अंतरिम बजट 2024 – जनता के लिए कोई झूठा लुभावना ऐलान तक नहीं, पूंजीपति गदगद
March 1, 2024मुकेश असीम
भारत के पूंजीवादी जनतंत्र के संवैधानिक कायदों के मुताबिक आम चुनाव की प्रक्रिया के ठीक पहले तत्कालीन सरकार बजट पेश करने के बजाय मात्र जरूरी सार्वजनिक व्यय को जारी रखने हेतु ‘वोट ऑन अकाउंट’ प्रस्तुत कर उसे संसद से पारित कराती रही हैं ताकि आम चुनावों में चुनी गई सरकार के हाथ में ही वास्तविक सालाना बजट के द्वारा नीतियों को अंतिम रूप देने का अधिकार रहे। मगर इस बार सरकार ने, और मीडिया ने इस बात को रट्टू तोते की तरह दोहराया, इसे अंतरिम बजट कह कर प्रस्तुत किया और यह संकेत भी दिया कि आम चुनावों पश्चात जुलाई में पेश किए जाने वाला आम बजट भी इसी तर्ज पर होगा। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि मौजूदा हुकूमत की नजर में आगामी आम चुनाव बस एक औपचारिकता भर हैं और सत्ता में तो हर हालत में उसे ही रहना है। और अगर सत्ता में इस सरकार का ही रहना तय मान लिया गया है तो उसे जनता को भ्रमित करने या लुभाने तक के लिए कोई जनकल्याणकारी नीति का ऐलान करने की क्या जरूरत रह जाती है?
चुनांचे इस अंतरिम बजट में पिछले दस सालों में की गई चमत्कारी आर्थिक वृद्धि के दावों की एक लंबी सूची तो है, पर आम लोगों को झूठे ही लुभाने तक के लिए भी कोई ऊपर से मीठा, मगर चूसने के बाद अंदर से कड़वा लॉलीपॉप तक देने का ऐलान नहीं किया गया है। सामाजिक क्षेत्र की लगभग हर योजना – ग्रामीण रोजगार गारंटी की नरेगा, स्वास्थ्य बीमा की आयुष्मान योजना, खाद्य सुरक्षा हेतु सार्वजनिक वितरण, शिक्षा, मिड डे मील, बाल महिला वंचित समुदाय कल्याण, बुढ़ापा विधवा अपंगता पेंशन, ग्रामीण विकास, कृषि, वगैरह – पर बजट आबंटन या तो पहले की तुलना में सीधे कम कर दिया गया है, या मुद्रास्फीति के बावजूद संख्या में उतना ही है या बजट के कुल आकार में वृद्धि व महंगाई की तुलना में मात्र नगण्य वृद्धि की गई है। कुल मिलाकर प्रभावी रूप से देखें तो हर प्रकार की सामाजिक योजना (जो हमारे देश में पहले से ही आवश्यकता की तुलना में नाममात्र की हैं) पर खर्च में वास्तविक कटौती कर दी गई है।
यह पूंजीवाद की नवउदारवाद कहे जाने वाली नीतियों के एक प्रमुख हिस्से मितव्ययता या कमखर्ची (austerity) की नीति का ही हिस्सा है। इसके अंतर्गत सामाजिक कल्याण की प्रत्येक नीति को फिजूलखर्ची बताया जाता है और कहा जाता है कि हर खर्च गुण या मेरिट के आधार पर होना चाहिए। किंतु यह मेरिट और कुछ नहीं सरकार द्वारा पूंजीपतियों, एवं उनमें भी खास तौर पर कुछ एकाधिकारी कॉर्पोरेट पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने हेतु रियायतों व प्रोत्साहन पर किया जाने वाला खर्च ही होता है। पूंजीवादी ‘विद्वान’ अर्थशास्त्री बताते हैं कि सामाजिक कल्याण की योजनाओं का खर्च बैठे बैठे सब्सिडी देकर लाभार्थियों को आलसी व कामचोर बनाता है और इससे आर्थिक वृद्धि कमजोर होती है। अतः इस खर्च में कोई गुण या मेरिट नहीं है।
इसके बरक्स इन पूंजीवादी विशेषज्ञों के मुताबिक पूंजीपतियों को मिलने वाली रियायतों व प्रोत्साहनों से आर्थिक वृद्धि तीव्र होती है जिससे पूंजीपतियों का लाभ तो बढ़ता ही है, साथ ही इसमें से कुछ हिस्सा अमीरों की तिजोरी से रिस रिस कर (trickle down) नीचे गरीब मेहनतकश जनता तक भी पहुंचता है लेकिन सिर्फ उनके पास जो आलस के बजाय निष्ठा से कठिन परिश्रम करते हैं। अतः वे इस खर्च को गुणवान या मेरिट वाला खर्च कहते हैं। किंतु इसका अर्थ साफ है कि उनकी नजर में सामाजिक कल्याणकारी खर्च से श्रमिकों पर भुखमरी का दबाव कम हो जाता है जिससे वे अधिक मजदूरी दर के लिए मांग व संघर्ष करने में सक्षम होते हैं। वहीं ऐसी योजनाओं पर खर्च को फिजूलखर्ची कहकर कटौती कर दी जाए तो श्रमिकों को भूख के दबाव में पूंजीपतियों के सामने झुकने की विवशता बढ़ जाती है जिससे मालिक पूंजीपति उनसे कम मजदूरी पर अधिक घंटे व अधिक तेजी से काम कराकर उनके शोषण व अपने मुनाफे की दर को बढ़ाने में कामयाब होते हैं। यही वजह है कि पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों की नजर में ये प्रोत्साहन व रियायतें गुणवान होती हैं क्योंकि खुद इन्हें मिलने वाला ऊंचा वेतन व प्रोत्साहन भी तो पूंजीपतियों को होने वाले लाभ पर ही निर्भर होता है अर्थात उसमें से ही आता है!
यही वजह है कि समस्त पूंजीपति, उनका नियंत्रित मीडिया व उनके विद्वान अर्थशास्त्री सामाजिक योजनाओं को वित्तीय घाटा बढ़ाने वाला मानते हैं और लगातार इस वित्तीय घाटे को घटाने की मांग करते हैं। निश्चय ही उनकी मांग को पूरा करने से यह सरकार कैसे इंकार कर सकती है। अतः कॉर्पोरेट मीडिया व बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों की नजर से इस अंतरिम बजट का सबसे बड़ा ऐलान वित्तीय घाटा कम करने की घोषणा है। वित्त मंत्री ने ऐलान किया है कि वित्तीय घाटा जो कोविड के दौर में 2020-21 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 9.2% तक पहुंच गया था, वह चालू वित्त वर्ष के अंत तक ही घटकर 5.8% रह जाएगा, अगले वित्त वर्ष में यह 5.1% और 2025-26 में 4.5% ही रह जाएगा। यह तब है जबकि पिछले वर्ष की 10.5% की तुलना में वर्तमान मूल्यों पर या आंकिक (nominal) जीडीपी वृद्धि दर घटकर इस वर्ष 9% ही रह गई है।[1] इससे पूरा पूंजीपति वर्ग गदगद है। अब सामाजिक योजनाओं पर खर्च हेतु सरकार को कर्ज भी कुछ कम लेना होगा। इससे तुरंत ही वित्तीय बाजारों में ब्याज दरें गिर गईं और पूंजीपतियों की वित्तीय संपत्तियों (financial assets) के दाम बढ गए।
बजट प्रस्तावों को देखें तो वित्तीय घाटे में इस कमी के लिए सरकार ने जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर कुल खर्च को पिछले 5 वर्ष के औसत 15.5% के मुकाबले आगामी वर्ष में 14.5% ही कर दिया है जबकि राजस्व व्यय 5 वर्ष के औसत 13.1% की तुलना में 11.1% ही किया जाएगा। खाद्य सुरक्षा पर सबसिडी 5 वर्ष के औसत 1.2% से 0.6% ही रह जाएगी। खाद पर सबसिडी भी 0.6% से 0.5%, पेट्रोलियम सबसिडी 0.1% से शून्य, कृषि पर खर्च 0.6% से 0.4%, ग्रामीण विकास पर 0.9% से 0.8% और शहरी विकास पर खर्च 0.3% से कम होकर 0.2% ही रह जाएगा। शिक्षा पर खर्च 0.4% तथा स्वास्थ्य पर 0.3% ही बना रहेगा। कुछ वास्तविक संख्याओं को देखें तो खाद सबसिडी 2023-24 के 1.90 लाख करोड़ रुपये से कम हो 2024-25 में 1.60 लाख करोड़, खाद्य सबसिडी 2.1 लाख करोड़ से 2 लाख करोड़, मनरेगा 90 हजार करोड़ रुपये से 86 हजार करोड़ एवं ग्रामीण सड़क योजना का बजट आबंटन 17 हजार करोड़ से घटाकर 12 हजार करोड़ रुपये कर दिया गया है। इसी प्रकार बच्चों की आंगनवाड़ी योजना हेतु आबंटन 2023-24 के संशोधित आंकड़े 21,523 करोड़ रुपये से 2024-25 में 21,200 करोड़, स्कूलों में मिड डे मील की पोषण योजना का आबंटन 12,800 करोड़ से 11,600 करोड़ तथा बुढ़ापा, विधवा तथा अपंगता पेंशन के नेशनल सोशल असिस्टेंस प्रोग्राम का आबंटन 10,618 करोड़ से घटाकर 9,652 करोड़ कर दिया गया है। वास्तव में तो इन तीनों कार्यक्रमों का बजट पिछले एक दशक में प्रभावी ढंग से 25-30% कम किया जा चुका है।
अंतरिम बजट के आंकड़ों से हमें मौजूदा सरकार की टैक्स नीतियों से कॉर्पोरेट पूंजी को बढ़ते फायदे व आम लोगों पर बढ़ाए जा रहे बोझ का भी पता चलता है। पहले कॉर्पोरेट टैक्स को लेते हैं। इस सरकार के सत्ता में आने के पूर्व कंपनियों की आय पर लगने वाले इस कर से कुल जीडीपी के औसत 3.7% की वसूली होती थी। लेकिन पिछले 5 सालों में कंपनियों से होने वाली टैक्स वसूली घटकर औसत 2.8% ही रह गई है। टैक्स देने वाली कंपनियों की कुल संख्या 2012-13 में 3.45 लाख थी जो 2021-22 में बढ़कर 4.57 लाख हो गई। मगर बजट के साथ संलग्न ‘केंद्रीय कर व्यवस्था में कर प्रोत्साहनों का राजस्व पर प्रभाव’ दस्तावेज बताता है कि लाभांश वितरण कर सहित कॉर्पोरेट टैक्स की प्रभावी दर 2012-13 में 24.2% थी जो 2018-19 में बढ़कर 30.4% हो गई थी। लेकिन उसके बाद लाभांश वितरण कर समाप्त कर दिया गया और कॉर्पोरेट टैक्स में रियायत वाली नई व्यवस्था लागू की गई। इससे कंपनियों पर प्रभावी टैक्स दर घटकर 2010-21 में 22.2% ही रह गई। जैसा हमने पहले ही कहा यह सब रियायतें आर्थिक वृद्धि के नाम पर गुणवान या मेरिट प्रोत्साहन बताई जाती हैं और पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार इसका लाभ सिर्फ पूंजीपतियों को ही नहीं, रिस रिस कर आम लोगों सहित पूरे समाज को मिलता है। पर वास्तव में इससे किसे और कितना लाभ मिला है?
उधर कॉर्पोरेट पूंजी को दी गई इन टैक्स रियायतों से हुए भारी राजस्व घाटे की भरपाई आम जनता पर लगने वाले अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ाकर की गई है। जहां कॉर्पोरेट व आय कर सिर्फ एक निश्चित आय के ऊपर या आय के बढ़ते क्रम में लगते हैं वहीं ये अप्रत्यक्ष गरीब से गरीब व्यक्ति को भी चुकाने होते हैं और इनकी दर भी अमीर गरीब व्यक्तियों पर समान होती है। किंतु जहां अमीर व्यक्ति को जीवनयापन पर अपनी कुल आय का एक छोटा सा अंश ही खर्च करना होता है वहीं गरीब मेहनतकश की सम्पूर्ण आय ही जीवनयापन में खर्च हो जाती है बल्कि किसी तरह उसका न्यूनतम आवश्यकताओं का ही खर्च चलता है। अतः आय के प्रतिशत के तौर पर देखें तो अमीर लोगों के मुकाबले गरीब व्यक्ति की आय का अधिक बड़ा हिस्सा अप्रत्यक्ष टैक्स चुकाने में चला जाता है। जीएसटी लागू होने के पहले केंद्रीय अप्रत्यक्ष करों अर्थात एक्साइज व कस्टम से जीडीपी का 3.3% ही वसूल होता था। किंतु पिछले 5 सालों में अप्रत्यक्ष करों से वसूली बढ़कर जीडीपी का औसत 5.1% हो गई है। इससे ही स्पष्ट है कि कॉर्पोरेट पूंजीपतियों को दी गई प्रत्यक्ष कर रियायतों से हुए राजस्व नुकसान की भरपाई आम जनता पर अप्रत्यक्ष करों की वसूली का बोझ बढ़ाकर की गई है। इसकी वजह से मजदूर वर्ग, मेहनतकश जनता व निम्न मध्य वर्ग के अधिकांश लोगों के जीवन की पहले से ही मुश्किल दशाएं और भी बदतर होती गई हैं।
प्रत्यक्ष करों में रियायतों के अतिरिक्त भी देशी विदेशी कॉर्पोरेट पूंजी को तमाम कर व गैर कर रियायतें व प्रोत्साहन दिए गए हैं। इनमें प्रोडक्शन लिंक्ड इनसेंटिव (पीएलआई) सबसे महत्वपूर्ण है। पीएलआई योजना पर हम ‘यथार्थ’ में अलग से विस्तार से लिख चुके हैं, अतः यहां इतना ही कहेंगे कि इसमें देश में उत्पादन बढ़ाने के नाम पर इलेक्ट्रानिक्स, केमिकल्स, आटोमोबाइल, ड्रग्स, टेक्सटाइल्स, इलेक्ट्रिकल्स, आदि विभिन्न उद्योगों को 10 हजार करोड़ से 75 हजार करोड़ रू तक देने की योजना जारी है जो इन क्षेत्रों की सैंकड़ों देशी विदेशी कंपनियों को दिया जा रहा है। अब तक इस पर 3-4 लाख करोड़ रुपये खर्च किए जाने के ऐलान हो चुके हैं। बताया जाता है कि इससे बड़े पैमाने पर औद्योगिक विकास होगा और बढ़िया वेतन वाले रोजगारों का सृजन होगा। इस हेतु देशी-विदेशी पूंजीपतियों के पूंजी निवेश को आकर्षित करने हेतु 4 नए लेबर कोड द्वारा मजदूर अधिकारों में भी भारी कटौती की गई है। बजट भाषण में 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाकर लोगों की आय में वृद्धि के सपने दिखाने की बातों में यह पीएलआई योजना भी शामिल थी।
किंतु क्या वास्तव में इन तथाकथित मेरिट खर्च वाली योजनाओं से आर्थिक वृद्धि तेज हुई है? क्या वास्तव में इन मेरिट प्रोत्साहनों व रियायतों से उत्पादन के क्षेत्र में पूंजी निवेश बढ़ा है? क्या वास्तव में इससे बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन हो रहा है? और क्या इस बड़े रोजगार सृजन से मजदूरी दर में वृद्धि हो रही है? क्या इस सब का प्रभाव हम बाजार मांग व रोजमर्रा के उपभोग में वृद्धि द्वारा देख सकते हैं?
वास्तविकता यह है कि पूंजीपतियों को दिए जाने वाले इन प्रोत्साहनों व रियायतों के बावजूद पूंजी निवेश की दर में वृद्धि के बजाय भारी गिरावट दर्ज की गई है। 2008-09 में आए वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संकट के पहले के 5 साल में वास्तविक पूंजी निवेश वृद्धि दर औसत 12.3% थी। यह 2013-14 तक के अगले 5 साल में 7.5%, फिर 2018-19 तक के 5 साल में 7.3% और 2023-24 के गत 5 सालों में मात्र औसत 6.2% ही रह गई है। इसका नतीजा है कि जहां 2008-09 पूर्व सकल जड़ पूंजी निर्माण का सालाना औसत जीडीपी का 33.5% होता था, वहां पिछले 5 सालों में यह 28.6% ही रह गया है। इसमें भी सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश द्वारा पूंजी निर्माण की दर लगभग समान रही है। किंतु निजी क्षेत्र में पूंजी निर्माण की दर सालाना औसत 25.5% से गिरकर 21.1% ही रह गई है। स्पष्ट है कि देशी-विदेशी पूंजीपति इन तमाम प्रोत्साहनों व रियायतों का फायदा तो उठा रहे हैं लेकिन इसकी वजह से वे उत्पादन के क्षेत्र में अपना पूंजी निवेश नहीं बढ़ा रहे हैं।
अतः इससे बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इसीलिए सरकार द्वारा किए गए सारे भारी भरकम प्रचार और खुद प्रधानमंत्री द्वारा दफ्तरी क्लर्क वाला नियुक्ति पत्र बांटने का काम संभाल लेने की शोशेबाजी के बावजूद देश में बेरोजगारी की दर कई दशकों की चरम ऊंचाई पर है। लेकिन प्रधानमंत्री के प्रिय स्टार्टअप व आईटी उद्योग तक के क्षेत्र में लाखों की संख्या में छंटनियों का काम जारी है। खुद सरकार इस तथ्य को छिपाने के लिए सर्वेक्षणों व आंकड़ों में किस्म किस्म की बाजीगरी का सहारा ले रही है। उदाहरण के तौर पर सरकार ने पुराने पीरियडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) में फेरबदल कर जो नई शृंखला आरंभ की है उसमें एक नई श्रेणी बनाई गई है – ‘अवैतनिक सहायक’ अर्थात जिन्हें कोई वेतन या मजदूरी नहीं मिलती लेकिन वे रोजगाररत हैं! इस श्रेणी के अंतर्गत जिनके घर में कोई खेती, दुकान या अन्य काम होता है वे अगर उसमें कभी मदद करते हैं तो उन्हें सरकारी आंकड़ों में रोजगाररत की गिनती में रखा जा रहा है। इससे रोजगार की तलाश में तबाह युवाओं और रोजगार की तलाश तक को बेकार मान घरेलू काम में दिन रात खटती स्त्रियों तक को ‘अवैतनिक सहायक’ की श्रेणी में रोजगाररत दिखा कर इस सर्वेक्षण के आंकड़ों में युवा व स्त्रियों के कार्यबल में होने व रोजगार सृजन की संख्या में भारी वृद्धि प्रदर्शित की जा रही है। लेकिन रोजगार के आंकड़ों में सुधार हेतु ऐसी बाजीगरी करने की जरूरत पड़ रही है, यही प्रमाण है कि वास्तविक रोजगार सृजन नहीं हो रहा है।
रोजगार के क्षेत्र में संकट है तो मजदूरी व वेतन में वृद्धि न होना या उनका सपाट स्थिर रहना स्वाभाविक है। तमाम आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं कि पिछले कई सालों में महंगाई की तुलना में देखने पर शहरी व ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में मजदूरी दर स्थिर है या उसमें प्रभावी गिरावट हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में 2016-17 अर्थात नोटबंदी के समय से ही प्रभावी मजदूरी दर में कोई वृद्धि नहीं हुई है और 2020-21 से तो यह गिरी है क्योंकि बडी तादाद में शहरी क्षेत्रों के बेरोजगार भी ग्रामीण क्षेत्र में चले जाने से वहां मजदूरों के बीच परस्पर होड़ बढ गई है और वे और भी कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। पीरियडिक लेबर फोर्स सर्वे के मुताबिक ही 2017-18 से 2022-23 में प्रभावी मासिक मजदूरी में लगभग एक चौथाई की गिरावट दर्ज की गई है। इसकी पुष्टि उपभोक्ता व्यय की स्थिति से भी की जा सकती है। मगर 2011–12 के बाद से उपभोक्ता व्यय के आधिकारिक आंकड़े मौजूद नहीं हैं। 2017-18 का सर्वेक्षण उपभोक्ता खर्च में भारी गिरावट दिखा रहा था। अतः सरकार ने खुद द्वारा कराए गए सर्वेक्षण को रद्द कर इसके आंकड़े अलमारी में बंद कर दिए और इसके बाद से यह सर्वे नहीं कराया गया है। किंतु जीडीपी के आंकड़ों के जरिए (हालांकि उन पर भी बहुत से प्रश्न चिह्न हैं) हमें इसका कुछ संकेत मिल जाता है। इनके मुताबिक 2018-19 तक वास्तविक निजी उपभोक्ता व्यय में सालाना औसतन 7.2% की वृद्धि हो रही थी। किंतु इसके बाद के 5 सालों में यह वृद्धि सालाना औसतन 4.7% ही रह गई। सवाल उठता है कि अगर सरकार सच कह रही है कि जनता के लिए रोजगार व उसकी आय बढ रही है तो फिर लोग रोजमर्रा के जीवन के जरूरी खर्चों में कटौती क्यों कर रहे हैं?
इसकी पुष्टि रोजमर्रा का उपभोक्ता सामान बनाने वाली कंपनियों के बिक्री के आंकड़े भी करते हैं। चंद अपवाद को छोड़कर इन कंपनियों के वित्तीय परिणाम बताते हैं कि अमीरों के ऐशोआराम के उपभोक्ता सामानों को छोडकर सामान्य दैनंदिन उपभोग के हर क्षेत्र (जूता, कपडा, बिस्किट, चाय पत्ती, क्रीम-तेल, शैंपू वगैरह) बनाने वाली लगभग हर कंपनी की बिक्री नग के हिसाब से स्थिर है या घटी है, हालांकि महंगाई की वजह से कीमतों में हुई वृद्धि से यह कुल रूपये में बढी हो सकती है। अगर हम किसी भी सामान का उदाहरण लें तो पाएंगे कि कुछ महंगे सामानों की बिक्री में तो वृद्धि हो रही है लेकिन आम उपभोग के सस्ते सामानों की बिक्री में गिरावट है। जैसे 20 हजार रुपये से अधिक कीमत के मोबाइल फोन की बिक्री बढ़ रही है, लेकिन दस हजार रू से कम कीमत वाले फोन की बिक्री कम हुई है। 10 लाख रू से अधिक कीमत वाली कारों की बिक्री बढ़ी है, लेकिन 5 लाख रू से कम कीमत की कारों की बिक्री थम गई है। हर उद्योग में कुछ ऐसे ही आंकड़े मौजूद हैं। इसे आर्थिक क्षेत्र में K के आकार या दो विपरीत दिशाओं की आर्थिक वृद्धि कहा जा रहा है – यह ऐसी आर्थिक वृद्धि है जिसमें अमीरों वाली रेखा और भी ऊपर की ओर जा रही है, किंतु गरीबों वाली रेखा और भी तेजी से नीचे की ओर जा रही है।
वित्त मंत्री द्वारा बजट भाषण में जो भी बड़े बड़े दावे किए गए हों, पर कड़वी सच्चाई यही है। और यह रूझान अभी बढ़ता ही जा रहा है। रोजगार व मजदूरी दर की स्थिति पहले से खराब है, और भी बदतर होगी। छंटनियों की तादाद बढेगी। इसके बावजूद चुनाव पूर्व अंतरिम बजट तक भी यह स्थिति है कि खुद की सत्ता को पूरी तरह सुरक्षित मानकर सरकार ने मेहनतकश जनता के लिए कुछ ऐलान तक नहीं किए हैं, तो चुनाव पश्चात अंतिम बजट में क्या होने वाला है इसकी कल्पना की सकती है। पर पूंजीपति, उनके टीवी चैनल, अखबार और उनके आर्थिक विद्वान इस अंतरिम बजट से अत्यधिक खुश हैं। उनके लिए ऊपर की सब बातें चिंता का नहीं, प्रसन्नता का विषय है। सामाजिक योजनाओं पर जो खर्च घटाया गया है, वह सरकार द्वारा पूंजीपति वर्ग को और भी अधिक फायदा पहुंचाने में मदद ही तो करेगा। पर पूंजीपति वर्ग की प्रबंध समिति के तौर पर काम करने वाली सरकार से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? वास्तविक जनकल्याण के लिए तो अब मेहनतकश जनता की प्रबंध समिति वाली एक सरकार की जरूरत है।
[1] इसके बावजूद भी अग्रिम अनुमानों के अनुसार वास्तविक जीडीपी दर बढ़कर पिछले वर्ष की 7.2% की तुलना में इस वर्ष 7.3% बताई जा रही है, वह सरकार की गणना पद्धति का जादू है जिसमें आंकिक जीडीपी दर में से महंगाई दर घटाकर वास्तविक वृद्धि दर निकाली जाती है। सरकार के अनुसार यह घटाई जाने वाली महंगाई दर 2% से भी कम कैसे है जबकि इस वित्तीय वर्ष में औसत उपभोक्ता महंगाई दर 5.5% रही है, उस विषय में अभी हम नहीं जा रहे हैं।