उत्तराखंड UCC – समानता के नाम पर सांप्रदायिक एजेंडा और पितृसत्ता को मजबूती देने वाला एक और कदम

March 1, 2024 0 By Yatharth

6 फरवरी 2024 को उत्तराखंड विधान सभा में भाजपा की राज्य सरकार द्वारा ‘समान नागरिक संहिता’ या ‘यूनिफार्म सिविल कोड’ (UCC) पास करा लिया गया। इसी के साथ उत्तराखंड आजाद भारत में UCC कानून लाने वाला पहला राज्य बन गया है।[1] UCC मूलतः पारिवारिक – विवाह, तलाक, संपत्ति उत्तराधिकार, संतान संबंधित आदि – मसलों को परिचालित करने वाला कानून है। भारत में इन मसलों के लिए विभिन्न समुदायों के अलग-अलग प्रथाओं व रिवाजों के तहत विभिन्न (पर्सनल लॉ) कानून मौजूद हैं। इन भिन्न कानूनों की जगह एक समान कानून (UCC) लाने की बात शुरुआत से ही भाजपा के चुनावी घोषणापत्रों का अभिन्न हिस्सा रही है।

UCC का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

18-19वी शताब्दी में विभिन्न देशों में पूंजीवादी क्रांतियों और 19-20वी शताब्दी के जनतांत्रिक आंदोलनों के परिणाम स्वरूप ‘जनतंत्र’ स्थापित होने पर राज्य और धर्म को अलग करने की क्रांतिकारी मांग के तहत समान नागरिक संहिताएं बनाई गई थीं जो आज भी लागू हैं। भारत में भी 1947 के बाद संविधान सभा ने “राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों” में से एक सिद्धांत के रूप में UCC को संविधान के अनुच्छेद 44 में शामिल किया था। यानी भारत में UCC कानून नहीं बना लेकिन राज्य ने यह संकल्प लिया कि वह आगे सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता (UCC) प्रदान करने का प्रयास करेगा। धर्म पर आधारित सामंतवादी शासन और सामंती नियमों-रीतियों (विवाह, उत्तराधिकार आदि नियम सहित) के पितृसत्तात्मक महिला-विरोधी तथा रूढ़िवादी वर्चस्ववादी चरित्र के खिलाफ ‘स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व’ के प्रगतिशील विचारों की बगावत का ही परिणाम था एक समान व न्यायसंगत नागरिक संहिता की परिकल्पना। इसके पीछे जनता, खासकर महिलाओं, को विवाह, तलाक, संपत्ति उत्तराधिकार जैसे क्षेत्रों में बराबर अधिकार सुनिश्चित करने तथा लैंगिक व अन्य सामंती भेदभाव का अंत करने का प्रगतिशील विचार जुड़ा हुआ था।

भाजपा UCC के लिए उतारू क्यों?

इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से अगर UCC को देखें तो फासीवादी वर्चस्ववादी मूल्यों पर ही गठित हुई आरएसएस के राजनीतिक धड़े अर्थात भाजपा के घोषणापत्र में UCC लागू करने का वायदा होना अटपटा लगता है। परंतु शुरुआत से ही उसकी गतिविधियों के साथ उत्तराखंड में लागू हुई UCC पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि “महिला सशक्तिकरण” और समानता के नाम पर भाजपा UCC की जनवादी परिकल्पना को हाईजैक कर उसे अपने हिंदुत्व के फासीवादी अजेंडे को आगे बढ़ाने का एक यंत्र बनाना चाहती है।

सच्चाई यही है कि आज भी भारत में मौजूदा सभी समुदायों के पर्सनल लॉ (पारिवार संबंधित कानून) मूलतः प्राचीन समय में उस समुदाय के परंपरागत नियमों व रीतियों तथा धार्मिक नैतिकता के आधार पर बने हैं। 1950 के बाद से इन नियमों के संहिताकरण (कोडिफिकेशन) के क्रम में व आगे संशोधनों के माध्यम से इनमें कुछ गंभीर रुढ़िवादी प्रावधानों को हटाया भी गया है लेकिन बहुत सीमित रूप से। इसलिए अब भी यह सारे कानून भेदभावपूर्ण प्रावधानों से ही ग्रसित हैं, चाहें वह हिंदू पर्सनल लॉ हों या अल्पसंख्यक समुदायों के पर्सनल लॉ।[2] परंतु भाजपा केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ को ही भेदभावपूर्ण और महिला-विरोधी बता कर उसे नियंत्रित करने के लिए UCC लाने की बात करती है, जिससे धार्मिक ध्रुवीकरण के उसके फासीवादी अजेंडे को मजबूती मिले। बाकी धर्मों, खास कर हिंदू धर्म, के पर्सनल लॉ में व्याप्त रुढ़िवादी व अन्यायपूर्ण प्रावधानों को बदलने की उसकी कोई मंशा नहीं है। साथ ही अपने UCC के जरिए भाजपा का हमला केवल मुस्लिम आबादी पर ही केंद्रित नहीं है। व्यापक महिला आबादी व आम जनता के जनवादी अधिकार भी उसके निशाने पर हैं। उत्तराखंड में लागू हुए UCC कानून इस बात को साबित करते हैं।

क्यों खतरनाक है उत्तराखंड का UCC कानून?

सबसे पहले तो इस नए UCC कानून की धारा 6 और 7 के तहत उत्तराखंड में 2010 के बाद हुई सभी शादियों को पंजीकृत कराना अनिवार्य कर दिया गया है जिसका उल्लंघन होने पर रु. 25,000 का जुर्माना लगेगा। भारत में, मुख्यतः गरीबी तथा शिक्षा व जागरूकता के अभाव के कारण, जहां आज भी अधिकतम शादियां पंजीकृत नहीं होती है, वहां बिना शिक्षा व जागरूकता बढ़ाने हेतु किसी मुकम्मल राजकीय योजना के ऐसा दंड अचानक लागू कर देना अंततः आम मेहनतकश जनता को और परिपीड़ित (विक्टिमाइज) करेगा।

इसके साथ ही धारा 15 के तहत विवाह व तलाक दर्ज कराने वाले रजिस्टर सार्वजनिक निरिक्षण के लिए खुले रहेंगे। यानी अंतर-धार्मिक, अंतर-जातीय व अंतर-वर्गीय विवाह, जो अकसर परिवार और कट्टरपंथी तत्वों की मर्जी के खिलाफ जाकर किए जाते हैं तथा जिनमें आम युवा अकसर हत्या (‘ऑनर किलिंग’) के शिकार बनते हैं, के रिकॉर्ड परिवार से लेकर ऐसे सभी कट्टरपंथी गुंडे तत्व व संगठन के लिए सार्वजानिक रहेंगे। इसके पीछे अपनी मर्जी से किए गए अंतर-धार्मिक, अंतर-जातीय व अंतर-वर्गीय विवाहों को रोकने का पितृसत्तात्मक सामंती अजेंडा साफ दिखाई पड़ता है।

उत्तराखंड में ‘लिव-इन’ संबंध (अपनी मर्जी से एक साथ रह रहे गैर-शादीशुदा वयस्क दम्पति) में रहे हैं सभी व्यक्तियों (भले ही उनका गृह राज्य कोई और हो) को धारा 378 के तहत यह संबंध शुरू करने के एक महीने के अंदर रजिस्ट्रार के समक्ष इसे पंजीकृत कराना होगा जो यह जानकारी लोकल पुलिस थाने में जमा करेगा। पंजीकरण नहीं कराने पर 3 महीने की जेल या रु. 10,000 का जुर्माना लगाया जाएगा। इस कानून से ‘लिव-इन’ संबंधों का पंजीकरण करने या अस्वीकार कर देने का अधिकार पूरी तरह से रजिस्ट्रार और पुलिस को मिल जाता है जो आसानी से “लव-जिहाद” जैसे आरोपों के नाम पर पंजीकरण अस्वीकार ही नहीं कर सकते है बल्कि दम्पति पर कार्रवाई भी कर सकते हैं। रजिस्ट्रार को तो पंजीकरण के पहले दम्पति की “संक्षिप्त इन्क्वायरी” करने का भी अधिकार है! केवल इतना ही नहीं, 18-21 वर्ष के व्यक्तियों के लिए ‘लिव-इन’ के पंजीकरण और समापन से पहले रजिस्ट्रार को उनके मां-बाप को इसकी सूचना देना अनिवार्य बना दिया गया है। इन प्रावधानों के जरिए दो वयस्क नागरिकों को अपनी मर्जी से प्रेम करने और उस व्यक्ति के साथ रहने के जनवादी अधिकार पर सीधा हमला किया गया है। अब कोई व्यक्ति किसके साथ रहता है इसकी सूचना के साथ इसका नियंत्रण उस व्यक्ति के बजाए भ्रष्ट नौकरशाही, प्रशासन और पुलिस (21 वर्ष के नागरिकों के लिए मां-बाप भी) के पास रहेगा। वह भी तब जब एक तरफ सरकार इन संस्थानों को आंतरिक रूप से हाईजैक कर उनसे फासीवादी अजेंडा को ही लागू करा रही है, तो दूसरी तरफ समाज में सरकार के संरक्षण में फासीवादी गुंडावाहिनियों द्वारा महिला-विरोधी और अल्पसंख्यक-विरोधी (व “लव-जिहाद” का) प्रचार के साथ धार्मिक-जातीय-क्षेत्रीय विभाजन के विचार पूरी ताकत के साथ फैलाया जा रहा है।

हिंदू पर्सनल लॉ में ‘दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन’ (restitution of conjugal rights – जिसका इस्तेमाल महिलाओं को उनकी मर्जी के बिना पति व उसके परिवार के साथ रहने के लिए मजबूर करने के लिए किया गया है जिसके कारणवश वे बलात्कार व गर्भावस्था की शिकार हुई हैं) और वैवाहिक बलात्कार को वैध बनाने वाले घोर महिला-विरोधी प्रावधानों, जिसके खिलाफ न्यायपालिका से लेकर तमाम जनवादी संस्थानों ने ही टिप्पणी की है, को भी हटाने के बजाए उन्हें UCC में शामिल रखा गया है। समलैंगिक संबंधों तथा ट्रांसजेंडर तबके के भी अधिकारों को नकार दिया गया है।

इसके अतिरिक्त 392 धाराओं वाले इस UCC कानून में ज्यादातर धाराएं पुराने पर्सनल लॉ, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम, और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम प्रमुख हैं, के प्रावधानों को सीधे-सीधे कट-पेस्ट कर के ले लिया गया है।[3] विचित्र बात है कि यह UCC कानून राज्य से बाहर रह रहे उत्तराखंडी लोगों पर भी लागू होगा।

भाजपा सरकार द्वारा अपनी परिकल्पना वाली UCC को पूरे देश में लागू करने के कदम तेज कर दिए हैं। 2018 में 21वे विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि भारत में UCC अभी ना ही आवश्यक ना ही वांछनीय है। अब 2023 में 22वे विधि आयोग ने देशव्यापी UCC कानून के लिए भिन्न ‘हितधारकों’ (धार्मिक संगठन सहित) के विचार आमंत्रित करने और उनसे बातचीत की प्रक्रिया भी शुरू कर दी है। निश्चित ही अपने सांप्रदायिक फासीवादी अजेंडे को आगे बढ़ाने तथा धार्मिक ध्रुवीकरण और तीव्र करने के लक्ष्य से भाजपा देशव्यापी UCC लागू करने के पहले, उत्तराखंड में लागू हुए UCC से आम जनता व न्यायपलिया का परीक्षण भी कर रही है।

अब आगे क्या?

भाजपा सरकार द्वारा UCC के नाम पर अपने सांप्रदायिक अजेंडे के तहत आज उत्तराखंड और कल पूरे देश में UCC लागू करने और धार्मिक ध्रुवीकरण को तीव्र करने की कोशिशों के खिलाफ सभी न्यायपसंद व्यक्तियों और तबकों को आवाज बुलंद करने की सख्त जरूरत है। जनता के लिए वही समान नागरिक संहिता स्वीकार्य हो सकती है जो इतिहास की गति को आगे बढ़ाने की दिशा में काम करे, ना कि समाज को वापस सैंकड़ों वर्ष पीछे धकेलने तथा लड़ कर हासिल किए गए जनवादी अधिकारों को कुचलने का। यह भी सच है कि ऐसी सिविल संहिता जो महिलाओं व अल्पसंख्यकों के विशेष अधिकारों की सुरक्षा करते हुए सभी लोगों के लिए समान रूप से लागू हो, तथा जो धार्मिक-लैंगिक व अन्य सभी तरीके के भेदभाव से मुक्त हो, एक गैर-बराबर व सड़ते समाज में कतई लागू नहीं की जा सकती। यह यूं ही नहीं है कि 1950 से एक प्रगतिशील UCC की परिकल्पना संविधान के एक अनुच्छेद तक ही सिमटी रही, और आज एक घोर जनतंत्र व संविधान-विरोधी ताकत उसी प्रावधान को जनतंत्र के खात्मे के लिए इस्तेमाल कर रही है। आज एक न्यायसंगत UCC के सही तौर पर लागू होने के लिए सामाजिक पुनर्गठन एक अनिवार्य शर्त बन चुका है, जिसके तहत आम मेहनतकश आबादी के मेहनत की लूट और शोषण मुट्ठीभर लोग न कर सकें, जहां असल मायने में बराबरी स्थापित हो सके, जहां जनतंत्र पूंजी की बेड़ियों से मुक्त हो और जहां पूंजी का संकट समस्त जनतंत्र और मानवजाति के विकास व अस्तित्व पर ही खतरा न खड़ा कर पाए। UCC के साथ महिलाओं की मुक्ति, धार्मिक-जातीय विभाजन व झगड़ों का अंत और सामाजिक न्याय के लिए ऐसे समाज के क्रांतिकारी पुनर्गठन के लिए एकजुट होना आज की फौरी जरूरत बन चुकी है।


[1] इसके पहले से एकमात्र गोआ राज्य में ‘गोआ सिविल कोड’ मौजूद है जो पुर्तगाली औपनिवेशिक शासकों द्वरा 1870 में लागू किया गया था। हालांकि वह भी महिला-विरोधी प्रावधानों से ग्रसित है। जैसे – अगर किसी हिंदू व्यक्ति की पत्नी का 25 वर्ष तक कोई संतान या 30 वर्ष तक कोई पुत्र नहीं होता है तो उस व्यक्ति को दुबारा शादी करने की अनुमति है।

[2] हिन्दू पर्सनल लॉ को देखें तो उत्तराधिकार के नियम अभी भी पुरुष-प्रधान हैं, जैसे एक महिला की मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति का पहला अधिकार उसके अपने परिवार का नहीं बल्कि उसके पति के परिवार का होता है। बाल विवाह को भी लें तो वह भी हिन्दू विवाह कानून के तहत अवैध नहीं है बल्कि उसे एक अन्य कानून बना कर भारत में अवैध बनाया गया है। वैवाहिक बलात्कार को भी हिन्दू पर्सनल लॉ मान्यता नहीं देता है। इसी तरह इनकम टैक्स एक्ट में भी हिन्दुओं के लिये अविभाजित हिन्दु परिवार (HUF) की विशेष सुविधा दी गई है जो टैक्स चोरी के काम आती है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ में महिलाओं को कुछ अधिकार मिलने के बावजूद कई महिला-विरोधी प्रावधान हैं जैसे बहुपत्नी-विवाह, तीन तलाक (अब रद्द), निकाह-हलाला आदि। उत्तराधिकार, एडॉप्शन, गुजारा भत्ता, विवाह की न्यूनतम उम्र आदि कई अन्यायपूर्ण विसंगतियां हैं जिनको मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कुरान-हदीस के नाम पर पकडे रहने पर बजिद हैं जबकि ये आधुनिक न्याय-समानता के विचार के विपरीत हैं और इनमें से कई चीजों को तो अन्य मुस्लिम देश भी बदल चुके/रहे हैं।

सिखों के आनंद विवाह अधिनियम में तलाक को मान्यता नहीं है। इसाई विवाह अधिनियम के तहत तलाक हो जाने पर भी विवाह चर्च की नजर में समाप्त नहीं हो जाता है। पारसी पर्सनल लॉ में अडॉप्ट हुए पुत्र को उत्तराधिकार का सीमित अधिकार और पुत्री को कोई अधिकार नहीं है। (इनपुट : मुकेश असीम “UCC – एक संक्षिप्त टिप्पणी”)

[3] वरिष्ठ अधिवक्ता संजय घोष, बार एंड बेंच (https://www.barandbench.com/columns/uniform-cut-and-paste-quick-appraisal-uttarakhand-uniform-civil-code-bill)।