पाकिस्तानी शासक वर्ग के तीक्ष्ण अंतर्विरोधों का एकमात्र हल सर्वहारा क्रांति

March 1, 2024 0 By Yatharth

पाकिस्तान में 8 फरवरी को राष्ट्रीय व प्रांतीय असेंबलियों के चुनाव में कयास लगाए जा रहे थे कि इस बार ‘प्रतिष्ठान’ (पाकिस्तान में ‘प्रतिष्ठान’ या ‘establishment’ कहने का संकेत समाज पर बहुत हद तक नियंत्रण रखने वाली फौज होता है) नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग – नून (संक्षेप में नून लीग) को उसी तरह चुनाव जिता कर चौथी बार प्रधानमंत्री बना देगा जैसे उसने 2018 के चुनाव में इमरान खान को जिता कर प्रधानमंत्री बनाया था। विश्लेषकों का मानना था कि पाकिस्तान में चुनाव नहीं, चयन होता है। ऐसी उम्मीद निराधार भी नहीं थी। पिछले 18 महीने से भी अधिक से फौजी चीफ जनरल आसिम मुनीर की पसंद साफ थी। इमरान खान पर बहुत से केस लगाकर उन्हें लंबे समय के लिए जेल भेज चुनाव लड़ने से रोक जा चुका था।  उनकी पार्टी के बहुत से नेता व कार्यकर्ताओं पर दबाव बना उन्हें पार्टी से अलग किया जा चुका था। चुनाव आयोग ने उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ (पीटीआई) को एक पार्टी की तरह चुनाव लड़ने से रोक दिया था और उनके उम्मीदवारों को अपने-अपने चुनाव चिह्न पर निर्दलीय की तरह चुनाव लड़ना पड़ा था। उन्हें पार्टी का चुनाव प्रचार व सभाएं आदि करने से भी जबरन रोका गया था। 

8 फरवरी की शाम को गिनती शुरू हुई तो पीटीआई के निर्दलीय उम्मीदवार बाजी मारते नजर आने लगे। इस पर 10-15% गिनती के बाद ही नतीजे जारी करने में रूकावट आ गई। पाकिस्तानी चुनाव पद्धति में मतदान समाप्ति पश्चात वहीं पर मतों की गिनती की जाती है और मतदान अधिकारी परिणाम वाला फॉर्म 45 बना कर सभी उम्मीदवारों के एजेंटों को प्रति देता है। सारे फॉर्म 45 के आंकड़े जोडकर क्षेत्र रिटरनिंग अफसर अंतिम नतीजा अर्थात फॉर्म 47 तैयार करता है। अतः मतदान पश्चात मध्य रात्रि तक अधिकांश नतीजे आने की संभावना रहती है। किंतु पीटीआई के निर्दलीय उम्मीदवारों के पक्ष में परिणाम आना आरंभ होते ही यह प्रक्रिया बाधित हो गई, फॉर्म 45 जारी करने में टाल मटोल, और जगह जगह पर पीटीआई द्वारा विरोध के समाचार आने लगे। इस धीमी प्रक्रिया में 9 फरवरी तक इनमें से काफी क्षेत्रों में दूसरे उम्मीदवार आगे आने लगे। तीसरे दिन 10 फरवरी को सारे परिणाम आने तक पीटीआई के निर्दलीय सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे।

लेकिन परिणामों में पीछे रही नून लीग के नवाज शरीफ ने विजयी भाषण देकर सरकार बनाने की तैयारी का ऐलान कर डाला। तीसरे नंबर पर रही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो जरदारी ने प्रधानमंत्री पद के लिए सौदेबाजी आरंभ कर दी। आमतौर पर माना जा रहा था कि फौज के संरक्षण में कुछ वैसी ही सरकार फिर से बन जाएगी जैसी चुनाव पूर्व थी। पाकिस्तानी चुनावी व्यवस्था में 60 महिला व 10 अल्पसंख्यक सीटें भी 266 चुनी गई सीटों के नतीजों के अनुपात में पार्टियों को आबंटित की जाती हैं। क्योंकि तकनीकी तौर पर पीटीआई चुनाव में थी ही नहीं, अतः सर्वाधिक सीटों के बावजूद उसे इनमें से एक भी सीट आबंटित नहीं होगी और इसका लाभ भी नून लीग, पीपीपी व एमक्यूएम को मिलेगा। किंतु चुनाव में धांधली की बात फैलने के बाद खडे हुए विरोध ने हालत बदल दी है। अब इन पार्टियों के कुछ नेता सरकार बनाने से बचने की बात कर रहे हैं क्योंकि सरकार चलना मुश्किल नजर आ रहा है।

उधर पीटीआई के समर्थक चुनाव परिणामों में धांधली के इल्जाम लगाते हुए पाकिस्तान के विभिन्न स्थानों पर विरोध कर रहे हैं और लाहौर हाईकोर्ट में बहुत से चुनाव नतीजों को चुनौती दी गई है। पीटीआई 180 सीट पर जीत का दावा कर अपनी ओर से सबूत भी पेश कर रही है। वे खासतौर पर अमरीकी व इंटरनेशनल मीडिया को संबोधित कर रहे हैं कि उनके साथ नाइंसाफी हुई है। कई छोटी पार्टियों सहित कुछ आजाद उम्मीदवार भी उसके सबूतों की पुष्टि कर रहे हैं। उधर नवाज शरीफ की बेटी मरियम औरंगजेब कह रहीं है कि 100 अरब रुपए लगाकर डिजिटल टेररिज्म की साजिश रची गई और फर्जी फार्म 45 बना कर टीवी चैनलों पर चला दिए गए। पर पीटीआई के दावे को युवाओं, स्त्रियों व मध्य वर्ग खासतौर पर शिक्षित पेशेवरों सहित जनता के एक हिस्से की हिमायत मिल गई है। इसका बडा कारण लंबे फौजी नियंत्रण के प्रति अवामी असंतोष और डेढ़ साल के शरीफ शासन के दौरान आईएमएफ कर्ज के लिए लागू की गईं अत्यंत जनविरोधी नीतियां हैं जिनसे जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। 16-17 फरवरी को देश भर में पीटीआई व अन्य दलों ने बड़े विरोध प्रदर्शन किए हैं।

9 मई पश्चात दमन के भय से चुप पीटीआई के बहुत से नेता-कार्यकर्ता भी फिर से खुलकर मैदान में उतर आए हैं, ‘इमरान खान ही पाकिस्तान है’ कहते हुए कहा जा रहा है ‘खान से बात करनी होगी’। किंतु अब पलटते हुए ‘हमारी फौज’ से कोई विरोध न होने की बात की कही जा रही है और अमरीका विरोधी बातें भी छोड दी गई हैं। बुरी तरह हार का सामना करने वालीं तीनों इस्लामी कट्टरपंथी पार्टियां भी पाला बदलने के मूड में हैं। खुद चुनाव हारे मौलाना फ़जलुर्रहमान भी शरीफ खानदान का साथ छोड़ इमरान खान के साथ नाइंसाफी की बात कर रहे हैं। इस सबसे जोश में आई पीटीआई अपनी ‘चुराई गई’ सीटों को वापस लेकर सत्ता में आने का दावा कर रही है।   

इस चुनाव की पृष्ठभूमि और परिणामों से पाकिस्तानी अवाम में पैदा हताशा व उद्विग्नता की स्थिति को समझने हेतु हम यहां मशहूर पाकिस्तानी अर्थशास्त्री आतिफ मियां द्वारा X (ट्विटर) पर लिखी टिप्पणी प्रस्तुत कर रहे हैं –

‘पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था वैश्विक स्तर पर लगातार पिछड़ रही है। पिछला साल सबसे खराब में से एक था, जब अर्थव्यवस्था वास्तव में सिकुड़ रही थी। प्रत्येक वृहद आर्थिक बुनियादी तत्व जैसे मुद्रास्फीति, विकास, ऋण, निवेश – पर लाल बत्ती चमक रही है। संघीय सरकार के पास कोई पैसा नहीं है। बिना उधार लिए वह चपरासी या सिपाही का वेतन भी नहीं दे सकती। संपूर्ण कर राजस्व प्रांतों को उनका हिस्सा, सेवानिवृत्त लोगों को पेंशन और ऋण पर ब्याज का भुगतान करने में ही खर्च हो जाता है। जब पूरी सरकार घाटे में चल रही हो तो मुद्रास्फीति को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। जब सरकार के पास भविष्य में निवेश करने के लिए पैसा नहीं होगा तो विकास असंभव है और विकास की कमी हर समस्या को बदतर बना देती है।

देश दिवालिया हो गया है। यह संकट हर साल और गहराता जा रहा है। मैंने ऐसी निराशा कभी नहीं देखी। बहुत से लोग देश छोड़ जाना चाहते हैं। स्थापित कंपनियां अब निवेश करने में सहज नहीं हैं। फिर भी किसी भी नेता के पास भविष्य के लिए कोई व्यवहार्य आर्थिक योजना नहीं है। पीछे से फैसले लेने वाला संदिग्ध प्रतिष्ठान तो विशेष रूप से अनाड़ी है। एसआईएफसी? … वास्तव में? जब आपके अपने लोग सारी उम्मीदें खो रहे हैं तो आप विदेशियों से देश पर विश्वास करने की उम्मीद करते हैं? 

इसी पृष्ठभूमि में 8 फरवरी को चुनाव हुए। लोग क्रोध से पागल हैं, और उन्हें ऐसा होने का पूरा अधिकार है। पिछले साल ही पाकिस्तान में गरीबी के कारण 442,353 बच्चों की मौत हो गई यानी हर साल लगभग पांच लाख बच्चे मरते हैं लेकिन प्रतिष्ठान अपने सामान्य खेल खेलने में व्यस्त था – इस बार इसे जेल में डालो और उस को संसद में – सिस्टम को इतना अस्थिर रखो कि वे प्रासंगिक बने रहें।  हमारे बच्चे भाड़ में जायें। उन्होंने स्पष्ट रूप से लोगों के गुस्से को भांप लिया था। इसलिए चुनाव में धांधली की हर कार्रवाई की गई – सिवाय इसके कि इसने जनता को और अधिक पागल बना दिया।

तो 8 फरवरी के बाद हम यहां हैं – शासक और शासित के बीच की दूरी कभी इतनी अधिक नहीं रही। क्या वे समझते हैं कि यह कितना खतरनाक है? एक बार फिर जोड़तोड़ से उन्हीं पुराने लोगों को एक कर सरकार बनाने का प्रयास किया जा रहा है। किसी के पास अर्थव्यवस्था को ठीक करने की योजना नहीं है। अगर किसी जादुई ढंग से हुकूमत कायम कर भी लें, तो भी वे कुछ नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने अपने लोगों का सारा भरोसा खो दिया है, वे अपने ही लोगों के बीच परदेशी हैं।’

हालत यह है कि सरमायेदारी निजाम, भूस्वामियों, फौज, सियासी गिरोहों, युद्धों की बरबादी, साम्राज्यवादी दखलंदाजी, विदेशी पूंजी की लूट और कट्टरपंथियों से जूझती पाकिस्तानी मेहनतकश जनता विनाशकारी बाढ़ झेलने के बाद अब कई महीनों से तीक्ष्ण आर्थिक संकट व विदेशी मुद्रा की कमी में आसमान छूती महंगाई, बेरोजगारी, खाद्य वस्तुओं व दवाओं के अभाव का सामना कर रही है। सरमायेदारों के हितों की हिफाजत में पाकिस्तानी शासक व आईएमएफ संकट का सारा बोझ आम जनता पर डाल रहे हैं। आईएमएफ की ‘सलाह’ पर पाकिस्तानी रुपये का भारी अवमूल्यन किया गया है। मगर अमीरों की विलासिता की चीजों का आयात बदस्तूर जारी है। जरूरी चीजों के दाम दो-तीन गुने बढ़ गए हैं। पिछले रमजान के दौरान जकात की खैरात व राशन वितरण के दौरान जरूरतमंदों की लंबी लाइनों की जद्दोजहद में कई मौतें तक हुईं।  

किंतु शासकों को इससे रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता। शरीफ-भुट्टो कुनबों व मौलाना फजलुर्रहमान के नेतृत्व वाला पीडीएम अलायंस जनता की तकलीफों का हल निकालने की जरा भी कोशिश करने के बजाय अपने ऊपर मुकदमों को रद्द करवाने तथा पीटीआई, फौजी जरनैलों, सुप्रीम/हाईकोर्ट जजों व अफसरों के गिरोहों के साथ सत्ता व लूट की होड़ में एक दूसरे के लत्ते फाड़ने के बेरहम खेल में ही लगा रहा। इन सभी गिरोहों का जनता के शोषण, दमन, उत्पीड़न, लूट व दुराचार का लंबा इतिहास है।

इमरान खान भी फौज की मदद से ही हुकूमत में आए थे। मगर फौज से रिश्ते खराब होने के बाद उन्होंने लगातार खुद को पीड़ित के रूप में प्रस्तुत कर संपन्न पाकिस्तानी मध्यवर्ग  व पेशेवर बुद्धिजीवी तबके को ही नहीं, बेरोजगारी व महंगाई से त्रस्त गरीब जनता खास तौर पर निराश नौजवानों को भी अपने पक्ष में कर के उग्र भीड़ जुटाने में कामयाबी पाई है। ऐसा प्रतीत होता है कि पाकिस्तानी शासक तबके व उसके सामाजिक आधार में दोफाड़ हो गया है। दोनों के ही लिए पाकिस्तान का मौजूदा गहन आर्थिक संकट व इससे जनता को होने वाली तकलीफ कोई मुद्दा नहीं है। दोनों ने ही सत्ता में एक दूसरे के साथ क्या-क्या जुल्म किए इसका ही बखान जारी है। याद रहे कि इमरान खान के सत्ता में आने के बाद नवाज शरीफ के परिवार को भी इसी एकाउंटेबिलिटी ब्यूरो की ओर से गिरफ्तारियों का सामना करना पड़ा था। दोनों ही पक्ष लोकतंत्र व जनवादी अधिकारों की दुहाई दे रहे हैं जबकि सत्ता में रहते हुए दोनों ने ही फौजी व सिविल अफसरशाही तथा न्यायपालिका के साथ मिलकर इसी प्रकार अपने विरोधियों का दमन किया है।

9 मई को इमरान खान की गिरफ्तारी के मामले में जिस अल कादिर ट्रस्ट पर भ्रष्टाचार के आरोप मलिक रियाज नामक पाकिस्तान के जिस रियल स्टेट व्यवसायी से संबंधित हैं, पूरा पाकिस्तानी शासक तबका – इमरान खान की पीटीआई, नवाज शरीफ की नून लीग व भुट्टो परिवार की पीपीपी, फौजी व सिविल अफसरशाही, तथा न्यायपालिका – सभी उसके व्यवसाय से जुड़े भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में रहे हैं। ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त जिस 19 करोड़ पाउंड को उसे वापस दिलाने के बदले इमरान खान व उनकी पत्नी के ट्रस्ट ने रियाज से सैंकड़ों एकड़ जमीन व उपहार प्राप्त किए, उसमें से 5 करोड़ पाउंड तो नवाज शरीफ के बेटे हसन नवाज को ही वापस करने पड़े थे जो कुछ सौदों के बदले उन्हें रियाज से मिले थे। यह 19 करोड़ पाउंड वापस लाने के बदले रियाज की कंपनी बहरिया टाउन पर पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट का 460 अरब रुपये (3 अरब डॉलर) जुर्माना इमरान सरकार ने माफ करवाया। कराची में उस प्रोजेक्ट के लिए 20 हजार एकड़ जमीन कब्जाने में सिंध की पीपीपी सरकार ने मदद की थी। जमीन खाली करने हेतु कराची पुलिस ने भारी दमन और फर्जी मुठभेड़ें तक की थीं। उसकी मदद करने में कई फौजी अफसर भी शामिल थे, जिन्हें खुद या उनके करीबियों को रियाज ने नौकरियां भी दीं। इस प्रोजेक्ट में होने वाले 2500 प्रतिशत मुनाफे में पाकिस्तानी शासक तबके का हर धड़ा, पार्टी व संस्थाएं शामिल थे।

साफ है कि मौजूदा टकराव पाकिस्तानी शासक वर्ग के धड़ों का आपसी टकराव है जिसमें जनहित के किसी सवाल का जिक्र तक नहीं है। इसके बावजूद इमरान खान अपने पक्ष में इतना जनसमर्थन जुटाने में कामयाब हो गए हैं कि सेना व शरीफ-भुट्टो गठबंधन को उनसे निपटने में मुश्किल आ रही है। इस स्थिति को समझने के लिए हमें पाकिस्तानी सत्ता के ढांचे और उसमें फौज की भूमिका की ऐतिहासिक समझ की जरूरत है।

पाकिस्तानी सत्ता के ढांचे व फौजी प्रभुत्व को समझने के लिए इसे पाकिस्तान निर्माण में जमींदारो की भूमिका व भूमि सुधार के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। भारत के साथ तुलना करें तो 1947 में भारत में राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग सत्ता में आया। उसने सामंती भूस्वामियों के शोषण से मुक्ति चाहने वाली जनता के साथ किए गए वादों को धता बताकर सामंती भूस्वामियों-जमींदारों को अपनी जमीनों को हरमुमकिन हद तक बचाने का मौका देते हुए बहुत सीमित औपचारिक भूमि सुधार किए। बाद में हरित क्रांति के जरिये इन भूस्वामियों ने अधिकांशतः खुद को पूंजीवादी फार्मरों में तब्दील कर लिया। यहां औपनिवेशिक दौर का भूस्वामी वर्ग बस अपने हितों की सुरक्षा व रियायत हासिल कर रहा था। वह पूंजीपति वर्ग की सत्ता को चुनौती पेश नहीं कर रहा था। पूंजीपति वर्ग की कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में ही भारत में मौजूदा संवैधानिक जनतंत्र कायम हुआ और राजनीति में फौज की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं रही।

इसके उलट पाकिस्तान के निर्माण की वास्तविक बुनियाद ही ब्रिटिश पंजाब में औपनिवेशिक सत्ता का आधार रही। जागीरदारों-जमींदारों की यूनियनिस्ट पार्टी में फूट पड़ने के बाद 1937 में मुस्लिम जागीरदारों के नेता सिकंदर हयात खान और मोहम्मद अली जिन्ना के बीच हुआ मशहूर लाहौर समझौता था। कांग्रेस नेतृत्व के साथ जिन्ना के नेतृत्व वाले मुस्लिम मध्यवर्ग का सांप्रदायिक द्वंद्व पहले हो चुका था, लेकिन मुस्लिम लीग वास्तविक ताकत तभी बनी जब पंजाब, उत्तर भारत व बंगाल के मुस्लिम सामंती भूस्वामी भूमि सुधारों को कांग्रेस के वाम धडे द्वारा समर्थन के भय से अलग देश की मांग पर मुस्लिम लीग के साथ आ गए। लाहौर समझौते के बाद पंजाब के सबसे बड़े जमींदार शाहनवाज ममडोट पंजाब मुस्लिम लीग के प्रधान बने। हिंदू-सिक्ख व मुस्लिम जमींदारों में इस विभाजन ने ही पंजाब में सांप्रदायिक राजनीति की नींव डाली।

पूर्वी बंगाल में कुछ हद तक संपन्न मालिक किसानों का एक वर्ग बन चुका था, जिसने कृषक प्रजा पार्टी के रूप में जमींदारी को चुनौती पेश की थी। 1928 में ही उसने बंगाल में जमीदारों के अधिकारों में कटौती करवाने में सफलता प्राप्त की थी। मगर ब्रिटिश सरकार द्वारा नहरी सिंचाई और उपजाऊ भूमि वाले पश्चिम पंजाब में जमींदारों को पूंजीपति फार्मर बनाने की योजना के अंतर्गत उन्हें और भी अधिक जमीनें आवंटित की गई थीं। इन जमींदारों का पश्चिमी पंजाब के सामाजिक जीवन पर पूर्ण प्रभुत्व था और इनमें धार्मिक जमींदार (पीर व सज्जादानशीन) भी शामिल थे। नवनिर्मित पाकिस्तान में सत्ता के औपचारिक प्रधान के तौर पर कमजोर बुर्जुआ व मध्यवर्ग के प्रतिनिधि मोहम्मद अली जिन्ना थे मगर सत्ता की वास्तविक शक्ति लियाकत अली खां, साहिबजादा इस्कंदर मिर्जा, आदि के नेतृत्व में बडे भूस्वामी जागीरदारों के हाथ में थी। उभरता पूंजीपति व मध्यवर्ग एक संवैधानिक जनतंत्र की आकांक्षा रखते थे और किसान भूमि सुधार चाहते थे, पर यह भूस्वामी तबके से सत्ता दखल करने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली नहीं थे। भूस्वामी तबका पाकिस्तानी शासन तंत्र के जनवादीकरण और भूमि सुधारों को कतई स्वीकार नहीं करता था। अतः पाकिस्तान की संविधान सभा सात साल में भी संविधान नहीं बना पाने पर भंग करनी पड़ी। बाद में बांग्लादेश की अलग राष्ट्र की आकांक्षा प्रकट होने में यह भी एक अहम कारण था।

1951 के चुनावों में पंजाब में 80 प्रतिशत जमींदार ही चुन कर आए थे। इसके बाद के वर्षों में वहां फिरोजशाह नून, खिजर हयात तिवाना व दौलताना जैसे बड़े जमींदारों ने मुस्लिम लीग की सरकार चलाई। इन्होंने भूमि सुधार के बजाय हिंदू-सिक्ख पलायन से खाली हुई 70 लाख एकड़ व सिंचाई के विस्तार से बनी नई सिंचित कृषि भूमि को भारत से गए मुस्लिम शरणार्थियों के बजाय अपने करीबी जमींदारों को ही अधिक आवंटित किया। 

दूसरी संविधान सभा ने 1958 में जो संविधान बनाया वह बंगाल तथा हिंदू अल्पसंख्यक दलों को स्वीकार्य नहीं था। इन स्थितियों के चलते पाकिस्तानी समाज में गहरे अंतर्विरोध खड़े हो गए थे। अतः इन राजनेताओं द्वारा पैदा की गई अस्थिरता का बहाना लेकर फौज ने सत्ता संभाली और संविधान भंग कर दिया। ध्यान देने की बात है कि फौजी अफसरशाही हमेशा से भूस्वामी तबके से ही आती है। 1947 तक सामंती भूस्वामी ही फौज में अफसर हो सकते थे। अभी भी अधिकांश उसी पारिवारिक पृष्ठभूमि से हैं। जनरल अयूब खान के फौजी शासन ने जनतांत्रिक स्वीकार्यता हासिल करने के लिए जो ‘बेसिक डेमोक्रेसी’ स्थापित की उसमें इलेक्टरल कॉलेज आधारित पार्टीविहीन चुनाव कराए गए। इसमें मजबूत आर्थिक-सामाजिक हैसियत वाले प्रभुत्वशाली भूस्वामी ही चुने जाने की स्थिति में थे। यह तबका ही लगभग डेढ़ दशक के फौजी शासन का आधार था।

भूस्वामी तबके से ही आने वाली फौजी व सिविल अफसरशाही भी अपनी जमीनों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी, पर किसानों के असंतोष को शांत करने के लिए अयूब खान शासन में (1958) दिखावटी (500 एकड़ सिंचित भूमि और 1,000 एकड़ असिंचित भूमि लैंड सीलिंग) भूमि सुधार किए गए। इसमें भी बगीचों, शामिलात, आदि की छूट दी गई। अर्थात भूस्वामियों को अपनी जमीनें बचाने की पूरी छूट मिली। फौजी शासन में जमींदारों, फौज व सिविल अफसरों तथा राजनेताओं का गठबंधन और मजबूत हुआ। इन सभी को सैकड़ों एकड़ जमीन आवंटित की गई। जनरलों को भी 20-60 रुपये एकड़ की रियायती दर पर ढाई-ढाई सौ एकड़ जमीनें दी गईं। 1968 में पंजाब असेंबली में सरकार ने बताया कि एक लाख पांच हजार एकड़ जमीन फौजी-सिविल अफसरों व मंत्रियों-विधायकों (सभी पहले ही भूस्वामी तबके से थे) को आवंटित की गईं। गैरकानूनी कब्जे, जालसाजी, वगैरह की भी कमी नहीं थी। ऐसे उदाहरण भी सामने आए कि बाढ़ में उजड़ने वाले शरणार्थी किसान वापस आए तो बहुत सी जमीनों पर जमींदारों-अफसरों के कब्जे में पाया। खुद को भूमि सुधार के चैम्पियन बतौर पेश करने वाले जेड ए भुट्टो पर ही पटवारी के जरिये 500 एकड़ जमीन हड़पने का आरोप लगा।

संक्षेप में, पहले ढाई दशक में ही पाकिस्तान में जमींदारों, नेताओं, सिविल व फौजी अफसरों के परस्पर गठजोड़ वाला एक शासक तबका तैयार हो चुका था। अयूब खान शासन में इन्हें हरित क्रांति के भी सारे लाभ मिले जिससे इन्हीं में से एक अमीर फार्मर व उद्योगपति-कारोबारी तबका भी उभरा। यह छोटा शीर्ष तबका परस्पर अहसानों, पुराने नातों व वैवाहिक बंधनों आदि से भी जुड़ा हुआ था। पंजाब (व सिंध) के ये कुछ अमीर परिवार ही आज तक भी पीढ़ी दर पीढ़ी पाकिस्तानी राजनीति, व्यवसाय, फ़ौज व सिविल अफसरशाही में प्रभावशाली बने हुए हैं। पाकिस्तान की तीनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों व धार्मिक जमातों के नेता भी इसी छोटे तबके से आते हैं। पाकिस्तानी समाज के शीर्ष पर बैठा फौजी-नागरिक अफसरशाही, पूंजीपति, नेता, भूस्वामी गठजोड़ अपने इस भ्रष्ट तंत्र को बचाने हेतु वहां जनतंत्र की सभी आकांक्षाओं को कुचलता आया है, हालांकि जन-असंतोष को कुचलने के लिए निर्वाचित सरकारें भी आती रहीं पर नेशनल असेंबली में इसी गठजोड़ का नियंत्रण रहा है। अगर निर्वाचित सरकारों के समय में वास्तविक जनतंत्र की मांग ने जोर पकड़ा तो फौज मार्शल लॉ लगाकर सत्ता अपने हाथ में लेती रही है।     

1971 के युद्ध बाद फौज को सत्ता छोड़नी पड़ी। पहले फौजी हुकूमत में मंत्री रहे, मगर बाद में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी बनाकर फौजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन को नेतृत्व देने वाले बडे भूस्वामी जुल्फिकार अली भुट्टो सत्ता में आए।  भुट्टो ने खुद को भूमिहीन-बँटाईदार किसानों, मजदूरों, मध्य वर्ग के बुद्धिजीवी पेशेवरों आदि के सुधारक के तौर पर प्रस्तुत किया। भुट्टो सरकार ने कुछ उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया और भूमि सुधारों का कार्यक्रम भी लिया। उसने अपने सामाजिक आधार गरीब भूमिहीन किसान मजदूरों को संतुष्ट करने हेतु औपचारिक भूमि सुधार किए। 1972 में लैंड सीलिंग को 150 व 300 एकड़ किया गया और 1977 में इसे 100 व 200 एकड़ कर दिया गया, लेकिन कानून के बावजूद भूस्वामियों व अफसरशाही के दबाव तथा राजस्व विभाग के पटवारियों के संगठित असहयोग से भूमि सुधार आंशिक ही लागू हुए। फिर भी यह भूस्वामी वर्ग व फौजी-सिविल अफसरशाही पीपुल्स पार्टी से बेहद रुष्ट थी और भुट्टो को इसकी सजा अपनी सत्ता और जान दोनों देकर चुकानी पड़ी।

जिया उल हक के नेतृत्व में फौजी अफसरों और इस्लामिक कट्टरपंथियों ने भुट्टो का तख्ता पलट दिया। इस फौजी शासन का सामाजिक आधार भी पंजाबी भूस्वामी तबका ही था। जिया शासन ने सीलिंग से अधिक जब्त की गई जमीनों को लीज पर उनके पुराने मालिक जमींदारों को वापस कर दिया। फौजी शासन द्वारा स्थापित शरई अपीली अदालत ने गैर-इस्लामी करार दे भूमि सुधार कानून रद्द कर दिए। शरई अदालत के मुताबिक सारी संपत्ति अल्लाह की है और अल्लाह ने जिसे दी है उसका इस पर पूर्ण अधिकार है। राज्य इसमें दखल नहीं दे सकता। इस प्रकार पाकिस्तान में भूमि सुधार पूरी तरह खत्म कर पुराने सामंती भूस्वामी जमीनों के मालिक बने रहे। यही भूस्वामी अभिजात वर्ग और इससे जुड़ी अफसरशाही व पूंजीपति ही आज तक पाकिस्तानी सत्ता तंत्र के हर हिस्से पर अपना दखल कायम किए हुए है। जनरल जिया के बाद जनरल मुशर्रफ के फौजी शासन ने भी इसी पंजाबी भूस्वामी तबके को अपने शासन का आधार बनाया। इसका ही परिणाम है कि आज भी पाकिस्तान में भू मालिकाने में भारी संकेंद्रण है और वहां की कृषि जनगणना के मुताबिक 10% फार्म मालिक 56% कृषि भूमि के स्वामी हैं।

इस यथास्थिति को तोड़ा है लगातार जारी वैश्विक आर्थिक संकट ने जिससे बहुत से देशों में वित्तीय संकट पैदा हो गया है। निर्यात मुश्किल हो गए हैं। श्रमिकों का निर्यात व उनके द्वारा भेजी गई विदेशी मुद्रा पाकिस्तान के लिए अहम थी। श्रीलंका की तरह पाकिस्तान में भी इस विदेशी मुद्रा का आना कम हो गया है। अस्थिरता व आतंकवाद की वजह से पर्यटन आय समाप्त हो गई है। किंतु शासक वर्ग लग्जरी आयात कम करने के लिए तैयार नहीं है। विदेशी मुद्रा का संकट अत्यंत गंभीर है। जिओ पॉलिटिक्स में पाकिस्तान के घटे महत्व की वजह से आईएमएफ भी लंबी वार्ताओं के बावजूद कर्ज नहीं डे रहा है। अमरीकी खेमे में शामिल होने से पाकिस्तान को बड़ी आर्थिक व सैन्य मदद मिलती रही है। यह मदद भी शासक तबके द्वारा हजम की जाती रही है। परंतु अब अमेरिकी खेमे के लिए पाकिस्तान का महत्व घट गया है और भारतीय पूंजीपति वर्ग के साथ रणनीतिक निकटता बढ़ी है। इससे पाकिस्तान को सैन्य व नागरिक आर्थिक सहायता लगभग बंद हो गई है। यह भी संकट की तीव्रता का एक कारण है।  

इन संकटों ने शीर्ष पर काबिज गठजोड़ के बीच अंतर्विरोध तीक्ष्ण कर दिए हैं। नई स्थितियों में सभी के हित पूरे करना असंभव है। इससे बने परस्पर विरोधी धड़ों में फौज-सिविल अफसर, उद्योगपति, भूस्वामी, नेता सभी शामिल हैं। ये सभी इस भ्रष्ट तंत्र में शामिल हैं जिसमें भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर एक दूसरे के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं। इन्हीं अंतर्विरोधों की वजह से सत्ता के लिए रोज नए समीकरण व गलाकाट होड जारी है। मुशर्रफ शासन के बाद से इस प्रक्रिया को लगातार तीव्र होते हुए देखा जा सकता है।

इसी तबके से आने वाले इमरान खान सघन प्रचार व भाषणों से खुद को बतौर पीड़ित प्रस्तुत कर रहे हैं। उन्होंने खुद को संपन्न पाकिस्तानी उच्च व मध्य वर्ग, अनिवासी पाकिस्तानियों, बुद्धिजीवी पेशेवरों की नजर में एक ‘नए पाकिस्तान’ की आकांक्षाओं के प्रतीक बतौर पेश किया है। नरेंद्र मोदी के ’60 साल में कुछ नहीं हुआ’ की तर्ज पर लंबे समय तक शासन करने वाली फौज तथा शरीफ-भुट्टो परिवारों को पाकिस्तानी जनता की तकलीफों का जिम्मेदार ठहराते हुए इमरान खान खुद को मुक्तिदाता की तरह पेश करते हैं। हालांकि उनकी अपनी कोई जनपक्षधर नीति नहीं है, न ही उनके तीन साल के कार्यकाल में कोई ऐसा सुधार हुआ। त्रस्त जनता को वे बता रहे हैं कि उन्होंने बहुत कोशिश की पर निहित स्वार्थों ने उन्हें काम ही नहीं करने दिया। खुद को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी के रूप में पेश करने हेतु पीटीआई अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस तक राष्ट्र गान से शुरू कर रही है।

पहले उन्होंने खुद को हटाए जाने के लिए अमेरिकी दबाव का इल्जाम लगाया क्योंकि वे स्वतंत्र विदेश नीति अपना रहे थे। अब अमरीका का जिक्र तक बंद है। फौज से भी उनका विरोध यही है कि उन्हें फौज के नेतृत्व में अपनी पसंद के अफसर चाहिए। वे खुद को ‘शहीद’ के रूप में पेश कर रहे हैं। इमरान खान ‘नया पाकिस्तान’ का भ्रामक सपना दिखाकर एक लोकरंजक दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी आंदोलन खड़ा करने में सफल रहे हैं। पर इस आंदोलन के पीछे कोई स्पष्ट वैचारिकी मौजूद नहीं है। इमरान खान की लोकप्रियता ही इसका आधार है। इनकी सभाओं के विडिओ देखें तो इनमें इमरान खान के बारे में ‘The Khan’ और ‘खान बोलता है’ या ‘खान चाहता है’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। यह भी संभव है कि फौज के साथ उनका गठजोड़ फिर से बन जाए। इमरान तात्कालिक लाभ के लिए जनतंत्र की बातें जरूर कर रहे हैं पर जारी टकराव दो प्रतिक्रियावादी शासक वर्गीय शक्तियों का द्वंद्व ही है। शासक वर्ग के इस परस्पर संघर्ष में मेहनतकश अवाम के हित की बात कहीं मौजूद नहीं है। इसके बजाय मेहनतकश अवाम के लिए पाकिस्तान के मौजूदा सरमायेदारी निजाम, जिसमें बड़े भूस्वामी-सरमायेदार हावी हैं, का उन्मूलन ही एकमात्र वास्तविक विकल्प है। इसके लिए पाकिस्तानी मजदूर वर्ग व समस्त मेहनतकश जनता की शक्तियों को अपना क्रांतिकारी कार्यक्रम पेश करते हुए हस्तक्षेप करना और खुद को वास्तविक विकल्प के रूप में पेश करना होगा।