी फलस्तीन में जायनिस्ट सेटलरों को प्रोत्साहन दिया। संपन्न जर्मन यहूदियों के फलस्तीन प्रवास की एक योजना अमल में लाई गई। ब्रिटेन ने फलस्तीन में बसने हेतु 4,990 डॉलर (तब बड़ी रकम) की न्यूनतम पूंजी की शर्त लगाई। नाजी जर्मनी पलायन करने वाले यहूदी की संपत्ति जब्त करता था। मगर नाजी हुकूमत, जायनिस्ट फेडरेशन ऑफ जर्मनी तथा एंग्लो-पैलेस्टीन बैंक में अगस्त 1933 में हुए हावरा समझौते के तहत नाजी फलस्तीन जाने वाले यहूदी की संपत्ति के बदले जर्मनी की औद्योगिक वस्तुओं को फलस्तीन में हावरा कंपनी को भेजने हेतु राजी हुए। इन वस्तुओं को बेच प्रवासी यहूदी ब्रिटिश प्रशासन न्यूनतम पूंजी की शर्त पूरा करते थे। 1939 तक 4 करोड़ डॉलर से अधिक की रकम के ट्रांसफर से 60,000 यहूदियों को फलस्तीन भेजा गया। नाजी शासन अंतर्गत चेकोस्लोवाकिया में भी ऐसी योजना अमल में लाई गई।

विश्वयुद्ध आरंभ होने तक खासी संख्या में जायनिस्ट फलस्तीन पहुंच चुके थे। युद्ध पश्चात यूरोपीय यहूदियों की और खेप फलस्तीन पहुंचीं। जायनिस्टों ने हथियारबंद गिरोह बनाकर आतंकवादी हमले आरंभ कर दिए। होलोकॉस्ट पश्चात माहौल में संयुक्त राष्ट्र ने फलस्तीन का विभाजन कर इजरायल को मान्यता दे दी। सशस्त्र जायनिस्ट गिरोहों (बाद में इजरायली फौज कहा गया) ने फलस्तीनी बस्तियों को उजाड़ना शुरू कर दिया। नतीजन हुए युद्ध में मिस्र व जॉर्डन भी शामिल हुए। इजरायल ने फलस्तीन के 78% हिस्से पर कब्जा कर लिया। गाजा पट्टी को मिस्र और वेस्ट बैंक को जॉर्डन ने अपने नियंत्रण में ले लिया। 

यही नकबा (सर्वनाश) कहा जाता है जो 1948 में घटित हुआ। जायनिस्टों ने 80% आबादी अर्थात 400 गांवों के लगभग 8 लाख फलस्तीनियों को भगाकर उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया जबकि डेढ़ लाख फलस्तीनी शरणार्थी इजरायली सीमा में ही रह गए। यह कितने हिंसक ढंग से हुआ इस पर एक यहूदी फिल्मकार की डाक्यूमेंट्री फिल्म तंतुरा (Tantura) देखी जा सकती है जिसमें तंतुरा पर कब्जे में शामिल जायनिस्टों के आगजनी, हत्याओं, बलात्कारों, लूट का विवरण देते हंसते-मुस्कुराते इंटरव्यू हैं।

इजरायली समाज के गहन अंतर्विरोध

आरंभ में जायनिस्टों ने अरब निवासियों के साथ ही रहते यहूदियों के लिए एक ‘सुरक्षित-आश्रय’ राज्य स्थापित करने की बात कही थी। प्रवासियों को इजरायल के मॉडल ‘समाजवादी समाज’ बनने का सपना दिखाया गया था जिसमें नागरिक सामूहिक किब्बुतजों में रहकर उत्पादन व उपभोग करेंगे। किंतु व्यवहार में यहूदी राज्य की स्थापना हिंसा के माध्यम से लाखों अरबों को उनके घरों और जमीन से हटाकर की गई।

बड़े पैमाने पर आप्रवास, समृद्ध यहूदी समुदायों और अमरीकी पूंजी द्वारा विशाल निवेश के बल पर इजरायली अर्थव्यवस्था आरंभ में तेजी से बढ़ी। युद्धोत्तर पूंजीवाद के ‘स्वर्ण युग’, जब लाभ दरें ऊंची थीं और निवेश भी अधिक था, में नई अर्थव्यवस्था का तेज विकास संभव हुआ। 1948-1972 के बीच जीएनपी 10.4% की औसत वार्षिक दर से बढ़ी। इजरायली अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए आवश्यक पूंजी अमरीकी सहायता हस्तांतरण व ऋण, जर्मन क्षतिपूर्ति भुगतान और विदेशों में इजरायली राज्य बांड की बिक्री से आई। कीमतों और मजदूरी को नियंत्रित कर लाभप्रदता को ऊंचा रखा गया, जिससे श्रमिकों की वास्तविक आय अधिक बढ़ने से रोकी गई।

लेकिन उन्नत पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की ही तरह इजरायल में भी पूंजी की लाभप्रदता 1960 के दशक के मध्य से गिरने लगी। 1974-75 और 1980-82 की अंतर्राष्ट्रीय मंदी यहां भी आर्थिक संकट लाई। परिणाम 1973 में अरब राज्यों के साथ युद्ध था। 1973 और 1985 के बीच जीएनपी वृद्धि घटकर लगभग 2% प्रति वर्ष रह गई, प्रति व्यक्ति उत्पादन में कोई वास्तविक वृद्धि नहीं हुई। उसी समय, मुद्रास्फीति की दर नियंत्रण से बाहर हो 1984 में 445% के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई और भुगतान संतुलन घाटा उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। इजरायली पूंजीपतियों के समृद्ध होने हेतु तथाकथित लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य का जाना आवश्यक हो गया। अन्य पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की तरह इजरायली सरकार का लक्ष्य भी ‘समाजवाद’ को समाप्त कर अर्थव्यवस्था को बिना किसी प्रतिबंध के पूंजी हेतु खोलना था अर्थात इजरायल ने नव-उदारवादी युग में प्रवेश किया।

1983 में वर्षों से बढ़ रहा वित्तीय बुलबुला फूट तेल अवीव स्टॉक एक्सचेंज ध्वस्त हो गया। दक्षिणपंथी लिकुड सरकार ने बैंकों को दोषी ठहराया। इसने बैंक हापोलिम जिसका लगभग 770 कंपनियों पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नियंत्रण था सहित सभी राज्य संपत्तियों का निजीकरण आरंभ किया। अंततः तीन प्रमुख बैंकों – बैंक हापोलिम, बैंक लेउमी और बैंक डिस्काउंट – को निजी पूंजीपतियों को बेच दिया गया। दूरसंचार उद्योग का निजीकरण कर दिया गया और बंदरगाह अब उस प्रक्रिया से गुजर रहे हैं जिसमें अडाणी पोर्ट्स को भी हैफा बंदरगाह पर नियंत्रण हासिल हुआ है।

1986-2000 में सरकारी स्वामित्व वाली 83 कंपनियों को कुल 8.7 बिलियन अमरीकी डॉलर में बेचा गया। राष्ट्रीय एयरलाइन ईएलएएल, दूरसंचार नेटवर्क बेजेक, सभी प्रमुख बैंक और अन्य पांच बड़े समूह बेच दिए गए। खरीदारों में इजरायल के कई सबसे धनी लोग, पैसे वाले अमरीकी यहूदी और अन्य विदेशी समूह शामिल थे। इनमें से कोई भी कंपनी सार्वजनिक बोली द्वारा बिक्री नहीं की गई। 

कुछ समय के लिए इन उपायों ने इजरायली पूंजी की लाभप्रदता को ऊपर उठाने में मदद की – 1982 से 2000 तक लाभ की दर दोगुनी हो गई। लाभप्रदता में यह वृद्धि मुख्य रूप से पूर्व सोवियत संघ व उत्तरी अफ्रीका से आप्रवासियों की नई आमद के कारण हुई थी। इसने श्रम लागत को सस्ता कर दिया। ओस्लो समझौते के बाद विदेशी निवेश के प्रवाह को सुगम करने हेतु अरबों के साथ ‘विराम’ का दौर शुरू हुआ। यह ‘स्टार्ट-अप हाई-टेक’ फर्मों के विस्तार का काल था, जिसके लिए इजरायल प्रसिद्ध है – यहां अब 7,000 से अधिक सक्रिय स्टार्ट-अप कंपनियां हैं।

लेकिन 21वीं सदी में इजरायली पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक संकट नियमित अंतराल पर जारी हैं। 2003 में नेतन्याहू ने कल्याणकारी योजनाओं में कटौती की, राज्य स्वामित्व वाले निगमों का निजीकरण किया, शीर्ष आयकर दर को कम किया, सार्वजनिक सेवाओं में कटौती की और ट्रेड यूनियन विरोधी कानून लागू किए। 2008-09 की मंदी के बाद 2020 की कोविद मंदी में सकल घरेलू उत्पाद 7% गिर गया। इजरायली अर्थव्यवस्था की सापेक्ष आर्थिक गिरावट स्वर्ण युग की जीडीपी वृद्धि दर, 1970 के दशक के लाभप्रदता संकट, नवउदारवादी काल और अब 2010 के बाद की लंबी मंदी से पता चलती है। पिछले दस वर्षों में सामूहिक किबुत्जिम तेजी से गायब हुए हैं। उनकी जगह बहुमंजिले उपनगरीय आवासों ने ले ली है। रियल एस्टेट सट्टेबाजी के कारण भूमि के मूल्य आसमान छू रहे हैं। स्वास्थ्य और अन्य सार्वजनिक सेवाओं के लिए वित्त पोषण में लगातार कमी आ रही है। स्वास्थ्य की निजी लागत में वृद्धि हुई है और जिनके पास पैसा है और नहीं है, के बीच सेवाओं में अंतर बढ़ रहा है।

विडंबना यह है कि पूर्व सोवियत संघ से बड़े पैमाने पर आप्रवास, विदेशी श्रमिकों का आयात और स्थानीय अरब आबादी की तीव्र प्राकृतिक वृद्धि ने जनसंख्या के मामले में इजरायल को पहले की तुलना में एक कम ‘यहूदी राज्य’ बना दिया है। लेकिन नवउदारवादी नीतियों और आर्थिक मंदी के प्रभाव के बावजूद मजदूर वर्ग राजनीति की ओर कोई बड़ा रूझान नहीं आया। अरब हमलों के डर और प्रभावी वैकल्पिक समाजवादी विरोध की विफलता के कारण उग्र धार्मिक-जातीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ है। अपनी आर्थिक और सामाजिक विफलताओं पर किसी भी टकराव से बचने के लिए इजरायली शासकों द्वारा लगातार नस्ली-धार्मिक कार्ड खेले गए हैं। 4 दशक के नवउदारवाद व नस्ली-धार्मिक अतिवाद का परिणाम है कि फलस्तीनीयों के साथ किसी प्रकार की भी वार्ता, समझौते व शांति के समर्थक समाज में अलग-थलग कर दिए गए हैं और इल्तमार बेन ग्विर जैसे घोर नफरती और हत्यारी मानसिकता वाले जिसे एक समय अतिवादी होने की वजह से इजरायली फौज ने भी बाहर कर दिया था आज नेतन्याहू के फासिस्ट गठबंधन में भागीदार हैं। 

इजरायल सभी यहूदियों के लिए ‘स्वर्ग’ नहीं है

प्रारंभिक इजरायली राज्य के ‘समाजवादी सपने’ ने अब पूंजीवादी वास्तविकता का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। इजरायल में सबसे कम और सबसे अधिक कमाई करने वालों के बीच का अंतर औद्योगिक दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा है, और बाल गरीबी दर विकसित देशों में मेक्सिको के बाद दूसरे स्थान पर है। औसतन तीन में से एक इजरायली बच्चा गरीबी में जी रहा है, जबकि पांच में से एक परिवार गरीबी रेखा से काफी नीचे जीवन यापन कर रहा है। इसके बिल्कुल विपरीत, इजरायल में धन का संकेंद्रण पश्चिमी दुनिया में दूसरे स्थान पर है। कुछ कुख्यात परिवार – एरिसन, बोरोविच, डैंकर, ओफ़र, बिनो, हैमबर्गर, वीसमैन, वर्थाइम, ज़िसापेल, लेविएव, फेडरमैन, सबन, फिशमैन, शचर, कास, स्ट्रॉस, श्मेल्टज़र और त्शुवा – इजरायल की अग्रणी कंपनियों से उत्पन्न राजस्व का पांचवां हिस्सा नियंत्रित करते हैं। इजरायल सबसे अधिक असमान आय वाले देशों में से एक है। आबादी का निचला 50% औसतन 57,900 शेकेल कमाता है, जबकि शीर्ष 10% इससे 19 गुना अधिक कमाते हैं। इजरायल के 20% अरब नागरिकों के लिए तो गरीबी और भी अधिक है। आबादी के दसवें हिस्से रूढ़िवादी यहूदी समुदायों में भी गरीबी दर ऊंची है। गाजा और पश्चिमी तट में तो गरीबी का स्तर भयावह है।

लगातार युद्ध से हथियार निर्माताओं और सेना को फायदा हो सकता है, लेकिन लंबी अवधि में इससे अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों में लाभप्रदता और निवेश कम हो जाता है। श्रमिकों के लिए जीवन और शरीर की भयानक हानि के अलावा, इसका मतलब बेहतर समृद्धि और मानव विकास में बड़ी बाधा है। लेकिन इजरायल की पूंजीवादी सरकारों के पास उसके कब्जे में और उसकी सीमाओं के पास अरब लोगों के साथ चल रहे अंतहीन संघर्ष का कोई समाधान नहीं है। 1967 के युद्ध में गाजा पट्टी व वेस्ट बैंक इजरायल ने कब्जा लिया। दीवार से घेर कर इन्हें यातना शिविर बना दिया गया। इनका बिजली-पानी तक इजरायल के नियंत्रण में है। इजरायल इनके सस्ते श्रम का भी शोषण करता है। इनमें जबरदस्ती कब्जे द्वारा सेटलर जायनिस्टों का बसना आज भी जारी है। जाहिर है कि इजरायल यूरोपीय-अमरीकी सेटलरों के औपनिवेशिक कब्जे वाला देश है। इस कब्जे का सैन्य आधार अमरीका-नाटो की साम्राज्यवादी शक्ति है।

उपरोक्त इतिहास व इजरायल की हालिया स्थिति बताती है कि इजरायली समाज भयंकर अंतर्विरोधों से ग्रस्त है। कुछ महीने पहले ही ‘न्यायिक सुधारों’ के जरिए नेतन्याहू के अतिवादी गठबंधन द्वारा सत्ता पर पूर्ण प्रभुत्व की योजना ने इन अंतर्विरोधों को ही सतह पर नहीं ला दिया बल्कि पहली बार इजरायली मजदूर वर्ग राजनीति के रंगमंच पर एक प्रमुख अभिनेता के तौर पर उभरा जब मजदूर यूनियन हिस्ताद्रुत के दक्षिणपंथी नेतृत्व के बावजूद नीचे से दबाव की वजह से उसने एक आम हड़ताल की। इजरायल के सभी यहूदियों की एकता व समानता वाले समाज होने का झूठ पूरी तरह सामने आ गया था। यह उसके अवाम के एक बड़े हिस्से को जायनिस्ट प्रोजेक्ट के खिलाफ खड़ा कर रहा था। यहां तक कि फौज में भी फूट पड़ गई थी और खुद नेतन्याहू ने गृहयुद्ध का खतरा माना था। इस बीच में यह हमला हो गया। इतने गहरे अंतर्विरोधों के कारण स्वयं इजरायल की बहुसंख्या पूछ रही है कि क्या नेतन्याहू हुकूमत ने पूर्व सूचनाओं के बावजूद न सिर्फ इतना बड़ा हमला होने दिया बल्कि वह इसके होने में विभिन्न कदमों से मददगार बनी। निश्चय ही आंतरिक विरोधों को शांत करने और ‘आतंकी हमले’ से लड़ाई के नाम पर विश्व भर के जनमत को अपने पक्ष करने के मौके के रूप में फासिस्ट इजरायली हुकूमत ने इसका प्रयोग करने की कोशिश की थी और पूर्व सूचना के बावजूद इसे रोकने के कदमों के बजाय गाजा पट्टी की ओर से फौजी टुकड़ियों को हटाकर वेस्ट बैंक में सेटलरों द्वारा किए जा रहे जबरन कब्जों में मदद के लिए भेज दिया गया था।

‘लिबरल’ साम्राज्यवाद की कुत्सित भूमिका 

यह कहना जरूरी है कि हमास के इस्लामी कट्टरपंथी रुझान, फलस्तीनी एकता को तोड़ने हेतु हमास को खड़ा करने में अमरीकी-इजरायली भूमिका, कतर के जरिए हमास के अमरीका-इजरायल से रिश्ते, और नेतन्याहू सरकार के हमास के हमले को अपने हित में इस्तेमाल करने के इरादे पर जो भी सवाल हों, पर इस हमले और इसके ‘प्रतिकार’ के नाम पर पश्चिमी समर्थन से इजरायल ने फलस्तीनी नस्ली सफाये की जो आतंकी मुहिम छेड़ी है, उसने अमरीका-इजरायल, कतर, यूएई, सऊदी अरब से भारत तक के बीच फलस्तीनी सवाल को प्रभावी रूप से समाप्त कर आर्थिक-सैन्य रिश्ते स्थापित करने की जारी कोशिशों पर पानी फेर दिया है और फलस्तीन का प्रश्न अंतर्राष्ट्रीय पटल पर प्रमुख सवाल बन गया है। 

इस हमले के इस्तेमाल के जरिए नेतन्याहू के अपने जो भी इरादे थे, अब वे बडी हद तक नाकाम हो गए हैं। न तो गाजा पट्टी को कुचलने में इच्छित कामयाबी हासिल हुई, न ही विश्व जनमत का अपेक्षित साथ मिला है। विश्व जनमत पहली बार इतने अभूतपूर्व ढंग से जायनिस्ट प्रोजेक्ट के खिलाफ खड़ा हो गया है कि मात्र जायनिस्ट ही नहीं, पूरा पश्चिमी साम्राज्यवाद इससे भौंचक्का है। साम्राज्यवादी हुकूमतों और मीडिया के प्रोपेगैंडा ब्लिट्ज के बावजूद सभी सर्वेक्षण बता रहे हैं कि अमरीका-ब्रिटेन सहित सभी देशों में बहुसंख्या युद्ध विराम के पक्ष में है। उसका विरोध विशाल रोष प्रदर्शनों में प्रकट हो रहा है जिसके दमन के प्रयासों ने ‘जनतंत्र’ के समस्त दावों की पोल खोलकर इन्हें फासीवादी रूझान वाले पूंजीवादी अधिनायकवाद के रूप में जगजाहिर कर दिया है।

पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के जनमत के एक बड़े हिस्से के इजरायल विरोधी होते जाने की वजह इन देशों में पूंजीवादी ‘स्वर्णिम काल’ की समाप्ति और 2007-08 के वैश्विक आर्थिक संकट से गहराया आंतरिक वर्ग विरोध है। ‘स्वर्णिम काल’ में मजदूर आंदोलन मे छाए संशोधनवाद के असर में शासक वर्ग के लिए अपनी मेहनतकश जनता को दुनिया में ‘जनतंत्र व मानवाधिकारों’ के लिए जंग को उचित ठहराना कुछ हद तक संभव था। 2007-08 के बाद इन देशों में वर्ग संघर्ष तीव्र हुआ है। अमरीका का उदाहरण लें तो ऑकूपाई वाल स्ट्रीट से बर्नी सैंडर्स जैसे फर्जी समाजवादियों के पक्ष में जुटान, जॉर्ज फ्लॉयड की नृशंस हत्या के विरोध में ‘ब्लैक लाइव्ज मैटर’ विद्रोह, कोविड लॉकडाउन से असंतोष, रिकार्ड कॉर्पोरेट मुनाफों व मेहनतकश आबादी की जीने की बढ़ती लागत के खिलाफ ट्रेड यूनियन आंदोलन में पुनः उभार और हड़तालों के बढ़ते दौर से गुजरकर मजदूर वर्ग की चेतना क्रमशः उन्नत होती गई है और उसने संगठित होने का तजुर्बा हासिल किया है। यही पुनर्जागृत और बढ़ती चेतना वाला मजदूर वर्ग इजरायल पर अपनी हुकूमतों के झूठ और बीबीसी जैसे शासक मीडिया के फेक न्यूज ब्लिट्जक्रीग को नकार कर फलस्तीनी अवाम के साथ एकजुटता में खड़ा हो रहा है। ट्रेड यूनियनें व अन्य मजदूर वर्ग संगठन अपनी पूरी शक्ति के साथ इस जंग विरोधी आंदोलन में जुटे हुए हैं। फलस्तीन की हिमायत और जंग का विरोध इन सभी देशों में तीव्र होते वर्ग संघर्ष का नतीजा है। अपने साम्राज्यवादी शासकों की जंगखोर नीतियों के खिलाफ यह मजदूर वर्ग की अंतर्राष्ट्रीयतावादी चेतना का उभार है। ट्रेड यूनियनें इजरायल को हथियार भेजने का विरोध कर रही हैं और ऐसे हथियार बनाने वाली कंपनियों व अन्य इजरायल समर्थक पूंजीपतियों के खिलाफ बॉयकाट का बीडीएस आंदोलन भी तेजी से उठ खड़ा हुआ है। यही पश्चिमी साम्राज्यवाद व जायनिस्टों के मंसूबों में सबसे बड़ी अड़चन बन गया है।  

गाजा पर इजरायली हमला नस्ली सफाये की औपनिवेशिक फासिस्ट नीति है। किंतु ‘जनतांत्रिक’ पश्चिम का पूरा शासक वर्ग इजरायल के आत्म सुरक्षा के अधिकार का हवाला दे इसे पूर्ण निर्लज्ज समर्थन दे रहा है जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष को कानूनी मानता है और औपनिवेशिक लुटेरों द्वारा मजलूमों के खिलाफ आत्मरक्षा के अधिकार का कोई नैतिक औचित्य नहीं है। साम्राज्यवाद उपनिवेशों में ऐसे बहुत से कत्लेआम करता रहा है। मलय जंगलों, केन्या के माउ माउ से 21वीं सदी में इराक, अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया तक इसके दर्जनों उदाहरण हैं।

फासीवाद अब ‘लिबरल डेमोक्रेसी’ का स्थाई रुझान बन गया है

फलस्तीन के संघर्ष ने साफ कर दिया है कि पश्चिमी साम्राज्यवादी ‘जनतंत्रों’ में लिबरल व फासिस्ट में कोई बुनियादी फर्क नहीं बचा है – लिबरल, डेमोक्रेटिक, रिपब्लिकन, सोशल डेमोक्रेट, लेबर, कंजरवेटिव, डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट, वगैरह सभी नामधारी इजरायल के नृशंस औपनिवेशिक जनसंहार को सही ठहरा एवं सैन्य तथा अन्य सामग्री से सक्रिय रूप से मदद कर रहे हैं। इन देशों के अंदर इस जनसंहार पर जो भारी विरोध खड़ा हो गया है उस पर दमनचक्र का शिकंजा भी कसा गया है – सेंसरशिप, प्रदर्शनों पर रोक, जेल, सजा, नौकरियों से निकालना, आर्थिक बॉयकाट, मीडिया दुष्प्रचार, राष्ट्रविरोधी बताना, फासिस्ट गुंडा वाहिनियों के हमले, वगैरह विरोधिओं पर फासिस्ट शैली के हमले हमारे सामने हैं। फलस्तीन के सवाल ने एक झटके में पूरे पश्चिमी जनतंत्र की असलियत सामने ला उसमें बहुत आगे बढ़ चुके फासीवादी रूझान को जाहिर कर दिया है। साफ दिख रहा है कि लगभग अंतहीन बन चुके वैश्विक आर्थिक संकट के वर्तमान दौर में फासीवाद अब विश्व पूंजीवाद का सामान्य चरित्र बनता जा रहा है।

इन देशों के शासक वर्ग के इजरायली जनसंहार के पीछे डटे होने की एक वजह इन देशों में श्वेत प्रभुत्ववादी ईसाई कट्टरपंथी फासिस्ट धारा भी है जिसे डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों में साफ देखा जा सकता है, लेकिन यह इन सभी देशों में मौजूद है। जायनिज्म का सबसे मजबूत आधार यही कट्टरपंथी ईसाईयत है। इजरायल के ऑर्थोडॉक्स यहूदियों से लेकर दुनिया में बहुत से धार्मिक विश्वास वाले यहूदी जायनिज्म को यहूदी धर्म के लिए विजातीय विचार मानते हैं और वे इजरायल की पूरी धारणा और खासकर उसके द्वारा फलस्तीनी अवाम पर जुल्म का विरोध करते हैं। मौजूदा घटनाक्रम में बहुत से यहूदी न सिर्फ यूरोप अमरीका में फलस्तीन समर्थक प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं, बल्कि इजरायल के अंदर कम्युनिस्ट व मजदूर वर्ग संगठन ही नहीं, ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों द्वारा इस जुल्म के विरोध में प्रदर्शन हुए हैं जिन पर पुलिस की निर्मम पिटाई के विडिओ भी सामने आए हैं। दरअसल बाइबल में ईसाइयों की दुनिया पर अंतिम जीत की भविष्यवाणी कहती है कि ऐसा होने के पूर्व सभी यहूदी इजरायल में एकत्र होंगे। अतः कट्टरपंथी ईसाई यहूदी देश के रूप में इजरायल के घोर हिमायती हैं। अतः जायनिज्म कोई यहूदी धार्मिक विचार नहीं है बल्कि यह पश्चिमी देशों की उपनिवेशवादी साम्राज्यवादी से होते हुए बनी फासिस्ट धारा का अभिन्न अंग है। जायनिस्ट खुद इसे अच्छी तरह समझते हैं। जैसा ऊपर हमने जिक्र किया नेतन्याहू ने गाजा पर हमले के पूर्व इजरायली संसद में बोलते हुए इस जनसंहार के लिए यहूदी धर्मग्रंथों तोराह/तालमुद नहीं, बाइबल के हवाले दिए!

क्या मुस्लिम बंधुत्व फलस्तीनी आजादी का आधार बन सकता है?

जैसे जायनिज्म यहूदी धार्मिक विचार नहीं, ठीक वैसे ही इजरायली जुल्म के खिलाफ फलस्तीनी अवाम के संघर्ष का आधार भी मुस्लिम बंधुत्व या एकता नहीं। मुस्लिम भी एकाश्म समुदाय नहीं, बल्कि पूंजीवादी देशों, और उनके अंदर वर्गों में, विभाजित हैं। एक और सच्चाई यह है कि पश्चिमी साम्राज्यवाद, इजरायल व अरब शासकों सभी को इस अनुमान के गलत होने से सख्त झटका लगा है कि फ़लस्तीन के साथ ऐतिहासिक अन्याय अब भुलाया जा चुका है और इसका अंतिम दमन अब जनता में पुराना जैसा रोष पैदा नहीं करेग। अरब देशों के शासकों के साम्राज्यवाद से सहयोग की नीयत के बावजूद अरब, एवं विश्व भर, की जनता द्वारा तीव्र रोष का इजहार ही वह वजह है जिसके चलते फ़लस्तीनी समस्या के साम्राज्यवादी ‘समाधान’ अर्थात गाजा से फलस्तीनियों की सफाई के लिए उन्हें सिनाई मरूस्थल में धकेलने की कोशिश के लिए अमरीकी राष्ट्रपति बाइडेन के साथ मिश्र, जॉर्डन व पैलेस्टीन अथॉरिटी का शिखर सम्मेलन रद्द करना पड़ा क्योंकि इन शासकों के सामने अपनी अवाम द्वारा विद्रोह का जोखिम वास्तविक था।

किंतु अरब जनता के रूख के ठीक उलट बयानबाजी जो हो अधिकांश मुस्लिम बहुसंख्या वाले मुल्कों के शासक इजरायल विरोधी जबर्दस्त अवामी रोष के बावजूद पश्चिमी साम्राज्यवादी खेमे और इजरायल के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष मददगार की भूमिका में ही हैं। रियाद में ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कंट्रीज शिखर सम्मेलन में अल्जीरिया का इजरायल के खिलाफ पेट्रोलीअम को हथियार बनाने का प्रस्ताव तो नहीं ही पारित हुआ, यह प्रस्ताव तक भी मंजूर नहीं हुआ कि अरब देश इजरायल को हथियार ले जाने वाले विमानों को अपना एयर स्पेस न दें! यूएई, कतर, जॉर्डन, सऊदी अरब, बहरीन, कुवैत, मिश्र, अजरबैजान, और तुर्की जैसे देश पश्चिमी खेमे और इजरायल के साथ गहरे आर्थिक व सैन्य संबंध रखते हैं और फलस्तीनी आजादी के लिए वे इसे तोड़ने का जोखिम नहीं ले सकते।

तुर्की का इस्लामी कट्टरपंथ आधारित फासीवाद अत्यंत बड़बोला है। परंतु तुर्की इजरायल के बड़े व्यापार पार्टनर्स में से है और उसके 10 नाटो सैन्य अड्डे इजरायली मदद में इस्तेमाल हो रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की तुर्की तेल कंपनी इजरायल को पेट्रोलीअम उत्पाद आपूर्ति क्यों नहीं रोक रही, यह सवाल तुर्की कम्युनिस्ट पार्टी ने पूछा है! यूएई, कतर, बहरीन, कुवैत अपने आप में कॉर्पोरेट देश हैं जिनकी मूल आबादी ऐसी शेयरहोल्डर बन चुकी है जो बड़ी संख्या में विदेशी प्रवासी श्रमिकों के शोषण में प्राप्त हिस्से पर जीवनयापन करती है। पश्चिम और इजरायल के साथ संबंधों को तोड़ने से होने वाले नुकसान इन्हें गवारा नहीं। इन देशों में तो शासक व पूरी आबादी के लिए फलस्तीनी सवाल ही खत्म हो चुका है। मिश्र को जंग से सिर्फ इतना ऐतराज है कि इजरायल गाजा की आबादी को सिनाई मरूस्थल में न धकेल दे। उन्होंने अपनी ओर से इस हमले की चेतावनी इजरायल को पहले ही देकर इसे रोकने का प्रयास भी किया था, मगर नेतन्याहू के अपने आंतरिक हित इस हमले को होने देने के पक्ष में थे, अतः मिश्र की कोशिश बेकार गई। 

सऊदी अरब बड़ा देश है और उसकी पूरी आबादी इन छोटे देशों की तरह शासक वर्ग का हिस्सा नहीं। चुनांचे  वहां यह सवाल समाप्त तो नहीं पर सऊद घराना वैश्विक वित्तीय पूंजीवाद में जूनियर पार्टनर की भूमिका अदा करने का ख्वाब देख रहा है। इजरायल के साथ संबंध बहाल करना और औद्योगिक विकास के लिए भारत-पश्चिम एशिया-यूरोप कॉरिडोर (इजरायल जिसका अभिन्न हिस्सा है!) सऊदी योजना में शामिल हैं, जिसमें यह जंग एक बड़ी बाधा है। सऊदी शासक अपनी जनता की संतुष्टि हेतु फलस्तीन का हल तो चाहते हैं मगर फलस्तीनी अवाम की राय से नहीं, अपनी मनमर्जी से। वह गाजा पट्टी / वेस्ट बैंक को कुछ रियायतों की घोषणा के साथ फलस्तीनी समस्या के हल व इजरायल के साथ रिश्तों के जल्द ऐलान की योजना पर काम कर ही रहे थे, जिससे फलस्तीन का कांटा उनके लिए स्थाई तौर पर निकल जाता, कि इस जंग ने उनकी पूरी योजना खटाई में डाल दी। इस कारण हमास, कतर व इजरायल पर उनका गुस्सा देखते ही बनता है। अभी भी उन्होंने इजरायल के साथ वार्ता खत्म नहीं, फ्रीज ही की है।

जॉर्डन अरब दृष्टि से फलस्तीनियों का सबसे करीबी है मगर ठीक इसी वजह से इस युद्ध के फैलने से उन्हे अपने लिए नुकसान नजर आता है। जॉर्डन और वहां शरणार्थी फलस्तीनियों के बीच 1970 के ब्लैक सप्टेंबर में गृहयुद्ध हो चुका है जिसके बाद फलस्तीनी मुक्ति मोर्चा को लेबनान जाना पड़ा था जहां से इजरायली कत्लेआम के बाद उन्हें 1982 में ट्यूनिस जाना पड़ा। जॉर्डन के शासकों के अनुरोध पर तत्कालीन पाकिस्तानी ब्रिगेडियर जिया उल हक की कमान वाली फौजी टुकड़ी ने भी फलस्तीनी मुक्ति मोर्चा के खिलाफ युद्ध में भाग लिया था।

अधिकांश अरब देशों में भी घोर तानाशाही शासन और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों पर जबर्दस्त दमन है। तुर्की, इरान, इराक, सीरिया में कुर्दों की स्थिति वैसी ही है जैसी फलस्तीनियों की। सऊदी अरब न सिर्फ अपने नेज्द क्षेत्र में शियाओं पर अत्याचार करता है बल्कि पिछले कुछ सालों में उसने यमन में अमरीका-ब्रिटिश पार्टनरशिप में हूथी विद्रोह पर बमबारी व भयंकर दमन कर लाखों हत्याएं की हैं जिनमें भूख कुपोषण से मृत बच्चों की बहुत बड़ी संख्या शामिल है। इन सभी के लिए फलस्तीनी आजादी वो खतरे की घंटी है जो इनके अपने अवाम को विद्रोह की प्रेरणा दे सकती है। पश्चिमी साम्राज्यवाद व अरब तानाशाहों के गठजोड़ के खिलाफ संघर्षरत हूथी विद्रोहियों द्वारा ही फलस्तीन की हिमायत में कुछ वास्तविक कदम भी इसका ही प्रमाण हैं। 

इरान जरूर पश्चिमी साम्राज्यवादी खेमे के विरुद्ध उभरती चीनी-रूसी साम्राज्यवादी धुरी का अभिन्न अंग है, और हेजबोल्लाह उसका समर्थित संगठन है। दोनों ने फलस्तीन के पक्ष में खूब बयानबाजी भी की है, मगर इनके भी रस्मी कार्रवाइयों से अधिक जंग में शामिल होने की संभावना न के बराबर है। इरान कई सालों से न सिर्फ कुर्द अल्पसंख्यकों बल्कि अपनी पूरी मेहनतकश आबादी के विरोध का सामना कर रहा है। अतः फलस्तीनी सवाल का प्रमुखता में आना तो उसे अपने आंतरिक विरोधों को शांत करने का तरीका लगता है। पर फलस्तीन की आजादी के लिए जंग में शामिल होने पर उसके इस्लामी फासिस्ट शासन के लिए भी वैसे ही खतरे हैं जो अरब अधिनायकवादी हुकूमतों के लिए हैं।

मजदूर वर्ग व उत्पीड़ित जनता का वैश्विक भाईचारा ही फलस्तीन सहित सभी उत्पीड़ित अवाम की मुक्ति का मार्ग है

इस प्रकार इजरायल-फलस्तीन जंग को लेकर दुनिया में पैदा स्थिति फिलहाल विश्व के पैमाने पर एक साथ तीन तीव्र होते अंतर्विरोधों को ही प्रतिबिंबित व अभिव्यक्त कर रही है – एक, साम्राज्यवाद व उत्पीड़ित जनता के बीच विरोध, सभी देशों में पूंजी व सर्वहारा के बीच अंतर्विरोध, एवं दो साम्राज्यवादी धुरियों के बीच गहराता विरोध। फलस्तीन सहित दुनिया की समस्त उत्पीड़ित जनता के साथ मजदूर वर्ग की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता ही जायनिस्टों को मदद पहुंचाने से अपने देशों के शासकों को रोक इस व अन्य ऐसे उत्पीड़नों के वास्तविक समाधान की राह प्रशस्त कर सकती है। अपने देशों में मजदूर वर्ग के सशक्त प्रतिरोध के कारण ही अब तक फलस्तीनियों के सम्पूर्ण सफाये का बिना शर्त निर्लज्ज समर्थन व मदद करने वाले बाइडेन व अन्य साम्राज्यवादी नेता फिर से दो राष्ट्र सिद्धांत को इसका हल बताने लगे हैं।

लेकिन दो राष्ट्र सिद्धांत इसका कोई हल नहीं। जब तक इजरायल में सेटलर उपनिवेशवादी जायनिस्टों का फासिस्ट शासन रहेगा, तब तक फलस्तीन में भी इसकी प्रतिक्रियास्वरूप इस्लामी अतिवादी प्रवृत्तियां बनी ही रहेंगी। दोनों देश अधिनायकवादी सत्ता के अधीन रहेंगे। तनाव बना रहेगा व जंग स्थाई तौर पर चलती रहेगी। और, दोनों देशों की अवाम शोषित-उत्पीड़ित बनी रहेगी। जैसा हमने ऊपर दिखाया यह यहूदी व मुस्लिम जनता के बीच वैमनस्य की नहीं, साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद द्वारा अपनी लूट के लिए जनित समस्या है। साम्राज्यवादी दखलंदाजी पर रोक और उपनिवेशवादी सेटलर जायनिस्टों को पराजित कर ही आम फलस्तीनी व यहूदी जनता के बीच एकता स्थापित हो सकती है। उस स्थिति में ये दोनों ही एक जनवादी राष्ट्र में शांतिपूर्वक रह सकते हैं। बहुसंख्यकवाद व नस्लवाद से मुक्त ऐसा एक जनवादी राष्ट्र ही इस समस्या का वास्तविक समाधान है।

पूंजीवाद के निरंतर गहराते अति पूंजी संचय जनित आर्थिक संकट से पैदा वैश्विक साम्राज्यवाद का अंतर्विरोध एक ओर दुनिया को एक विनाशकारी जंग की ओर ले जा रहा है, तो दूसरी ओर हर देश के पूंजीवादी शासकों को फासीवादी विकल्प चुन अपने देशों के विभिन्न अल्पसंखयकों पर जायनिस्टों जैसे जुल्मों के लिए प्रवृत्त कर रहा है। विश्व भर की मेहनतकश व उत्पीड़ित जनता की एकता आधारित विश्व साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष व अपने मुल्कों में पूंजीवाद का विरोध ही साम्राज्यवादी फौजी व राजनीतिक दखलंदाजी पर रोक का काम कर सकता है और सभी देशों के शासकों को इजरायली जायनिस्टों से संबंध तोड़ने और उन्हें सैन्य व अन्य जरूरी सामग्री की आपूर्ति रोककर जायनिस्टों को समर्पण के लिए बाध्य कर सकता है। अन्यथा विश्व भर के पूंजीवादी शासकों, कॉर्पोरेट मीडिया व फासीवादी समूहों द्वारा इस कत्लेआम को निर्लज्ज समर्थन दुनिया में ऐसे अन्य बर्बर कारनामों को दोहराने के लिए प्रोत्साहित करेगा क्योंकि ‘बर्बरता या समाजवाद’ को अब विश्व पूंजीवाद दुनिया की फौरी वास्तविकता बनाने की ओर तेजी से बढ़ रहा है।