पहले दौर के किसान आंदोलन की जीत की सीमा और उसके महत्व के आलोक में – आज के किसान आंदोलन के मुख्य मुद्दे एवं इसके क्रांतिकारी अंतर्य के बारे में फिर से कुछ आवश्यक टिप्पणियां

March 1, 2024 0 By Yatharth

I

तीनों धुर कॉर्पोरेट पक्षीय कृषि कानूनों को मोदी सरकार द्वारा वापस ले लेने के बाद एक साल से अधिक समय तक चलने वाला ऐतिहासिक किसान आंदोलन दिसंबर 2021 में खत्म हो चुका था। इसके साथ ही एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग सहित अन्य मांगों को मोदी सरकार द्वारा नियुक्त कमिटी, जो किसानों को आंदोलन खत्म करने के लिए दिया गया एक झांसा भर था, के हवाले कर (दूसरे शब्दों में, ठंडे बस्ते में डाल कर) दिल्ली की सीमा को घेरे-बैठे संघर्षरत किसान घरों को लौट चुके थे। इस तरह ‘अड़ियल’ किसानों के एक साल से अधिक समय तक चलने वाले आंदोलन, जो टकाराव की ओर अग्रसर था, का पटाक्षेप हुआ और उससे निपटने के झंझट से मोदी सरकार मुक्त हुई थी।

मोदी सरकार को पता था कि किसान फिर से संघर्ष के मोर्चें पर आएंगे। और ठीक ऐसा ही हुआ है। 13 फरवरी 2024 से शंभू और खनोरी बॉर्डर उनका मैदान बना हुआ है। सिंघु और टिकरी बॉर्डर की तरह वहां किसान जम गये हैं। लेकिन वहां जो दिखाई दे रहा है उससे साफ है कि हरियाणा सरकार, जिसके पीछे दिल्ली की मोदी सरकार है, द्वारा किसानों पर एकतरफा दमनचक्र चलाया जा रहा है। सच में कहें, तो यह दमन से कहीं अधिक एकतरफा और अघोषित युद्ध जैसी स्थिति दिखाई देती है।

इस बार का मुख्य मुद्दा है – सभी किसानों की सारी 23 फसलों के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी, जिसका अर्थ वास्तव में यह है कि किसान सरकार से अपनी सारी फसलों की एमएसपी पर खरीद-गारंटी चाहते हैं। यह एक ऐसी मांग है जिसे मान लेना कृषि कानूनों की वापसी की मांग से भी ज्यादा कठिन है। कठिन ही नहीं, वर्तमान व्यवस्था के लिहाज से यह एक असंभव मांग है। इसे कोई पूंजीवादी राज्य नहीं मान सकता है। लेकिन कहने का अर्थ यह नहीं है कि इस मांग को कभी कोई सरकार या राज्य मान ही नहीं सकता है। हम यह कह रहे हैं कि पूंजीवाद में यह मांग नहीं मानी जा सकती है। आज के दौर में तो कतई ही नहीं। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं, इसकी व्याख्या आगे करेंगे। हम पहले ही दिन से, जबकि पहले दौर का किसान आंदोलन चल ही रहा था, हमने “सर्वहारा” अखबार में व्याख्या के साथ लिखा था कि सरकार कृषि कानूनों को वापस ले सकती है लेकिन एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग कतई नहीं मान सकती है। 

लेकिन हम देख सकते हैं कि किसानों को ऐसे किसी तर्क से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। किसानों, खासकर छोटे-गरीब-मंझोले किसानों के जेहन में, बड़े और धनी किसानों के जेहन में नहीं, यह मांग पूरी तरह बैठ गई है। उनकी समझ है कि जिंदगी में अगर कोई तात्कालिक सुधार आ सकता है या किसी भी तरह के सुधार की कोई छोटी सी भी उम्मीद है तो वह इसी मांग से पूरी हो सकती है। वे समझते हैं कि लगातार घाटे की खेती के कारण कृषि से बाहर होने एवं उजड़ने से अगर वे बच सकते हैं, तो इसी कानून के लागू होने से बच सकते हैं।

दरअसल, वे एक ऐसी चीज के लिए लड़ रहे हैं जो दूरगामी तौर पर उनका कोई वास्तविक साध्य नहीं है। पहली बात तो यही है कि पूंजीवाद के रहते यह मांग वास्तव में लागू ही नहीं की जा सकती है। दूसरी बात यह है कि अगर किसी तरह से (मान लीजिये किसी ‘जादू’ से) यह लागू हो भी जाता है, तो भी उनकी समस्याओं का यह वास्तविक निदान साबित नहीं होगा। यह कानून ज्यादा बड़े रकबे के मालिक और पूंजी से मजबूत बड़े और धनी किसानों को ही सबसे ज्यादा फायदा पहुंचाएगा। इसके अतिरिक्त उन्हें इस बात पर भी गौर फरमाना चाहिए कि मेहनतकशों के समाज और उनकी जिंदगी पर पूंजी या बड़ी पूंजी का प्रभाव और कब्जा इस कानून के लागू होने के बाद भी दूर नहीं हो जाता है। वह बदस्तूर जारी रहेगा। पूंजीवाद में सबको सुखी और संपन्न जीवन मिल सकता है तथा सबों को विकास का फल, जिसे मेहनतकश ही पैदा करते हैं, मिल सकता है, यह एक छलावा मात्र ही है।    

II

लेकिन आइए, फिलहाल इसे छोड़ कर इस बात करते हैं कि मेहनतकश किसान, जो कृषि मजदूरों के साथ-साथ वास्तविक अन्नदाता हैं, आखिर इस कानून के माध्यम से क्या चाहते हैं? दरअसल वे एक ऐसा राज्य और सरकार चाहते है जो उनकी समुचित देखभाल करे, उन्हें उजड़ने से बचाये और बड़ी पूंजी की लूटमार से सुरक्षा दे, श्रम की गरिमा कायम करे और खुशहाल जिंदगी दे। फैक्टरियों और खदानों में काम करने वाले अन्य सभी मेहनतकश यही चाहते हैं। लेकिन वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि वे जिस व्यवस्था में सांस लेते हैं वह व्यवस्था पूंजीपतियों द्वारा और पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए संचालित व्यवस्था है न कि उनकी खुशहाली के लिए। इसी व्यवस्था के दायरे में रहते हुए ही वे खेतों व फैक्टरियों में अन्न सहित अन्य चीजें पैदा करतें हैं। आज की तारीख में एकाधिकारी पूंजीपतियों का वर्चस्व है। इसका मतलब यह है कि सभी के लिए अमीर और सुखी होने के बराबर अधिकारों की बात ऊपरी तौर पर चाहे जितनी कर ली जाए, असल में यहां बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को निगल जाने का अघोषित नियम ही काम करता है और कर रहा है। ऊपरी तौर पर सबको और इसलिए किसानों को भी पूंजीवाद में अमीर बनने की इजाजत है। लेकिन दिक्कत यह है कि इसके लिए किसानों को मुनाफे के लिए होने वाली प्रतिस्पर्धा में उतरने के लिए कहा जाता है। अपनी कम चेतना और समझ की वजह से वे भी इसमें उतरकर ही जीवन संवारने की बात सोचते हैं। सवाल यह है कि जहां समाज के चप्पे-चप्पे पर तथा इसके पोर-पोर में बड़े पूंजीपतियों का एकाधिकारी साम्राज्य कायम है वहां किसान प्रतिस्पर्धा में उतरकर सुखी और अमीर कैसे हो सकते हैं? सुरक्षित, सुखी, खुशहाल और सुंदर जीवन की बात ही छोड़ दीजिये, बड़े पूंजीपति इनका स्वत्वहरण और संपत्तिहरण कर लेते हैं। इनकी बची-खुची जमीन व जीने के साधन से वंचित कर देते हैं। इसका मतलब यह है कि मेहनतकश किसान मुनाफे के लिए उत्पादन वाली व्यवस्था में कभी खुशहाली नहीं हो पाएंगे यह तय है। यह बात किसानों को समझना पड़ेगा कि पूंजीवादी व्यवस्था में सरकार का काम पूंजीपति वर्ग के हितों की देखभाल करना है न कि किसान जैसे प्रत्यक्ष उत्पादकों की जिंदगी सुधारना है। यह भी समझना जरूरी है कि सरकार दोनों का भला एक साथ नहीं कर सकती है। इसका दिखावा और वादा जरूर कर सकती है। इसलिए किसानों को अपनी भलाई करनी है तो उन्हें पूंजीवाद, जो मुनाफा पैदा करने वाली व्यवस्था का नाम है, की सीमा लांघनी होगी। उसकी जगह एक ऐसी व्यवस्था लानी होगी जो पूंजी का नहीं, प्रत्यक्ष उत्पादकों का विकास करे। प्रत्यक्ष उत्पादकों के हितों पर टिका समाज बनाना होगा। यह नये तरह के उत्पादन संबंधों के आधार पर बना समाज होगा। 

III

तो क्या आज एमएसपी की कानूनी गारंटी और फसलों की खरीद गारंटी की मांग का कोई महत्व नहीं है? किसान, जिसमें मेहनतकश किसान भी शामिल हैं, इसे बेकार उठा रहे हैं? उन्हें सीधे क्रांति में उतर जाना चाहिए? इसी तरह, क्या इस मांग का विरोध किया जाना चाहिए? अगर नहीं, तो क्या इसका समर्थन करना चाहिए? हमारा मानना है कि विरोध और समर्थन के अलावा हमें दूसरा काम करना चाहिए। खासकर इस बात की व्याख्या करनी चाहिए कि एमएसपी की यह खास मांग के पीछे किसानों की कौन सी स्थिति या समझ काम कर रही है जो इस मांग के रूप में उन्हें पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध ले जा रही है। इसमें वह कौन सी बात है जो पहले वाली एमएसपी की मांग से भिन्न और नई है जो इसे एक क्रांतिकारी अंतर्य वाली मांग बना रहा है। महज विरोध या समर्थन करने से इस पर पानी फिर जाता है और हम इस मांग की पूरी गतिकी को समझने से तथा इसके क्रांतिकारी निरूपण से दूर हो जाते हैं।

IV

एक दूसरा सवाल कृषि कानूनों की वापसी को लेकर बनता है। दिसंबर 2021 से लेकर आज की स्थिति पर हम जब एक विहंगम दृष्टि डालते हैं तो हमे क्या दिखाई देता है? कृषि कानूनों की वापसी की मांग को स्वीकारने तथा साथ में एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग पर नियुक्त कमिटी के अंतर्गत विचार करने के लिए सरकार क्यों तैयार हुई थी?

इसमें मोदी सरकार का पहला उद्देश्य यह था कि किसानों को दिल्ली के बॉर्डरों से किसी तरह से हटने के लिए राजी किया जाए जिसमें वह सफल रही। उसका दूसरा उद्देश्य एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग से किसानों के ध्यान को हटाना था। और तीसरा उद्देश्य भविष्य में किसानों को दिल्ली आने नहीं देने की योजना पर काम करना था, जिसके लिए पहले किसानों को घर लौटने के लिए राजी कराना जरूरी था। वह पहले दौर के किसान आंदोलन से यह निर्णय ले चुकी थी कि अगर किसान इसकी दुबारा कोशिश करेंगे और अड़ियल रवैया अपनाएंगे तो उनसे पूरी सख्ती से निपटा जाएगा। शंभू और खनोरी बॉर्डर पर जो सख्ती की जा रही है और किसानों को दिल्ली आने से रोकने के लिए जिस तरह की तैयारी की गई है, वह सब कुछ पूर्वनिर्धारित है। मोदी सरकार को समझ में आ चुका था कि फासीवादी दुष्चक्रों के सिलसिले को जारी रखना किसान आंदोलन से हर स्तर पर निपटे बिना असंभव है।

इसके ठीक बाद ही हम पाते हैं कि मोदी सरकार और इसके सहयोगी संगठन हरिद्वार में धर्म संसद के बहाने फासीवादी आंदोलन का एक नया दौर शुरू कर देते हैं। वे मानो किसान आंदोलन के खत्म होने का इंतजार ही कर रहे थे। देश की जनतांत्रिक संस्थाएं कब्जे में थीं और लगभग चुप्प थीं। आज भी यही स्थिति है। बल्कि उसमें इजाफा ही हुआ है। उच्चतम न्यायालय भी बस कुछ सख्त टिप्पणियों तक अपने को सीमित किये हुए है। इसी के साथ-साथ यह भी हुआ कि किसानों की जीती हुई लड़ाई को चुनौती दी जाने लगी। कृषि मंत्री स्वयं अपने मुख से कृषि कानूनों को वापस लाने की घोषणा कर रहे थे जिससे मोदी सरकार के इरादे स्पष्ट होते थे। कृषि व ग्रामीण क्षेत्र में प्रवेश पाने और लूट मचाने को लालायित कॉर्पोरेट पूंजी को इस बात के लिए आश्वस्त किया जा रहा था कि कृषि कानून वापस हुए हैं तो क्या हुआ, किसी न किसी तरीके से वो सबकुछ किया जाएगा जिसकी कृषि कानूनों से उम्मीद की गई थी। साफ था कि किसान आंदोलन की वापसी से मोदी सरकार को फिर से पलटवार करने के लिए स्पेस और मौका मिल चुका था। इसका पहला फायदा उत्तरप्रदेश चुनाव में मिली जीत में देखा गया। उधर एमएसपी तथा अन्य मांगों पर बनी कमिटी ने कोई काम नहीं किया। आज जब शंभू और खनोरी बॉर्डर पर किसानों को दिल्ली आने से रोक कर उन पर युद्ध जैसा दमनचक्र चलाया जा रहा है तथा आंसू गैस के गोले से लेकर पेलेट गन दागे जा रहे हैं, तो यह साफ हो जाना चाहिए कि दिसंबर 2021 में कृषि कानूनों की वापसी की मांग मानने के पीछे मोदी सरकार के इरादे क्या थे। कम से कम इतना साफ हो जाना चाहिए कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग पर विचार करने की मंशा तो बिल्कुल ही नहीं थी। और न ही आगे है। दिसंबर 2021 में किसान आंदोलन की वापसी मात्र नहीं हुई, संयुक्त किसान मोर्चे में फूट भी पड़ गई। जिन्होंने मोदी द्वारा कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा के बाद ”यथार्थ” के संपादकमंडल की ओर से जारी हमारी तीन फौरी टिप्पणियों व संपादकीय को पढ़ा है वे जानते होंगे कि हमने ठीक ऐसी ही दुश्चिंताओं के बारे में चेतावनी दी थी। तब हमने एक नाजुक मोड़ पर बिना अपनी पूरी मांगें लिये किसान आंदोलन की वापसी के लिए किसान नेताओं के राजी होने पर लिखा था – ”यह माना और स्वीकार किया जा सकता है कि किसान रूपी फौज के शीर्षस्थ संचालकों ने सच में कुछ आराम का वक्त चाहा या मांगा हो ताकि वे थोड़ी लंबी सांस ले सकें! हो सकता है कि आराम करने की चाह में कोई खोट नहीं हो। लेकिन यह देखना बाकी है कि आराम फरमाने के लिये ऐसे नाजुक वक्त का चुनाव कितना सही है और इससे किसकी, संयुक्त किसान मोर्चा व किसानों की या फिर किसान आंदोलन से हलकान परेशान मोदी सरकार और कॉर्पोरेट की, उखड़ती सांसों को सहारा मिलने वाला है!” हमने यह भी कहा था कि एक बार मोर्चे से हटने के बाद सरकार की वादाखिलाफी के खिलाफ दुबारा मोर्चे पर आने की संभावना से हम इनकार नहीं कर रहे हैं लेकिन यह इतना आसान नहीं होगा। मोदी सरकार जैसी सरकार बार-बार किसानों को दिल्ली नहीं आने देगी। अफसोस की बात है कि हमारी कोई भी आशंका निर्मूल और गलत नहीं साबित हुई।

V

किसी भी जीत का वास्तविक महत्व किस बात में निहित होता है? वास्तविक अर्थों में बड़ी से बड़ी जीत के भी कुछ मायने तभी होते हैं जब इसे लागू किया जा सके और आगे ले जाया जा सके। अर्थात, इसमें आगे ले जाने वाले तत्व या कारक इसके भीतर मौजूद हों तथा इसके नेतृत्व को न सिर्फ इसका संज्ञान हो बल्कि इसके लिए इच्छा शक्ति और राजनैतिक-वैचारिक दूरदृष्टि भी मौजूद हो। इस दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि पूंजीवादी अतिउत्पादन और बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी के पूर्ण वर्चस्व के आज के दौर में एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग फसलों की सरकार से खरीद गारंटी की मांग तक जाती है। शुरू में इतनी स्पष्टता नहीं थी लेकिन हम इसे शुरू से उठा रहे थे। अंतत: किसान भी इसे बाद में खुलकर रखने लगे। इसकी व्याख्या करने से तुरंत ही यह पता चल जाता है कि इस मांग पर अगर दिसंबर 2021 में किसान आंदोलन पीछे नहीं हटता या इसे कमिटी के हवाले करके किसान स्वयं ही इसे ठंडे बस्ते में नहीं डाल देते, तो पूंजीवादी व्यवस्था के लिए यह मांग एक बड़े सरदर्द में बदल जाती। अचेतन तरीके से ही सही लेकिन किसान आंदोलन एक क्रांतिकारी दिशा की ओर मुड़ जाता।

किसान इस मांग तक कैसे पहुंचे? यह समझना आसान है। हम पाते हैं कि बड़े पूंजीपतियों द्वारा नियंत्रित बाजार में तबाह और बर्बाद होते किसान इस मांग तक स्वयंस्फूर्त तरीके से और विशुद्ध रूप से वस्तुगत हालातों के दबाव में पहुंचे। वे इस बात को नहीं समझते हुए भी इस मांग पर पहुंचे हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत उनकी यह मांग कभी पूरी नहीं की जा सकती है क्योंकि इसके लिए एक पूरी तरह मजदूर वर्गीय केंद्रीयता वाली जनपक्षी सरकार और व्यवस्था की जरूरत होगी न कि पूंजीपक्षी और कॉर्पोरेटपक्षी सरकार की, जैसी कि आज की व्यवस्था और सरकार है। इसके लिए पूंजी के राज्य को खत्म कर सर्वहारा वर्ग के राज्य का गठन करना, उत्पादन व्यवस्था को प्रत्यक्ष उत्पादकों के हित के आधार पर संगठित करना तथा इसके लिए मुनाफे के तर्क की सीमा में बंधे सामाजिक उत्पादन को इससे मुक्त करना इसकी एक पूर्वशर्त है।

यहां एक उलझन है। इसकी वजह यह है कि एक तरफ किसानों के ऊपर काम कर रहे वस्तुगत परिस्थिति का दबाव तथा इससे निकली मांग है, तो दूसरी तरफ किसानों के बीच इसके लिए निर्णायक संघर्ष हेतु जरूरी क्रांतिकारी समझ और आत्मगत तैयारी के नितांत अभाव की स्थिति है। यहां एक अंतर्विरोध स्पष्टता से दिखता है। इसका हल किसानों के पास नहीं मजदूर वर्ग के पास है। लेकिन मजदूर वर्ग भी इस समय क्रांतिकारी कार्रवाई के लिए तैयार नहीं है। मजदूर वर्ग की हरावल शक्तियों की दिक्कत यह है कि वे इस सवाल पर खुद ही स्पष्ट नहीं हैं कि इस तरह के अंतर्विरोध हों तो क्या किया जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि न तो किसान के पास और न ही मजदूर वर्ग के पास इन उजड़ते किसानों की समस्या का निदान है।

सवाल है, क्या इस पर किसानों व मजदूरों से बात भी नहीं की जानी चाहिए? हमारा मानना है कि की जानी चाहिए। जैसे कि हम यह चर्चा और विमर्श कर सकते हैं कि अगर मजदूर वर्ग इस समय क्रांति के लिए तैयार होता तो मेहनतकश किसानों से, यहां तक कि सभी संघर्षरत किसानों के समक्ष, वह यह सीधे-सीधे कह सकता था कि उनकी (मजदूर वर्ग की) राजनीतिक अधीनता कायम होते ही वह यह मांग पूरी कर देगा, गोकि उसी रूप में या अर्थ में नहीं जिस रूप में और जिस अर्थ में आज ये किसान चाहते हैं। मजदूर वर्ग के नेतृत्व में किसानों के उजड़ने की समस्या का हल मजदूर वर्गीय तरीके से होगा न कि किसानों की समझ के तरीके से। यह बताया जा सकता है कि किसानों की समस्या का तात्कालिक हल इस मांग के लिए लड़ाई संगठित करना और इसके बारे में क्रांतिकारी विचारों से लैस होना है तो दूरगामी हल मजदूर-किसान संश्रय के आधार पर नये समाज का गठन करना है। मजदूर वर्ग कह सकता है कि उसके सत्ता में आते ही वह नये सिरे से और नये आधार पर (मुनाफे के लिए उत्पादन के तर्क व आधार को खत्म करके) कृषि क्षेत्र का कायाकल्प कर देगा और नये हालातों में सर्वहारा राज्य महज किसानों की सारी उपज ही नहीं खरीदेगा, बल्कि उनके चौतरफा विकास की एक पूरी योजना भी बनाएगा, जैसा कि सोवियत यूनियन में किया गया था।

तो आज के लिए मजदूर वर्ग का इससे संबंधित फौरी कार्यक्रम क्या हो सकता है? यही कि मजदूर वर्ग और इसकी हरावल शक्ति को इस मांग की व्याख्या करते हुए किसान आंदोलन में प्रभावी व क्रांतिकारी रूप से राजनैतिक व वैचारिक हस्तक्षेप करना चाहिए, न कि इसका महज विरोध या समर्थन। इससे इस मांग में मौजूद क्रांतिकारी अंतर्य को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। तभी भविष्य में मजदूर वर्ग इसमें ठोस रूप से प्रभावकारी हस्तक्षेप कर सकेगा जिसकी पृष्ठभूमि आज तैयार होगी। यह चीज इस मांग का महज विरोध या समर्थन करने से अलग इसमें किसी और तरह के हस्तक्षेप करने की जरूरत को रेखांकित करता है जिसमें निस्संदेह ही मजदूर आंदोलन की वैचारिक-राजनीतिक कमजोरियां ही नहीं क्रांतिकारी आंदोलन की कमजोरियां भी एक बड़ी बाधा पस्तुत कर रही हैं।   

VI

इस पर भी बात करनी जरूरी है कि अगर एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग धनी किसानों की मांग है, जो कि है क्योंकि इससे होने वाला फायदा हर परिस्थिति में उनकी तरफ झुका हुआ है, तो फिर वे दिसंबर 2021 में इसे छोड़ कर क्यों पीछे हट गये थे? वे इसे कमिटी के हवाले कर इससे पिंड छुड़ाकर क्यों भाग गये, जबकि मोदी सरकार का हाथ उस समय उत्तरप्रदेश चुनाव और दूसरे अन्य राजनीतिक कारणों से पूरी तरह दबा हुआ था? वे क्यों नहीं इस मांग पर उसी तरह अड़े रहे जिस तरह वे कृषि कानूनों की वापसी की मांग पर अड़े हुए थे?

इसमें किसी को संदेह नहीं है कि एमएसपी का फायदा अब तक मुख्यत: धनी किसान ही उठाते रहे हैं, क्योंकि कई वजहों से, जिसमें आर्थिक व राजनीतिक ही नहीं सामाजिक स्थिति भी एक बड़ा कारक (factor) है, मंडी तक उनकी ही प्रभावी और पक्की पहुंच बन पाती है। लेकिन अगर एमएसपी से नीचे के दाम पर फसल खरीदना कानूनी रूप से अपराध हो जाएगा तो इसका अर्थ यह है कि जब भी कोई किसान अपनी फसल बेचेगा, तो वह एमएसपी पर ही बेचेगा। चाहे वह मंडी में बेचे या गांव की दूकान में या किसी स्थानीय व्यापारी को। पूंजीवाद के अंतर्गत यह बात अतार्किकता से भरी हुई है इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन अगर थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि ऐसा होता है तो फिर बात यहां पहुंच जाती है कि सरकार सभी किसानों की सारी फसलों की खरीद करे और फिर उसका जो चाहे करना हो करे। व्यापारियों पर एमएसपी पर खरीदने के लिए दवाब बनाने का काम या जोर-जबर्दस्ती करने का काम सरकार नहीं सकती है।

आइए, इससे जुड़े अन्य पहलू पर बात करें। हम पाते हैं कि कानूनशुदा एमएसपी से धनी किसानों का कोई विरोध नहीं है। यह पक्का है क्योंकि इससे उसको मिलने वाला लाभ पहले की तुलना में और ज्यादा आरक्षित हो जाएगा। लेकिन यह भी सही है कि मौजूदा रूप में एमएसपी के बने रहने से भी धनी किसानों को कोई खास दिक्कत नहीं है। एमएसपी का कानून नहीं बनने से भी इसका फायदा उन्हें ही मिलता रहेगा। हां, कानूनशुदा एमएसपी से उनको एक अप्रत्यक्ष घाटा हो सकता है। वह यह कि अगर सभी किसानों को एमएसपी मिलने की कानूनी गारंटी वास्तव में हो जाती है तो इसका मतलब है कि इससे छोटे-मंझोले किसानों के उजड़ने की गति एक छोटी सीमा तक ही सही लेकिन मंद अवश्य हो जाएगी। और इसका सीधा प्रभाव उन धनी किसानों के हितों पर पड़ेगा जो छोटे, गरीब और मंझोले किसानों से कर्ज के ऊंचे ब्याज दर वसूलते हैं और इसके आधार पर उनकी जमीनें हड़पते हैं और इसके कारण कई अन्य तरह से भी लाभान्वित होते हैं। इसमें कुछ न कुछ फर्क आएगा। ठीक उसी अनुपात में इसमें कमी आएगी जिस अनुपात में उनकी फसलों की एमएसपी पर बिक्री की गारंटी बढ़ेगी। वे जितनी मात्रा में भी अपना अनाज बेचते हैं उस पर अब ज्यादा कीमत मिलेगी। इन बातों से यह पता चलता है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग छोटे-गरीब-मंझोले किसानों के बीच इतनी लोकप्रिय क्यों है, और, दूसरी तरफ धनी किसान के अदंर एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग के लिए अंत:प्रेरणा का अभाव क्यों दिखता है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि उनके लिए यह जीने-मरने वाला मुद्दा नहीं बनता है। हालांकि यह तय है कि वे इसके विरोधी नहीं हैं जैसा कि ऊपर कहा गया है।

सवाल है, उनकी तरफ से यह मांग तब क्यों उठायी गयी थी? इसका जवाब है कि उनके द्वारा यह मांग तब उठायी गयी थी जब एमएसपी एवं सरकारी मंडी को खत्म करने और किसानों की जमीनों को बलात छीन कर कॉपोर्रेट को देने की तैयारी मोदी सरकार कर चुकी थी। उनका मुख्य मकसद सरकार को इस कोशिश से पीछे हटाना था, पीछे हटने के लिए बाध्य करना था। लेकिन जब यह मांग एक बार उठ गई और लोकप्रिय हो गई है तो खासकर पंजाब-हरियाणा के छोटे व मंझोले किसानों ने सच में इसे एक बड़ा मुद्दा मानते हुए अपने लिए एक महत्वपूर्ण चीज मान लिया है। उन्होंने आज इसके लिए आंदोलन भी तेज कर दिया है। जाहिर है, इस नये आंदोलन के पीछे धनी किसानों की वैसी ताकत नहीं दिखाई देती है जैसी कि पहले वाले आंदोलन में दिखाई देती थी। लेकिन सवाल यह है कि क्या छोटे व मंझोले किसान स्वयं से कोई इतना बड़ा आंदोलन चला सकते हैं और उसका नेतृत्व कर सकते हैं। हमें समझना चाहिए कि इसकी एक सीमा है। शंभू और खनोरी बॉर्डर पर चल रहे मौजदूा किसान आंदोलन में यह सीमा दिख भी रही है। हम यह मानते हैं कि या तो मजदूर वर्ग ऐसे किसी आंदोलन को क्रांतिकारी आंदोलन में बदलने के उद्देश्य से इसका नेतृत्व करे या फिर धनी किसान इसकी कमान थामेगा। दूसरा कोई विकल्प नहीं है। तब ही यह आंदोलन आगे बढ़ेगा। जाहिर है, जैसा कि दिखाई दे रहा है, धनी किसान फिलहाल इस मुद्दे में ज्यादा रुचि नहीं दिखा रहे। धनी किसानों के लिए यह मांग बहुत मायने रखती भी नहीं है जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं। उन्हें एमएसपी के मौजूदा स्वरूप से जो फायदा मिल रहा है उससे बहुत अधिक फायदा इसकी कानूनी गारंटी से नहीं होने जा रहा है। इसलिए वे इसके लिए राज्य से टकराव लेंगे, इसकी आशा नहीं की जानी चाहिए। हां, अगर खतरा एमएसपी पर फिर से आता है, तो वे एक बार फिर से इसके लिए पूरी तैयारी से आगे आएंगे, इसमें शक नहीं है। अगर फिर से सरकारी मंडी और एमएसपी को खत्म करने की मंशा खुले तौर पर सरकार जाहिर करती है, तो फिर से धनी किसानों की पूरी ताकत इस आंदोलन में लगेगी। अभी वे सामान्य रूप से ही, न कि पूरे दमखम से, इसमें शामिल हैं।     

VII

आइए, हम यह मानते हुए कि एमएसपी की कानूनी गारंटी का फायदा भी धनी किसानों को मिलेगा, छोटे-मंझोले किसानों के इस पूंजीवादी सामाजिक मनोविज्ञान पर विचार करें जिसके कारण वे यह मानकर चलते हैं कि यह मांग पूरी होगी, तो वे भी धनी किसान की तरह एमएसपी पर अपनी फसलों को बेचने का अवसर पाएंगे। कानून बोलने से जो ध्वनित होता है उसका अर्थ यही है। और यही चीज उन्हें आकर्षित करती है। वे इस पर फिलहाल नहीं सोचना चाहते हैं कि उनकी लगातार खराब होती आर्थिक-सामाजिक स्थिति में इससे खास सुधार नहीं होगा, क्योंकि इसका अधिकांश लाभ पूंजी से मजबूत धनी किसान उठाएंगे, क्योंकि फसलों की उपज वे ही ज्यादा करते हैं और खेती का रकबा भी उन्हीं के पास ज्यादा है। इसके बावजूद छोटे-मंझोले किसान यही चाहते हैं कि अगर उनकी फसलों को भी वही कीमत मिलती है जो धनी किसानों की फसलों को, तो उन्हें एक प्रकार की आत्मसंतुष्टि मिलती प्रतीत होती है।

यहां बात का सार यह निकलता है कि हरित क्रांति के प्रदेशों के किसानों को लगता है कि उनके जीवन की पूंजीवादी व्यवस्था जनित परेशानियां ऐसी हैं कि अगर एमएसपी की कानूनी गारंटी और सभी किसानों की सभी फसलों की सरकारी खरीद की गारंटी की मांग नहीं पूरी होती है, और यह जमीनी तौर पर लागू नहीं होती है, तो उस स्थिति में वे जल्द ही कर्ज के बोझ से दब कर खेती से उजड़ जाएंगे। अन्य प्रदेशों के छोटे-मंझोले किसान की स्थिति तो और भी दारूण है। वे तो अधिकांशत: पहले ही उजड़ चुके हैं। बाकी बात तो यही है कि पूंजीवाद में किसी भी समस्या की दवा नहीं है। 

VIII

आइए, कृषि कानूनों की वापसी की मांग में हुई जीत के महत्व पर, खासकर इसके टिकाऊपन के बारे में बात करें। ये कानून वापस हुए लेकिन जिन परिस्थितियों (कॉर्पोरेट पूंजी का एकतरफा वर्चस्व जिसकी ही उपज फासीवाद है) की ये कानून उपज थे उन्हें दूर करने के लिए या उन पर पूरी तरह से लगाम लगाने के लिए इस जीत को अगली मंजिल तक ले जाना जरूरी था, जिसकी ओर, जाहिर है, आंदोलन आगे नहीं बढ़ सका। इसकी एक बड़ी वजह इस आंदोलन के नेतृत्व में धनी किसानों को होना है।

हम देख सकते हैं कि पीछे के दरवाजे से ये कानून अमल में लाये जा रहे हैं। कृषि मंत्री जब इसे फिर से लाने की घोषणा कर रहे थे, तो वे कोई मजाक नहीं कर रहे थे, अपितु पूरे ग्रामीण क्षेत्र को बड़ी पूंजी (कॉर्पोरेट पूंजी) के हाथों सौंप देने की मोदी सरकार की प्राथमिकता को ही व्यक्त कर रहे थे। हालांकि और अधिक धृष्टता और निर्लज्जता से।  इसलिए यह मान लेना एक भूल होगी कि किसान इन कानूनों से पूरी तरह और हमेशा के लिए बचे हुए हैं या बचे रहेंगे।

यहां मौजूदा नेतृत्व में आंदोलन को ठीक ऐन वक्त पर आगे ले जाने के लिए जरूरी इच्छा शक्ति की कमी और इससे जुड़ी अन्य कमजोरियां साफ-साफ नजर आती हैं, जो साबित करता है कि भीतरी तत्वों की मौजूदगी के बावजूद सही व क्रांतिकारी नेतृत्व के अभाव में बड़ी से बड़ी जीत भी तुच्छ उपलब्धियों में सिमट जा सकती है अथवा अत्यंत अल्पजीवी सुधारों व राहतों में ठौर पाती है, जबकि उसे अगली जीत तक ले जाया सकता था।

कृषि कानूनों की वापसी की मांग, जहां एक तरफ, कृषि व ग्रामीण क्षेत्र को बलपूर्वक बड़ी पूंजी के हवाले करने की पूंजीवादी राज्य की कार्रवाई पर रोक लगाने की मांग थी, जिसमें किसानों का बड़ी पूंजी के विरुद्ध एक भीषण टकराव निहित था। वहीं दूसरी ओर, एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग किसानों को पूंजीवाद की चौहद्दी के आगे जा कर सोचने के लिए बाध्य और प्रेरित करने वाली मांग थी। इस तरह ये दोनों मांगें पूंजी के राज्य के सरपट दौड़ते रथ को हाल्ट की स्थति में ले आने वाली मांगें थीं और हैं। इस पर लड़ाई और आगे बढ़ती, तो किसानों की कल्पना में एक अन्य तरह का राज्य अवश्य आता और इस तरह उनका क्रांतिकारीकरण होता।

यह सही है कि इस आंदोलन में किसान मुनाफा पर आधारित उत्पादन पद्धति को खत्म करने की जरूरत और प्रेरणा से नहीं शामिल हैं। मजदूर वर्ग की राजनीति की गैर-मौजूदगी में यह संभव भी नहीं है। लेकिन इससे इस मांग को लाभकारी मांग कहते हुए अपने को इससे किनाराकशी कर लेने और इसके लिए किसानों को दुत्कारने-फटकारने की राजनीतिक दिशा सही नहीं साबित हो जाती है। इसके बदले किसानों के बीच यह प्रचार ले जाना जरूरी है कि वह कौन है जिसके नेतृत्व में पूंजी के राज्य को खत्म कर एक नया राज्य खड़ा किया जा सकता है जिससे किसानों के जीवन में वास्तविक सुधार आ सके, जिसके अंतर्गत किसानों की उपरोक्त मांगें ही नहीं मानी जा सकें बल्कि किसानों के श्रम की गरिमा भी स्थापित हो सके और उनके जीवन की समस्याओं को हमेशा के लिए दूर किया जा सके।

कृषि कानूनों पर मिली जीत से एकाधिकारी पूंजी की लूट के बलपूर्वक विस्तार पर रोक लगाने में तात्कालिक सफलता तो मिल सकती है लेकिन पूंजी के राज्य के रहते बहुत दिनों तक इसके विस्तार को रोके रखने की संभावना बिल्कुल ही नहीं है। उसी तरह सभी किसानों की फसलों की खरीद गारंटी की मांग किसान आंदोलन के दबाव में आज के दौर के पूंजी के राज्य के द्वारा किसी युद्धनीति के तहत भले ही मान ली जाए, लेकिन इन मांगों को अमल में लाना ठीक उसी तरह असंभव है जिस तरह वित्तीय पूंजी के एकाधिकार व इजारेदारी के युग वाले पूंजीवाद को स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा के युग में ले जाना या उसमें बदलना है; ठीक उतना ही नामुमकिन है जितना नवउदारवाद के युग की आर्थिक नीतियों को नेहरू के युग की आर्थिक नीतियों से प्रतिस्थापित करना है। बड़ी पूंजी के अधीन चलने वाले पूंजीवादी राज्य में बड़ी पूंजी के कृषि क्षेत्र में वर्चस्व कायम करने के प्रयासों को अंतत: और पूरी तरह रोकना स्वयं पूंजीवादी राज्य को खत्म किये बिना संभव नहीं है। किसानों को इसे ठीक से समझना होगा।

IX

एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग पर किसान क्यों और किस तरह आये, इस पर थोड़ी और बात करनी चाहिए ताकि इसकी संपूर्ण समझ बन सके। हम देख सकते हैं कि आधुनिक पूंजीवाद के युग में विश्व बाजार में फसलों के दामों में भयंकर अनिश्चितता बनी रहती है। यह स्वाभाविक है। वित्तीय पूंजी के आधिपत्य के बाद से यह अनिश्चितता और बढ़ी है। इसके लिए उपाय किये गये लेकिन इसका कोई हल न हो सकता था और न हुआ। क्यों? इसलिए कि कुछ मुट्ठी भर वित्तीय पूंजी के सट्टेबाज, शेयर बाजार के चंद बड़े खिलाड़ी और खुले बाजारों पर कब्जा जमाये बड़े पूंजीपति दामों को कभी भी प्रभावित कर सकते हैं और करते हैं। पूंजी के तर्क पर चलने वाली सरकार भी इसे नहीं रोक सकती है। इसकी वजह से बर्बाद, तबाह और हताश हो चुके किसानों को यह समझते देर नहीं लगी कि खुले निजी बाजार में, जहां बड़ी पूंजी का वर्चस्व है, फसलों को बेचकर हमेशा तो नहीं ही, कभी-कभी मालामाल होने की संभावना भी ज्यादा नहीं बची है।

शुरू में गरीब-छोटे-मंझोले किसान भी धनी बड़े किसानों की तर्ज पर रातों-रात मालामाल होने के सपनों के वशीभूत हो इसके चक्कर में आये और घनचक्कर खाकर इससे होने वाले घाटे के एक झटके में ही बर्बाद हो गये। दरअसल जब पूंजीवादी खेती आम हो गई तो इनके पास इसमें ही हाथ-पैर मारने के अलावा चारा भी नहीं बचता है। श्रम मंडी में भी खड़े होकर अपने को बेचने की पर्याप्त जगह नहीं है; इससे जीवन-जीविका की समस्या और विकराल हो जाती है या हो गई है। वे कर्ज से लदते गये और उजड़ने को विवश होते गये। विकल्प के अभाव में वे आज भी उसी में लगे हैं।

इन सारी विपदाओं को झेलने के बाद ही वे इस मांग पर आये हैं। आज वे यह समझते हैं कि उजड़ने से बचने का अंतिम उपाय मात्र अब यही है कि सरकार एमएसपी पर हमारी सारी फसलों की खरीदारी करे और इसके लिए सरकार को ही ऐसे किसी कानून से बांधा जाये। लेकिन उन्हें नहीं मालूम है कि पूंजीवादी राज्य के अंतर्गत इसे वास्तव में लागू करना किसी भी तरह से संभव नहीं है। इसके लिए एक ऐसी योजनाबद्ध, विशाल, केंद्रीकृत और मजदूर वर्गीय दृष्टि से किसान-पक्षी खरीद-बिक्री की व्यवस्था बनानी होगी जो किसानों के प्रति गंभीर और जिम्मेवार ही नहीं होनी चाहिए, उसके जीवन में उत्तरोत्तर भौतिक, सांस्कृतिक तथा अन्य सभी तरह के विकास के लिए प्रतिबद्ध और समर्पित भी होनी चाहिए। यह एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के रथ को उल्टी दिशा में मोड़ने वाली बात है और इसके लिए पूंजी, यानी एकाधिकारी पूंजी सहित पूंजी के राज्य को उलटने की मांग पूरी स्पष्टता से प्रस्तुत होती है। किसानों की इन दोनों मांगों की गतिकी में से यह बात स्वाभाविक रूप से निकलती है जो बहुत महत्व की बात है।

तो क्या इसका यह अर्थ है कि जब तक क्रांति नहीं होती है, ये मांगें फिजूल की मांगें है? नहीं, बल्कि ये ऐसी मांग हैं जो मेहनतकश किसानों को क्रांतिकारी दिशा में जाने के लिए आज वस्तुगत रूप से प्रेरित कर रही हैं और कल को आत्मगत रूप से भी प्रेरित करेंगी। एक तरफ, यह चीज कि पूंजीवादी राज्य इस मांग को कभी पूरा नहीं करेगा, और दूसरी तरफ, यह बात कि इसके बिना पूंजीवादी राज्य में किसान तत्काल ही उजड़ जाएंगे और बड़ी एवं कॉर्पोरेट पूंजी का निवाला बनने से उन्हें कोई नहीं बचा सकता है, … ठीक यही चीजें इस मांग को किसान आंदोलन को आगे ले जाने की क्षमता से लैस करती हैं। यह एक बड़ी बात है। खासकर इसलिए कि यह बात स्वयंस्फूर्त रूप से यहां तक पहुंचे किसानों की तरफ से उठी हुई मांग से निकलती है। इससे इस मांग के ठूंठ तरीके से विरोध की दिशा तो नहीं ही निकलती है, इसके महज समर्थन की दिशा भी नहीं निकलती है।

इसलिए अगर इन दोनों मुद्दों पर किसानों की हार बड़ी पूंजी के हाथों होती है, तो यह उनकी पूर्ण बर्बादी की आमद की सूचक है। वहीं इन मुद्दों पर किसानों को मिलने वाली जीत के स्थायी और वास्तविक होने की शर्त यह है कि इस जीत को और आगे ले जाया जाए तथा और जीतें हासिल की जायें, यानी अंतिम जीत (जो पूंजी के राज्य के अंत और सर्वहारा राज्य के उदय में निहित है) तक इसे जीतों के एक सिलसिले में बदला जाये। जाहिर है, इसके लिए गरीब और छोटे किसानों तथा इनके अन्य मेहनतकश तबके को राजनीतिक रूप से राजी करना, शिक्षित करना व तैयार करना और उचित अवसर पर मजदूर वर्ग को इनकी मांगों को लेकर सीधा हस्तक्षेप करना पड़ेगा। यह भविष्य में होगा सही है, लेकिन इसकी दिशा पर आज ही बहस और निर्णय जरूरी है।

देखा जाये तो किसानों की बर्बादी लाने वाली बड़ी पूंजी यानी कॉर्पोरेटपक्षी नीति के विरुद्ध जीती गई कोई भी छोटी या बड़ी तथा सफल या असफल लड़ाई आगे और जीतों की जरूरत को रेखांकित करती ही है। ऐसा किये बिना वह रह ही नहीं सकती है। खेती किसानी की आज की यह खासियत है जो इसे अन्य आंदोलनों से अलग करती है। किसानों के लिये बीच के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं।

X

यह निर्विवाद है, और इसे कृषि कानूनों की वापसी पर झूमने वाले भी मानेंगे, कि कृषि कानूनों की वापसी हो जाने के बावजूद सरकार पूंजीवादी खेती को आगे कॉर्पोरेट खेती की ही ओर अग्रसर करेगी। बल्कि कहना चाहिए कि कर रही है। इसके अलावा और कुछ हो भी नहीं सकता है। पूंजीवादी राज्य के तहत सरकार आज की पूंजीवादी खेती को इसकी तार्किक परिणति कॉर्पोरेट फार्मिंग की तरफ ही आगे बढ़ायेगी। चाहे इसका बाह्य स्वरूप जो भी हो और पहले हुए ऐसी प्रक्रियाओं से चाहे वह जितनी भिन्न हो। खेती अगर पूंजीवादी बाजार के तर्कों से ही आगे बढ़नी है, तो इसका यही परिणाम होगा।    

किसानों को यह बात समझनी होगी कि छोटी जोतें कृषि के विकास में बाधक होती हैं और इसलिये पूंजीवाद में कृषि से गरीब-छोटे-मंझोले किसानों को हटाने और निकाल बाहर करने की हिमायत आम तौर पर की ही जाती है और की ही जाएगी। सर्वहारा राज्य ही है जो कृषि का विकास कराते हुए भी उन्हें उजड़ने के बजाये उनका विकास करा सकती है और उद्योगों के विकास, जिसके भी वे सहभागी होंगे, के फायदे भी उन तक पहुंचा सकती है। सभी किसानों के विकास की बात पूंजीवाद में पूरी तरह बेमानी है। छोटे, गरीब तथा मेहनतकश किसानों को इस नियति से बचाने का एक ही तरीका है। वह तरीका है पूंजी के राज्य को उलटकर बने सर्वहारा राज्य के अंतर्गत सामूहिक खेती की ओर बढ़ना।

XI

पूंजीवादी व्यवस्था में छोटे एवं प्रत्यक्ष उत्पादकों के संपत्तिहरण की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है जिसमें बाजार की एक बहुत बड़ी भूमिका है, और बाजार पूरे विश्व में ज्यादा से ज्यादा कॉर्पोरेट यानी बड़ी औद्योगिक तथा वित्तीय पूंजी के मठाधीशों के अधीन आ चुका है। देशी इजारेदारियों का नाम लें तो रिलायंस फ्रेश और अदानी लॉजिस्टिक दो बड़े प्रमुख नाम हैं। पूंजीवादी विकास में देर से शामिल हुए तथा ऐतिहासिक रूप से पिछड़े देशों में कृषि क्षेत्र अभी तक बड़ी पूंजी के नियंत्रण से बचा हुआ है। भारत का कृषि क्षेत्र भी उनमें से एक है। इसलिए ऐसे देशों में तेजी से वह सब किया जा रहा है जिससे कृषि इनके अधीन आ सके। यह कोशिश लगातार जारी है। कृषि कानूनों के जरिये इसे तीव्रता से और एक झटके में करने की कोशिश की गई। भारत के कृषि क्षेत्र पर पिछले तीन दशक से कॉर्पोरेट की नजरें गड़ी हैं। कृषि क्षेत्र के उत्पादन, भंडारण और कृषि मालों के विपणन तथा व्यापार – तीनों पर इनकी नजरें हैं। आज राज्यसत्ता और पूरी अर्थव्यवस्था इनके अधीन आ चुकी है। ऐसे में कृषि में बड़ी पूंजी यानी कॉर्पोरेट के निर्णायक वर्चस्व को अंतत: कैसे रोका जा सकता है?

इस आलोक में किसानों को मिली जीत वैसे तो एक बड़ी जीत है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह आज एक ठहरी हुई जीत में बदल गई है। इस रूप में इसका बहुत अधिक मायने नहीं है।

XII

तो हम मोदी सरकार द्वारा कृषि कानूनों की वापसी को आखिर क्या कहेंगे? यह दरअसल खालिस रूप से एक टैक्टिकल युद्धविराम था। किसान आंदोलन पूंजीवादी राज्य के दीर्घकालिक हितों के लिहाज से काफी खतरनाक परिणामों की ओर बढ़ रहा था। तात्कालिक तौर पर भी देखें तो उत्तरपद्रेश चुनाव पर इसके पड़ने वाले गंभीर (भाजपा विरोधी) प्रभावों को देखते हुए यह युद्धविराम अत्यावश्क बन चुका था। लेकिन समझने वाली बात यह है कि युद्धविराम मोदी को मुफ्त में नहीं मिला। भारी फासीवादी मंसूबे पालने वाली और जनता की मांगों के समक्ष कभी नहीं झुकने की बात पर इतराने वाली मोदी सरकार को इसके लिए एक बड़ी कीमत, हार स्वीकार करने की कीमत, अदा करनी पड़ी और यह अपने आप में एक बड़ी बात है। जहां किसानों को हर हाल में घर भेजना इस युद्धनीति का मुख्य लक्ष्य था, वहीं इसका दूसरा लक्ष्य संयुक्त किसान मोर्चा में फूट तथा भ्रम के बीज बोना था और भविष्य में किसानों को दिल्ली आने से रोकना था, जैसा कि हम ऊपर भी कह चुके हैं।

यहां फासीवादी ताकतों में पाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण गुण दिखाई देता है। वे मुख्य लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं। एक बार ही सही लेकिन हारे हुए नेता की छवि लेकर भी युद्धविराम हासिल करना मोदी के इस गुण को ही दिखाता है। मोदी सरकार और इसके थिंक टैंक ने जैसे ही यह समझ लिया कि किसानों के साथ अब युद्धविराम आवश्यक हो चुका है, तो मोदी ने इसे अपरिहार्य मानते हुए एक युद्धनीति के तहत, कभी न झुकने वाले मजबूत नेता की छवि का बलिदान देते हुए, कृषि कानूनों की वापसी की मांग को आनन-फानन में स्वीकार और लागू किया। मानो इसमें थोड़ी भी और देर हुई तो काफी बड़ी क्षति हो जायेगी!

सच में बात ऐसी ही थी। मोदी सरकार की नग्न कॉर्पोरेटपक्षीय नीतियों से जनता का आक्रोश न सिर्फ बढ़ रहा है, बल्कि तेजी से यह बारूद की एक बड़ी ढेर में तब्दील हो रहा है। किसान आंदोलन के साथ राज्यसत्ता का बढ़ता टकराव एक चिनगारी की तरह इसमें कभी भी आग लगा सकता था और विस्फोट कर सकता था। युद्धविराम ने निश्चित ही टकराव की इस स्थिति में परिवर्तन लाया और सरकार को एक फौरी राहत दी। इससे किसानों के साथ सरकार के युद्ध की रणनीतिक पहलकदमी मोदी के हाथ में आ गई। युद्धविराम कब तक चलेगा इसका निर्णय मोदी सरकार के हाथ आ गया। किसान घर जा चुके थे। फिर से मोर्चे पर आ डटना संभव है लेकिन यह इतना आसान नहीं होता है। इस बीच बाकी मोदी सरकार की योजना काफी आगे बढ़ गई जिसकी एक झलकर किसानों को इस बार दिल्ली नहीं आने देने में मिली इसकी सफलता में देखी जा सकती है।

XIII

युद्धविराम और अंतिम जीत में फर्क होता है। लड़ाई में युद्धविराम दोनों या सभी पक्षों को चाहिए होता है। बड़ी लड़ाई इसके बिना संभव नहीं हो सकती है। लहरों के रूप में ही जनता की लड़ाई आगे बढ़ सकती है। लेकिन इस पर अवश्य ही एतराज होना चाहिए कि कई बार युद्धविराम को ही जीत मान लिया जाता है। जब 8, 9, 10 दिसंबर 2021 को सरकार से किसान नेता व्हाट्सअप पर वार्ता कर रहे थे, तो उन दिनों गफलत का आलम यह था कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग को सरकारी कमिटी के रहमोकरम पर छोड़ देने की बात को भी जीत मान लिया गया। जबकि कई सूत्रों से यह बात आ रही थी कि प्रस्तावित कमिटी एमएसपी की कानूनी गारंटी पर विचार करने या निर्णय करने, आदि के लिये अधिकृत ही नहीं है। इस टेक्निकल बात पर मोदी सरकार की बात को यूं ही नहीं झटका जा सकता है। यहां किसानों की कमी साफ दिखती है।

इस जीत में ऐसा बहुत कुछ है जो महान है। हम यह भी मानते हैं कि इस पर उचित ही जश्न मनाया जाना तथा गर्व करना चाहिए। लेकिन वास्तविक स्थिति से आंख मूंद कर जश्न मनाना गलत है। मोदी सरकार जब युद्ध जीतने के लिए (फासीवाद जनता पर एक युद्ध ही है) एक अहम मोड़ पर एक जरूरी युद्धनीति का पालन कर रही थी, तो ‘हम’ समझ रहे थे कि मोदी सरकार वास्तव में हार मान चुकी है। जरा सोचिये, मोदी सरकार ने युद्धविराम होते ही युद्ध शुरू कर दिया! क्या यह शुरू से ही स्पष्ट नहीं था कि ऐसा ही होगा? कृषि कानूनों को फिर से लाने की घोषणा आखिर और क्या थी? और आज जो शंभू और खनोरी बॉर्डर पर हो रहा है वह क्या है? संसद में फिर से इस बाबत क्या होगा अलग सवाल है, लेकिन जहां तक युद्ध की बात है तो वह मोदी की तरफ से कभी बंद नहीं हुआ था। वैसे भी संसद मोदी के इरादों के आड़े कब आयी है?

दरअसल आज जब शंभू और खनोरी बॉर्डर पर किसान एमएसपी की कानूनी गारंटी और कर्जों की पूर्ण माफी के सवाल पर आंदोलन करते हुए भीषण तरीके से आंसू गैस के गोले तथा पेलेट्स गन की गोलियों के शिकार हो रहे हैं, तो पुरानी पड़ चुकी एक ठहरी जीत पर, यानी कृषि कानूनों की वापसी के मामले में मिली जीत पर, एकतरफा ढंग से बात करने और गर्व से छाती चौड़ा करने का समय बीत चुका है। ऐसा करना हमें शर्मिंदा करता है।

XIV

जब आंदोलन में डटे रहने के लिए किसानों की जय-जयकार होती है, और इसके बहाने मजदूरों पर लानत भेजी जाती है, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि इस जीत में किसानों की उस विशिष्ट सामाजिक व राजनीतिक स्थिति (खासकर निजी पूंजी के अलंबरदार और समर्थक के रूप में) का भी योगदान है जो इन्हें मौजूदा पूंजीवादी शासक वर्ग का सहयोगी तथा महत्वपूर्ण अवलंब बनाता है, और इसीलिए किसानों को अपने से पूरी तरह से छिटकाने और दूर करने की हिम्मत फिलहाल बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा पोषित फासिस्ट मोदी में भी नहीं है। हालांकि मोदी सरकार इसे लेकर भी एक गंभीर चुनौती पेश करती जा रही है। इसलिए हमेशा ऐसा ही नहीं रहने वाला है। शासक वर्ग का असमाधेय संकट तेजी से किसानों के बहुत बड़े हिस्से को पूंजीवादी शासकों से निर्णायक संबंध विच्छेद के लिए भी विवश कर रहा है, और उतनी ही तेजी से मजदूर वर्ग की हरावल शक्तियों को देशव्यापी तौर पर इसमें क्रांतिकारी हस्तक्षेप करने का सुयोग भी पैदा कर रहा है। अगर अन्य परिस्थितियां भी अनुकूल हों, तो हम क्रांतिकारी मजदूर-किसान संश्रय के आधार पर जीत का एक अटूट सिलसिला भी कायम कर सकते हैं, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए। लेकिन यहां थोड़ा ठहर कर मजदूर वर्ग और किसानों की लड़ाई में मौजूद एक महत्वपूर्ण फर्क को समझना आवश्यक है। खासकर तब जब मजदूर वर्ग से यह कहा जाता है कि वे भी बिना देरी किये किसानों की तरह संघर्ष के मैदान में उतरें।       

किसानों से भिन्न, मजदूर पूंजीपतियों के उजरती गुलाम होते हैं। उनके दम पर पूंजीपति वर्ग के मुनाफे का पहाड़ खड़ा है और प्रतिदिन बड़ा होता जाता है। मजदूरों की किसी भी गंभीर कार्रवाई से मुनाफा का पहिया रुक जा सकता है। वहीं, किसानों की आम लड़ाई व कार्रवाई से मुख्य रूप से बस वोट की राजनीति प्रभावित होती है और बुर्जआ वर्ग की पार्टियों के आपसी राजनीतिक शक्ति संतुलन में थोड़ा बहुत का फर्क पड़ता है। दूसरी तरफ, पूंजीवाद के अंतर्गत मजदूर वर्ग की हर छोटी-बड़ी कार्रवाई में वर्ग-संघर्ष का एक अंश होता है। किसान संघर्ष के साथ ऐसी स्थिति अपवादस्वरूप ही हो सकती है। हां, किसान अगर वर्ग-संघर्ष के पक्ष में आ जाये या इसमें उतर जाएं, तो पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध मजदूर-किसान संश्रय की जीत की संभावना को यह निश्चित ही बलवति और अवश्यंभावी बना देता है। इसलिए तो पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग के द्वारा किसान आंदोलन में क्रांतिकारी हस्तक्षेप करने की बात को अपने लिये एक बड़े खतरे के रूप में देखता है। इसलिए ”किसानों की तरह का मोर्चा” मजदूर वर्ग तभी ले सकता है जब वह उसके पहले ही पूंजीवादी सत्ता से निर्णायक लड़ाई में चले जाने का निर्णय ले लेने का निर्णय ले चुका है या ले चुका होगा। जाहिर है, यह सिर्फ मजदूर वर्ग के चाहने मात्र से संभव नहीं होता है। अपितु, बाकी अन्य परिस्थितियों, जो इसके लिए मददगार होती सकती हैं, पर भी निर्भर करता है।

इसके अतिरिक्त अन्य भिन्नताओं को भी महसूस कर सकते हैं। किसानों पर दमन करने की सरकार की हिम्मत पर हम (पूरा समाज) दांतों तले उंगली दबाते हैं या हैरानगी व्यक्त करते हैं, जबकि मजदूर वर्ग पर दमन की बात एक स्वाभाविक चीज मानी जाती है। यह इसलिए कि दोनों के बीच, पूंजीपति और मजदूर वर्ग के बीच एक दूसरे के पक्के दुश्मन होने का स्वाभाविक अहसास है। किसानों के साथ ऐसी बात नहीं है। किसानों पर गोली चलना आम बात नहीं है। छात्रों पर भी गोली चलाकर दमन करना आम बात नहीं है। जबकि मजदूर वर्ग प्रतिदिन दमन और वर्चस्व का शिकार होता है, राज्य का और साथ में दूसरे वर्गों का भी। मोदी सरकार द्वारा किसानों से भी मजदूरों की तरह निपटने की कोशिश करना शासक वर्ग (पूंजीपति वर्ग) के लिये एक डरावनी बात है, एक डरावने सपने की तरह है। वह ऐसा चाहता नहीं है, इसके लिए बाध्य होता है, क्योंकि दमन से किसान, जो उनके पुराने अवलंब हैं, उनसे पूरी तरह छिटक कर क्रांतिकारी राह पकड़ सकते हैं। शासक वर्ग जानता है कि किसानों के क्रांतिकारी राजनीति की राह पर चल निकलने के उनके लिए गंभीर परिणाम होंगे। यह सामाजिक शक्ति संतुलन को पूंजीपति वर्ग की कब्र खोदने वाले मजदूर वर्ग की तरफ निर्णायक रूप से झुका देता है और अगर ठीक उसी समय मजदूर वर्ग भी फैसलाकुन वर्ग-संघर्ष के मैदान में हो, तो पूंजीपति वर्ग के लिए स्थिति अत्यंत नाजूक हो जायेगी। रूसी नवंबर क्रांति का एक महान सबक – किसान क्रांतियों का मजदूर क्रांति से होने वाला अनोखा मिलन – ठीक-ठीक यही तो है।

XV

इसलिए इसमें कोई शक नहीं है कि किसान आंदोलन की इस जीत ने मजदूर वर्ग को उर्जा ही नहीं आगे के लिये कुछ मुल्यवान सबक प्रदान किये हैं। सबसे बढ़कर, इसने सुदूर दिखने वाली मजदूर वर्गीय क्रांति का नजदीक से दिग्दर्शन करने का, कल्पना के स्तर पर ही सही लेकिन, मौका दिया है। इसके उबड़-खाबड़ और टेढ़े-मेढ़े रास्ते को बहुत हद तक प्रकाशमान किया है। किसान आंदोलन अगर राज्य के साथ और भी बड़े टकराव में जाता तो इसकी एक नजदीकी झलक देखने को अवश्य मिलती। अगर हम किसान आंदोलन के समकक्ष एक क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन की मौजूदगी की कल्पना करें, तो हमें इसके महत्व का अंदाजा होगा। लेकिन शर्त यह है कि हम अपनी जिम्मेवारियों के प्रति पूरी तरह सचेत हों और उसे पूरा करने की भी इमानदारी से तथा पूरी ताकत से कोशिश कर रहे हों। शर्त यह है कि हम किसान आंदोलन की जीत का तथा बाकी बची लड़ाई का सुसंगत रूप से, मजदूर वर्गीय दृष्टि से अर्थात मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के दृष्टिकोण से विश्लेषण करें और मजदूर वर्ग को भावी शासक वर्ग के रूप में पेश करने में कोई हिचकिचाहट न दिखायें। कम से कम राजनीतिक तौर पर इसको लेकर हमारे अंदर कोई हिचकिचाहट या भ्रम नहीं हो।

यह निश्चित है कि भविष्य में किसानों के बढ़ते असंतोष को रोकना तथा उसे व्यवस्था की सीमा में बनाये रखना शासक वर्ग के लिए एक मुश्किल काम है। नये दौर के किसान आंदोलन की हार और जीत से परे यह बात बिल्कुल पूरी तरह सही है। यह सच में शासक वर्ग के लिए खतरा पैदा करता है अगर जनता का गुस्सा इतना बढ़ जाये कि मोदी के हटने के बाद विरोधी पार्टियों के लिए भी यह व्यवस्था से परे (अनमैनेजेबल) हो जाये। यह स्थिति पूंजीवादी राज्य की स्थिरता के लिए अत्यंत खतरनाक है।

भारत जैसे देश में शासक पूंजीपति वर्ग, जब तक और जिस सीमा तक संभव है, किसानों का समर्थन और जनाधार खोना नहीं चाहेगा, या कम से कम उसके साथ अपने अंतर्विरोधों को मैनेजेबल लिमिट में रखना चाहेगा। इसके अनमैनेजेबल हो जाने का खतरा उपस्थित होता है तो कॉर्पोरेट को भी अपने कदम पीछे मोड़ने के लिये विवश होना पड़ सकता है। यह बात सही है लेकिन इसकी भी एक सीमा है। शासक वर्ग इस मामले में भी गफलत में नहीं है। लेकिन उसकी भी मैनेज करने की क्षमता की एक सीमा है।

जनता के गुस्से को पीछे हटकर मैनेज करना तब बहुत काम आता है जब शासक वर्ग कोई गंभीर और असमाधेय आर्थिक संकट में फंसा नहीं हो और किसानों के साथ कोई असाधारण लेन-देन या डील करने की स्थिति में हो। इसके विपरीत, अगर उसे ऐसा डील ऐसे करना पड़े कि उसके पीछे हटने की अंतिम सीमा व दीवार तक जाना पड़े, और आज जहां वह खड़ा है उसके बीच के स्पेस, जो शासक वर्ग की युद्धनीति को लचीलापन प्रदान करता है, को ही कंप्रोमाइज करना पड़े, यानी वह स्पेस और कम हो जाये, तो इस तरह का आक्रोश मैनेजमेंट शासक वर्ग को जल्द ही भारी मुसीबत में डाल देता है और डाल देगा। यह स्थिति उसके लिये मौत की ओर सरकने का परिचायक है। लेकिन दूसरी तरफ स्थिति यह है कि चिरकालिक आर्थिक संकट की स्थिति में यह देय बन चुका है।

आज किसानों से किसानों के हित में डील करने लायक स्थिति शासक वर्ग के पास है ही नहीं। वह बस झूठ-फरेब कर सकता है। वहीं किसानों के गुस्से के कारण कॉर्पोरेट के हितों को लगातार स्थगित या मुल्तवी करना संभव नहीं है। अगर युद्धनीति के तहत शासक वर्ग ऐसा करता है, और बार-बार करता है, तो ऐसा ही बहुत दिनों तक या और आगे नहीं कर सकेगा। किसान अगर एक जीत को पक्का करने लिए आगे और जीतों के लिए संघर्ष पर उतारू हों, जैसा कि किसानों के जीवन की परिस्थितियों के कारण वे इसकी घोषणा करते दिखते हैं, तो ऐसे आक्रोश मैनेजमेंट की सीमा क्या है हम समझ सकते हैं। उदाहरण के लिये, एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग अगर किसान जीत लेते हैं तो भी इसे वास्तव में लागू कराने के लिए एक बार फिर से खरीद और खरीदारों की गारंटी की लड़ाई भी लड़नी होगी, क्योंकि कानूनी रूप से बाध्य करने पर व्यापारी किसानों की उपज को खरीदेंगे ही नहीं। महाराष्ट्र में 2018 में ठीक ऐसा ही हुआ और इस तरह के बने कानून को सरकार ने हटा लिया था, क्योंकि किसानों ने आगे इसे लागू कराने के लिये लड़ाई नहीं लड़ी। यही नहीं, इसके आगे कैसे लड़ा जाये इसकी कोई स्पष्ट समझ किसानों को नहीं थी। यानी, जीतों के एक सिलसिले के बिना हमारा सामना अंत में जीत की ही अतार्किकता से होने लगता है। यह पूंजीवाद के कारण है। फसलों की सरकारी खरीद-गारंटी इसका समाधान है, लेकिन ऐसा सिर्फ सर्वहारा राज्य ही कर सकता है। तब एक रास्ता है। किसानों की लड़ाई को वर्ग-संघर्ष का हिस्सा बनना और बनाना होगा। 1960 के दशक में शुरू हुए एमएसपी से लेकर 2021 में इसके कानूनी गारंटी की मांग की शक्ल तक के सफर पर हम एक सरसरी निगाह डालें तो किसानों की इस मांग की ओर होने वाली इस स्वाभाविक गति की एक ठोस तस्वीर हमारे आंखों के सामने उभरती है। इस तस्वीर में कोई भी यह देख सकेगा कि आज क्यों किसानों की यह मांग उनके जीवन की सर्वोपरि मांग बन चुकी है तथा क्यों इस मांग की गतिमयता पूंजीवादी राज्य के तंग दायरे व क्षितिज को लांघती है। जो चीज इस मांग को शानदार बनाती है वह यह है कि किसान अपने ही जीवन की परिस्थितियों से उत्पन्न मांगों की द्वंद्वात्मक गति के प्रवाह में इस मांग तक आये हैं। यह भी एक बड़ा कारण है कि किसानों के वर्तमान गुस्से को मैनेज करने के लिए सरकार को बार-बार कॉर्पोरेट के बड़े हितों को स्थगित करना पड़ सकता है। ऐसा जितनी बार होगा, कॉर्पोरेट और उसके अधीन चलने वाली राज्यसत्ता के लिये स्थितियां उतनी ही दुरूह होती जायेंगी, अर्थात उसके लिये अपने कदम पीछे मोड़ने हेतु भविष्य में स्पेस की उतनी ही ज्यादा कमी पड़ती जायेगी। अंतत: किसानों के आक्रोश को संभालने, यानी उन्हें अपने साथ सहयोजित कर पाने की शासक वर्गों की क्षमता व संभावना दोनों खत्म हो जायेगी। पूंजीवादी व्यवस्था की सीमा में तथा उस नजरिये से कृषि कानूनों पर मिली जीत और एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग दोनों की असफलता तय है, जबकि मजदूर वर्ग की दृष्टि से ये दोनों मांगें मेहनतकश किसानों को इनके मुक्तिपथ पर खींच ले आने वाली क्षमता से लैस मांगें हैं।