एमएसपी के इतिहास और वर्तमान पर एक नजर तथा चंद अन्य बातें

March 1, 2024 0 By Yatharth

शुरूआत में, यानी 60 के दशक में जब यह व्यवस्था पहली बार लागू हुई थी, तो स्थिति बिल्कुल भिन्न और विपरीत थी। तब किसान खुले बाजार में बेचने को प्राथमिकता देते थे, क्योंकि बाजार दाम प्रोक्योरमेंट प्राइस और एमएसपी दोनों से ऊपर होते थे। अगले एक दशक तक, और कुछ अर्थों में उसके भी अगले दशक तक, बाजार में अनाजों के नहीं बिकने की सूरत में ही किसान एमएसपी पर बेचते थे। किसानों की पहली प्राथमिकता बाजार में बेचना था। सरकारी व्यवस्था यह थी कि किसानों को अपनी फसल का एक हिस्सा सरकारी प्रोक्योरमेंट के तहत बेचना होता था। इस तरह सरकारी प्रोक्योरमेंट और उद्योगों की जरूरत के पूरा होने के बाद किसानों के पास अनाज बच जाता था, तो सरकार उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद लेती थी। प्रोक्योरमेंट प्राइस एमसपी से ज्यादा और बाजार दाम से कम होता था। 

हरित क्रांति ने चंद वर्षों में ही स्थिति को बदल दिया। गेहूं तथा चावल का उत्पादन खपत से ज्यादा होने लगा और भारत मुख्य  खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ खपत से ज्यादा खाद्यान्न उत्पादन करने वाले देशों में शुमार होने लगा। अनबिके अनाजों की मात्रा तेजी से बढ़ने लगी और ऐसा बार-बार होने लगा। इसी के साथ बाजार दाम अक्सर गिरने लगे। 80 के दशक का अंत आते-आते खपत से ज्यादा उत्पादन होने के कारण बिक्री की समस्या विकराल रूप में प्रकट होने लगी। इसी के साथ किसानों की प्राथमिकता बदलने लगी। जब गेहूं और चावल का उत्पादन दर आबादी वृद्धि दर और मांग दर दोनों से आगे निकल गया और सरकारी गोदामों में गेहूं और चावल के भंडारण के लिए जगह कम पड़ने लगी, तो एक तरफ अनाज के रख-रखाव पर खर्च अत्यधिक बढ़ने से सरकार मुख्य खाद्यान्नों के प्रोक्योरमेंट से पीछा छुड़ाने लगी, वहीं दूसरी तरफ बाजार दाम से हट कर किसान ज्यादा से ज्यादा सरकारी प्राक्योरमेंट हो इसके लिए जोर देने लगे।

90 के दशक में नयी आर्थिक नीति यानी नवउदारवादी नीतियों ने पुरानी (नियंत्रणकारी) नीतियों की जगह ले ली और किसानों की खेती के लागत और फसलों की कीमतों पर इसका बहुत बुरा पड़ा। सरकार WTO के प्रति अपने कमिटमेंट को पूरा करने की दिशा में बढ़ने लगी। संक्षेप में, भारतीय कृषि अंतर्राष्ट्रीय बाजार से जुड़ गयी और पूरी तरह सट्टेबाजों की जद में आ गई। अनाजों के बाजार दाम अक्सर टूटने लगे। इस कारण किसानों के कर्ज में डूबने और उनके द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं का सिलसिला बड़े पैमाने पर शुरू हुआ जो आज तक जारी है। प्रोक्योरमेंट की मात्रा और प्रोक्योरमेंट प्राइस दोनों को बढ़ाने की मांग तेज होने लगी। बुर्जुआ राजनीति में इसका राजनीतिक टूल के रूप में इस्तेमाल होना स्वाभाविक बात थी। लेकिन पूंजीवादी राज्य सारी फसलों व उपज की खरीद न कर सकती थी और न ही की। उल्टे, नवउदारवादी नीति के तहत सरकार ने कृषि उपकरणों, खाद, बीज तथा कीटनाशकों के विपणन से अपने हाथ खींच लिये जिससे कृषि लागत में भारी बढ़ोतरी होने लगी। किसान कर्ज से और ज्यादा लद गये, जबकि अनाजों के बाजार दाम अधिकांशत: नीचे ही रहने लगे। सरकारी गोदामों में अनाज बफर स्टॉक से दोगुना तक जमा हो गये। एमएसपी बढ़ाया गया और अब वह बाजार दाम से भी ऊपर हो गया। प्रौक्योरमेंट प्राइस की जगह एमएसपी ने ले ली और इसलिए प्रौक्योरमेंट प्राइस को सरकार ने बंद कर दिया। बिक्री की विकराल समस्या उत्पन्न हुई और कृषि लागत में होने वाली सतत वृद्धि से किसानों की आय गिरने से उनकी माली हालत बिगड़ती गई। गरीब किसानों की स्थिति सबसे ज्यादा खराब थी। आत्महत्या करने वालों में मुख्यत: वे ही थे और आज भी हैं। लेकिन अन्य किसानों की माली हालत भी अच्छी नहीं रही। वे धीरे-धीरे विस्थापित होने के कगार पर पहुंचने लगे।

किसान अब प्राइस सिग्नल के आधार पर फसल उगाने लगे जो अक्सर गच्चा दे देता था। धनी तथा बड़े किसान तो भयानक रूप से ऊपर-नीचे होते दाम का झूला झुलते हुए भी लाभ कमाने में एक हद तक सक्षम थे और दिवालिया होने से बच जाते थे, लेकिन बाकियों की स्थिति दयनीय होती गयी। हालांकि बाद के दिनों में, खासकर नयी सदी के दूसरे दशक के पूर्वार्ध के बाद से, बड़े किसान भी बाजार की लगभग स्थायी परिघटना का रूप ले चुकी दगाबाजी से परेशान होते गये। गांवों में कर्ज देने वाले साहूकारों और सूदखोरों की खूब बन आयी। धनी किसानों ने इसमें भी अपना हाथ साफ किया। लेकिन कालांतर में बड़े किसानों का एक एक अच्छा-खासा हिस्सा खूद ही कर्ज के भंवर में फंस गया। पूंजीवादी खेती की अतार्किकता के भंवर में सबको आज न कल आखिर फंसना ही था और किसान इसमें बुरी तरह फंसते गये!

कर्जमाफी एक प्रमुख मांग बनकर उभरी। लेकिन इसका फायदा एक सीमित और छोटी किसान आबादी को ही मिला। संस्थागत ऋण तो माफ हुआ लेकिन निजी सूदखोरों से लिये गये कर्ज, जिसकी मात्रा अत्यधिक थी, से निजात नहीं मिला। कांट्रैक्ट खेती, वायदा कारोबार, फॉरवर्ड ट्रेडिंग और फ्यूचर जैसे कॉर्पोरेट पूंजी के उपकरणों को, जो दरअसल कृषि में कॉर्पोरेट पूंजी के प्रवेश को शुरूआती तौर पर नीतिगत रूप से सुगम बनाने के काम आये, को भी आजमाया गया। तर्क था कि किसानों को सही बाजार दाम मिलेगा। इसने तात्कालिक फायदा भी दिया, लेकिन अंतत: अपने स्वाभाविक गुण व प्रकृति के अनुरूप बिक्री की समस्या को और गहरा तथा विकराल बना दिया। इसने अंतत: सही कीमतों की समस्या को सुलझाने के बजाय और उलझा दिया। वायदा बाजारों ने न सिर्फ सट्टेबाजी को बढ़ावा दिया अपितु प्राथमिक जिंसों की कीमतों को भी काफी बढ़ा दिया[1] और कीमतों में पहले की तुलना में और भी ज्यादा भारी तूफानी उतार-चढ़ाव को जन्म दिया जिसका अर्थ यह था कि बिक्री की समस्या को इसके बाद असमाधेय बन जाना था। यह स्थिति कॉर्पोरेट की कृषि क्षेत्र पर होने वाली चढ़ाई करने के लिए अत्यधिक सुगम था जिसकी ओर किसानों को सही दाम देने के नाम पर जानबूझ कर धकेला गया, यानी किसानों को इसका आदि बनाया गया ताकि पूंजीवादी कृषि को इसके विकास के दूसरे चरण, जिसमें कॉर्पोरेट की इजारेदारी ही मुख्य बात है, में ले जाना आसान हो।

इसी के साथ बड़ी पूंजी और कॉर्पोरेट ने खेती को उनके हवाले करने की मांग तीव्र कर दी। हालांकि इसकी मांग नयी सदी के प्रथम दशक से ही तीव्र होने लगी थी। तमाम सरकारी कमिटियों व आयोगों के माध्यम से यह मांग तेज स्वर में उठायी गयी और कृषि संकट के हल के लिए बड़े कॉर्पोरेट पक्षीय सुधार करने की ताबड़तोड़ सिफारिशें की जाने लगीं। लेकिन दिक्कत वाली बात यह थी कि व्यापक किसानों के लिए ये सुधार बहुत बड़ी और अत्यंत तेजी से होने वाली बर्बादी तथा तबाही के कारण बनते, और राजनीतिक रूप से ऐसा खतरा मोल लेने की हिम्मत कांग्रेस जैसी आम बुर्जुआ पार्टियों में नहीं थी। इससे होने वाली सामाजिक अशांति से निपटने (भटकाने तथा दबाने) के लिये एक फासिस्ट पार्टी की जरूरत थी। एमएसपी और सरकारी मंडियों को इन सुधारों के जरिये खत्म करने की योजना शुरू से ही थी और आज भी है। दूसरी तरफ, किसानों की आत्महत्यायें राजनीतिक रूप से शासक वर्ग तथा व सरकारों के लिये अत्यधिक सरदर्द का कारण बन गईं, और इसलिए एमएसपी को बढ़ाने के लिए सरकार विवश रहीं, जबकि अंदरखाने में सभी सरकारें व शासक वर्गीय पार्टियां कृषि व देहात को बड़ी पूंजी को सौंप देने की नीति पर मुख्यत: सहमत थीं जिसका अवश्यंभावी परिणाम एमएसपी और सरकारी कृषि मंडी का अंत था। एकमात्र राजनीतिक उथल-पुथल का डर ही वह चीज थी जो पूंजीवादी पार्टियों को इस रास्ते पर जाने से रोकती रही। उद्योगों में भी एक हद के बाद कांग्रेस की सरकार उतनी तीव्र गति से सुधार करने के लिये तैयार नहीं थी जितनी तीव्र गति से कॉर्पोरेट पूंजी चाहती थी। तभी नग्न कॉर्पोरेटपक्षीय गुजरात मॉडल के नायक मोदी के प्रति कॉर्पोरेट अर्थात बड़ीह पूंजी का आकर्षण बढ़ा और 2014 में तथा उसके बाद जो हुआ उससे हम और आप सभी वाकिफ हैं।

मोदी सरकार जो तीन नये कृषि कानून लेकर आई, वे कॉर्पोरेट के इसी चिरलंबित मांग को पूरा करने के लिए थे जिनके लागू होने के बाद कृषि उत्पादन, कृषि उपजों के भंडारण और उनके विपणन तथा व्यापार पर कॉर्पोरेट का पूर्ण नियंत्रण होना निश्चित था। जाहिर है, इसमें सरकारी मंडी और एमएसपी को बड़ी चालांकी से, किसानों को खुले बाजार में बेचने की आजादी देने और अतिरिक्त लाभ कमाने के नाम पर, खत्म करने का लक्ष्य शामिल किया गया था, क्योंकि इसे किये बिना कॉर्पोरेट के कृषि क्षेत्र पर विजय अभियान का कोई मतलब नहीं रह जाता। किसानों ने इसके बाद यह भी समझ लिया कि उन्हें, उनकी खेती, जमीन, उपज और पूरे देहात व गांव को मानवद्रोही बाजार और उनके मुख्य नियंत्रणकर्ता बड़े कॉर्पोरेट के हवाले किया जा रहा है। जाहिर है इसके बाद किसानों के समक्ष इसके अलावा और कोई चारा नहीं रह गया कि वे अपने फसलों की सरकारी खरीद की गारंटी को व्यक्त करने वाली मांग अर्थात एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग को कृषि कानूनों के आगे भिड़ा दें। उन्होंने यह मांग की कि एमएसपी से नीचे दाम पर व्यापारियों के द्वारा होने वाली खरीद को गैरकानूनी बनाया जाये।

इस पूरे दौर में सरकार की नीतियों और उसके व्यवहार में अतार्किकता का साम्राज्य बना रहा जो एक स्वाभाविक बात है। एक तरफ स्वामीनाथन कमिटी ने किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए एमएसपी को एक जरूरी उपाय बताया और इसे कुल व्यापक लागत के ऊपर 50 प्रतिशत लाभकारी (C2 +50%) बनाने की सिफारिश कर दी, लेकिन दूसरी तरफ वैसी सिफारिशें भी की जो मोदी द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों का आधार बनीं। यह तथ्य है कि C2 +50% को किसी सरकार ने लागू नहीं किया। हालांकि वोट से जुड़े राजनीतिक दबाव की वजह से सरकारी खरीद, यानी सरकारी प्रोक्योरमेंट तथा एमएसपी में थोड़ी बहुत वृद्धि भी सरकार लगातार करती रही। लेकिन वहीं दूसरी तरफ, सरकार नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और WTO में की गई अपनी कमिटमेंट के तहत सरकारी मंडी और एमएसपी को खत्म करने के लिए भी वचनबद्ध थी और इस दिशा में पूर्ण रूप से बढ़ने की चेष्टा भी करती रही। हालांकि भारतीय पूंजीपति वर्ग की यह विशेष खासियत रही है कि वह बड़े से बड़े पूंजीपक्षीय सुधार भी टुकड़ों में करके जनांदोलन के उठने के खतरे को टालने की कला में महारत हासिल किया हुआ है। लेकिन कॉर्पोरेट इस बार जल्दी में थे और इसने मोदी के पीठ पर हांथ रखते हुए इस ओर निर्णायक कदम बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन किसानों ने फिलहाल उसे भी ‘हाल्ट’ की अवस्था में ला खड़ा किया, जिसकी चर्चा हमने इसी अंक में प्रकाशित एक अन्य लेख में की है। किसानों की जीत का विशेष महत्व यहां स्पष्ट दिखता है कि इन्होंने एक छोर से प्रतिरोध करते हुए कॉर्पोरेट के अश्वमध यज्ञ के घोड़े की नकेल थाम ली। 

एमएसपी की कानूनी गारंटी का क्या महत्व है? कुछ जरूरी टिप्पणियां

कुछ लोग सवाल करते हैं कि जब कोई पूंजीवादी राज्य किसानों की सारी फसलों की एक पूर्व निर्धारित कीमत पर खरीद कर ही नहीं सकती है, तो फिर किसान इन मांगों पर लड़ेंगे ही क्यों? लड़ना ही क्यों चाहिए? ऐसे सारे लोग सुधारवाद से ग्रस्त हैं। सुधारवाद में पगा दिमाग ही इसी तरीके से ‘ठोस’ प्रश्न के नाम पर सुधारवादी प्रलाप करता है। हमने यह ऊपर दिखाने की कोशिश की है कि किसान पूंजीवादी खेती की अतार्किकता के भयंकर दुष्परिणामों के विरूद्ध अपने जीवन-संघर्ष के अनुभव से इस मांग तक पहुंचे हैं। कृषि संकट पूंजीवादी थिंक टैंक के लिए बहस और बौद्धिक आमोद का विषय है, लेकिन इसकी वीभत्स अभिव्यक्ति किसानों की आत्महत्याओं के रूप में हुई हैं, और इसके हल के लिए पूंजीवादी राज्य के द्वारा किये गये एक-एक उपाय जब नकारा साबित होते गये और हर कदम कॉर्पोरेट के पक्ष की चीज साबित होते गये, तभी किसान भटकते और लड़ते हुए इस मांग तक पहुंचे हैं, यह मानते हुए कि शायद इससे उनके स्वत्वहरण, संपत्तिहरण तथा उजड़ने की प्रक्रिया रूकेगी। यह उनका भ्रम हो सकता है और है। लेकिन उसकी जिंदगी तो कोई भ्रम की वस्तु नहीं है।

किसानों की इस संबंध में भ्रांत धारणा के मुख्यत: दो कारण हैं – पहला यह कि बिक्री की समस्या पूंजीवादी अतिउत्पादन से जुड़ी समस्या है और आम जनता की गिरती क्रय शक्ति का परिणाम भी है। इसलिए वह सुलझने के बजाये और उलझेगी। और दूसरा, जो पहले का ही परिणाम है, पूंजीवादी राज्य सारी फसलों की खरीद गारंटी कभी कर ही नहीं सकता है। लेकिन इस मांग की खासियत यह है कि किसानों की मुक्तिपथ तक जाने वाली पगडंडियों में से यह एक महत्वपूर्ण पगडंडी है। सर्वहारा राज्य के अंतर्गत होने वाली सामूहिक खेती के माध्यम से वास्तव में किसानों की सारी फसलों की खरीद की गारंटी कर सकता है और करेगा। लेकिन यहां तक पहुंचने के लिये किसानों की तरफ से पूंजीवाद की सीमा लांघने वाला कदम उठाया जाना आवश्यक है। यानी, इस मांग के लिए होने वाली लड़ाई किसानों को अंतत: पूंजीवादी राज्य की सीमा को लांघने के लिए प्रेरित करने की क्षमता रखती है और यही वह बात है जो इस किसान आंदोलन की मुख्य खासियत है। 

जाहिर है, एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग के लिये अगर किसान पूंजीवादी राज्य को बाध्य करते हैं, तो वे पूंजीवादी राज्य को पीछे हटने की अंतिम सीमा तक धकेल कर पूंजीवादी व्यवस्था को एक तरह की ‘असंभाव्यता’ (impossibility) के अंतर्विरोध में, अर्थात पूंजीवादी राज्य को विस्फोटक अंतर्विरोधों के भंवर में डाल देंगे। इस तरह के अंतर्विरोधों से बचने के लिए अगर सरकार युद्धनीति के तहत यह मांग मान लेती है और वास्तव में लागू करने के बदले किसानों को मूर्ख बनाती है, तो यह असंभव नहीं है कि संघर्षरत किसान मजदूर वर्ग और उसकी क्रांतिकारी पार्टी के साथ हो लें और समाज की मौजूदा व्यवस्था को उलट देने की मजदूर वर्ग की कार्रवाई के समर्थन में आ जायें, बशर्ते मजदूर वर्ग वस्तुगत और आत्मगत तौर से भी इतना ताकतवर हो कि अपने को किसानों के समक्ष भावी शासक वर्ग के रूप में पेश होते हुए किसानों को यह भरोसा देने में समर्थ हो कि मेहनतकश किसानों की भागीदारी से बनने वाला भावी सर्वहारा राज्य न सिर्फ सारी फसलों को खरीदेगा, अपितु किसानों को आर्थिक व सामाजिक रूप से गरिमामाय जीवन की गारंटी भी प्रदान करेगा।

साफ है कि यह मांग दरअसल एक सीमा के बाद राज्य से कृषि उपजों की खरीद गारंटी की मांग में स्वाभाविक रूप से बदल जाएगी जिसको मान लेने के बाद भी किसी पूंजीवादी राज्य के लिये लागू करना सर्वथा असंभव होगा। यानी, इस मांग पर की जीत भी अन्य जीतों के लिए, यहां तक कि किसानों को पूंजीवाद को पलट देने के लिए भी प्रेरित के साथ-साथ बाध्य भी करती है।

इसलिये ही हम यह कहते रहे हैं कि किसानों और पूंजीवाद के बीच का यह टकराव मामूली टकराव नहीं है। यहां यह समझना जरूरी है कि पूंजीवाद, जिसे अगर इतिहास की गति के अनुरूप इसके द्वारा लिये गये आदेश के अनुसार मेहनतकश अवाम द्वारा पलटा नहीं गया, तो पूंजीवाद की के तहत विकास की ऐतिहासिक गति के हाथों किसानों का आज न कल उजड़ना तय है। यह इतिहास के आगे बढ़ने की दो तरह की गतियों में से एक तरह की गति है। दूसरी तरह की गति, जैसा कि ऊपर कहा गया है, यह है कि स्वयं पूंजीवाद को ही पलट दिया जाये, संपत्तिहरण करने वालों का ही संपत्तिहरण कर लिया जाये। इस तरह पूंजीवाद के तहत विकास की ऐतिहासिक गति को किसानों की मुक्ति के आड़े नहीं आने दिया जाये। इतिहास की यह गति पूंजीवादी राज्य की जगह सर्वहारा राज्य के गठन और शोषण व उत्पीड़न के सभी रूपों के अंत की ओर जाने के अतिरिक्त हमें और कहीं नहीं ले जाता है। कृषि कानूनों की वापसी और एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग के लिए होने वाली लड़ाई में चाहे जीत हो या हार, यह हमें इसी ओर ले जाने वाली गति से सन्नद्ध करती हैं। किसानों के सभी मुख्य मसले अनसुलझे हैं और पूंजीवाद में अनसुलझे ही रहेंगे। किसानों की कोई भी जीत महज अगली जीत के एजेंडे को लाने वाली साबित होगी। किसानों की परिपक्वता भी अब जाने-अनजाने दिखने लगी है। जब वे कहते हैं कि यह तो लड़ाई की शुरूआत है, तो वे आज के दौर के पूंजीवाद की मूल प्रवृति को ही नहीं, अपनी लड़ाई के मूल चरित्र और उसकी दिशा को भी अपनी सहज वृति से समझने लगे हैं ऐसा माना जा सकता है।

यह मजदूर तथा मेहनतकश वर्ग के शोषण व लूट की अत्यधिक तीव्रता को ही दिखाता है कि आज छोटी पूंजी के मालिक भी तेजी से दिवालिया हो रहे हैं। मोदी की फासिस्ट सरकार ने इसे इतनी अधिक स्पष्टता से दिखा दिया है कि कॉर्पोरेट के बेशर्म हिमायतियों को छोड़ किसी को भी इसे देखने में कठिनाई नहीं हो सकती है। किसानों में छोटी व ग्रामीण पूंजी के मालिक भी आते हैं। इसलिए अगर छोटी पूंजी के मालिक किसानों के भी तेजी से उजड़ने की स्थिति आज पैदा हुई है तो इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि आर्थिक शोषण की तीव्रता कितनी तेज हो चुकी है और इससे मजदूर-मेहनतकश वर्ग के जीवन पर क्या असर पड़ा है। इतना ही नहीं, यह हमें गरीब व निम्न आय तथा कम संसाधन वाले किसानों की मुक्ति के संबंध में मजदूर वर्गीय पहुंच तथा विचारधारा आदि को भी किसान आंदोलन में ले जाने का अवसर अथवा सुयोग प्रदान करता है। कुल मिलाकर यह परिस्थिति किसान आंदोलन में मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी हस्तक्षेप के लिये जगह बनाने में मदद देती है। किसानों का व्यापक हिस्सा पूंजीवादी खेती की अतार्किकता के कारण तीन दशक से भी ज्यादा समय से उजड़ते आ रहे हैं तथा इसी प्रक्रिया को और अधिक, यानी बलपूर्वक तेज करने के लिए ये कृषि कानून लाये गये थे। दरअसल यह भारतीय खेती के पूंजीवाद विकास के दूसरे दौर का परिचायक है जिसके तहत खेती में बड़ी पूंजी का निर्णायक वर्चस्व कायम होना था जिसके शिकार वे किसान भी होते या होंगे जो कल तक पूंजीवादी खेती से लाभान्वित होते रहे हैं। किसानों की एक जीत ने फिलहाल इसे रोक दिया है। लेकिन कब तक, यह सवाल गूंज रहा है। संपूर्णता में किसानों के समक्ष यह प्रश्न खड़ा है कि 1980 और खासकर 1990 के दशक से ही किसानों के उजड़ने की प्रक्रिया, जिसकी आग अब संपन्न किसानों के एक बड़े हिस्से तक आज पहुंच चुकी है, का अंत कैसे होगा? किसानों की निरंतर बढ़ती कर्जग्रस्तता और बदहाली कैसे दूर होगी? किसानों की आत्महत्या कैसे रूकेगी? ये सारे सवाल कृषि कानूनों पर मिली इस जीत के बाद भी, हमारी समझ से कृषि कानूनों पर मिली जीत के बाद और भी तेजी से, किसानों के दिमाग में गूंज रहे होंगे और जल्द ही उन्हें नये आंदोलनों में खींच ले आयेंगे। शंभू और खनोरी बॉर्डरों पर जो दिख रहा है इसी उम्मीद को बलवति करता है।

कृषि क्षेत्र का मौजूदा संकट किसानों के किसान के रूप में उनके अस्तित्व पर मंडराते संकट के अलावे और भला क्या है? आज के दौर में अपेक्षाकृत संपन्न किसानों के दिलोदिमाग में भी यह बात घर कर चुकी है कि बाजार में (उनकी फसलों को मिलने वाले दाम के संदर्भ में) की दगाबाजी उनकी वर्तमान तथा भावी तबाही के केंद्र में है और यह उन्हें अंतत: उजाड़ देगा, और जिसके मूल में बड़ी पूंजी यानी कॉर्पोरेट का बाजार में चौतरफा बढ़ता दखल है। यह उनके किसान के रूप में अस्तित्व को अंतत: खत्म कर देगा वे यह समझ चुके हैं। खासकर अधिक विकसित क्षेत्रों के किसानों के बीच यह समझ अब आम बन चुकी है। एक बार फिर से मोर्चे पर आ डटने की घोषणा किसानों की तरफ से बारंबार यूं ही नहीं हो रही है। किसान नेता एमएसपी पर कानूनी गारंटी की मांग को एक अहम मसला मानते हुए इसके लिए पूरे देश में एक बार फिर से अलख जगाने की बात कर रहे हैं। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि एमएसपी की कानूनी गारंटी का मसला किसान आंदोलन के अगले चक्र व दौर के केंद्र में रहने जा रहा है। बाजार में दाम न मिलने की मार से हलकान किसान मानते हैं कि एमएसपी उसके जिंदा रहने के सवाल से जुड़ा मसला है। शायद इसलिए ही जीत के जश्न के बीच अक्सर किसान आंदोलन के एक बार फिर से उठ खड़ा होने की संभावना तथा उम्मीद का शोर पैदा हा रहा है। और अब कृषि मंत्री के बयान के रूप में कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा की भी वापसी हो हो गई। कॉर्पोरेट की प्रेतछाया पूरी तरह बनी हुई है। इस कारण भी आंदोलन के फिर से उठ खड़ा होने की जमीन वस्तुगत रूप से मौजूद है और लंबे काल तक मौजूद रहेगी।

कृषि कानूनों पर मिली जीत को देखते हुए बाकी के संघर्ष के लिए अपील

2021 में संसद को किसान जनता की शक्ति के आगे झुकना पड़ा था जिसे हम कृषि कानूनों की वापसी के रूप में मिली किसानों की जीत के रूप में जानते हैं। यह चीज कि ‘संसद को किसान जनता की शक्ति के आगे झुकना पड़ा’ स्वयं कृषि कानूनों के ऊपर मिली जीत से भी ऊपर की चीज है। यानी, यह एक ऐसी जीत है जिसमें स्वयं जीत एक गौण पक्ष बन गया है, और इसका इतिहास की गति पर पड़ने वाला प्रभाव मुख्य पक्ष बन जाता है। किसानों की जीत ने जनवाद के जिस तकाजे को पुनर्जीवित किया है और जिस तरह से जनता को सर्वोपरि और निर्णायक शक्ति के रूप में पेश किया है, वह पूंजीवाद और शासक वर्ग के विरूद्ध जाने वाली शक्ति है।

आज के विजयी किसान अभी अंतिम विजेता साबित नहीं हुए हैं। अभी बहुत कुछ लड़ाई बाकी है।  लेकिन निस्संदेह किसानों को इस बात की महान शिक्षा मिली है कि आगे कैसे लड़ना है, शासकों के दावपेंच को कैसे पराजित करना है, और सबसे बढ़कर इस बात की शिक्षा मिली है कि वास्तविक व अंतिम जीत अभी दूर है लेकिन असंभव और नामुमकिन नहीं है।

जब तक पूंजीवादी व्यवस्था है तब तक इजारेदार पूंजी भी है। इजारेदार पूंजी के बने रहने का अर्थ इजारेदाराना वर्चस्व कायम करने के प्रयासों का बना रहना भी है, अन्यथा इसके होने का कोई अर्थ नहीं है। इसकी सर्वशक्तिमत्ता इस बात में निहित में है कि यह किसी एक कानून के ऊपर निर्भर नहीं है। इसलिए किसी एक कानून पर मिली जीत से इसे रोक पाना असंभव है। बाद की स्थितियों से वे इसे जरूर सीखे हैं।

फासिस्टों की सीधी टक्कर जनवाद से है। सुसंगत जनवाद की जीत ही इसकी मुकम्मल हार है। किसानों को यह सबक भी अवश्य मिला है जिसका प्रभाव आगे की लड़ाइयों में दिखेगा। सबसे बड़ा सबक तो यही है कि जनता की जीत का मंत्र संसदीय संघर्ष में नहीं है। संसद और संसदीय निकायों को इजारेदार पूंजी अपने वश में कर चुकी है। लेकिन तब भी सड़क हमारी बनी रहेगी, जहां जनवाद और जनतंत्र की आत्मा बसती है। उन्हें साथ में यह भी जानना चाहिए कि किसी उपलब्घि के महज गीत गाना उसके महत्व को अंदर से खोखला कर देता है। उसका महत्व उसे गति में, यानी उसे एक ऐसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने व समझने में है। तभी इसकी विराटता और सीमा दोनों उजागर होते हैं। आज किसान आंदोलन के सामने निश्चित ही यह चीज गौरतलब है कि भावी किसान आंदोलन इंतजार कर रहा है। वह समय के गर्भ में पल रहा है, जिसकी एक बानगी या उसका एक छोटा स्वरूप आज शंभू और खनोरी बॉर्डरों पर दिखाई भी दे रहा है! यह बता रहा है कि भावी किसान आंदोलन कैसा होगा। आज अगर किसान फिर से मजबूती से तथा तमाम तरह के हमले को सहकर भी मोर्चे पर डटे हैं, जैसा कि पंजाब-हरियाणा की सीमा से आ रही खबरे बता रही हैं, तो हमारा पूरा विश्वास है कि किसान आंदोलन का आखिरी अध्याय अभी लिखा जाना बाकी है। हम यहां साफ-साफ यह कहना चाहते हैं कि मजदूर वर्ग सहित न्यायपसंद तबकों व लोगों को किसानों द्वारा फिर से मोर्चा पर आ डटने का भरपूर स्वागत करना चाहिए, इसके आखिरी अध्याय के लिखे जाने तक इनके साथ खड़ा रहना चाहिए तथा आज के संघर्षरत किसानों का खुली बाहों और उल्लसित मन से स्वागत करना चाहिए।


[1] उदहारण के लिए 2015 में मकई का वायदा कारोबार वास्तविक कारोबार का ग्यारह गुणा बढ़ गया। वायदा बाजार में वित्तीय निवेशकों की मौजूदगी से जिंसों के बाजार के वित्तीयकरण की प्रक्रिया को भी बढ़ावा मिला। इससे भी कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव आता है। हर दवा आखिरी में मर्ज को बढ़ाने वाली चीज साबित हुई।