दिल्ली के अलीपुर फैक्ट्री अग्निकांड में 10 मजदूरों की मौत

May 4, 2024 0 By Yatharth

–     फ्रेडरिक एंगेल्स (इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा, 1845)

सारांश

15 फरवरी 2024 को उत्तरी दिल्ली के अलीपुर इलाके में एक पेंट उत्पादन फैक्ट्री में भीषण आग लग गई जिसने उस समय अंदर मौजूद सभी 11 लोगों की जान ले ली। इसमें फैक्ट्री के 10 मजदूर (हेल्पर्स और स्टाफ) और फैक्ट्री मालिक अशोक जैन शामिल हैं।[1] गौरतलब है कि फैक्ट्री अवैध रूप से एक रिहायशी इलाके में कई सालों से चल रही थी जो कि गैर-कानूनी है।

आग जल्द ही आसपास की लगभग 15 अन्य इमारतों में भी फैल गई, जिनमें से कम से कम 7 गंभीर रूप से जल गए। आग करीब शाम 5:30 बजे लगी और 45 मिनट बाद करीब 22 दमकल वाहन वहां पहुंच गईं जिन्हें आग बुझाने में करीब 12 घंटे लग गए। इस दौरान नालियों के माध्यम से, जिनमें फैक्ट्री से पेंट थिनर और अपशिष्ट रसायन नियमित रूप से बहाए जाते थे, आग अन्य घरों तक भी पहुंच गई जिससे 3 स्थानीय लोग और 1 पुलिस अधिकारी घायल भी हुए और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। हालांकि उनमें से किसी को भी गंभीर चोट नहीं आई और अगले दिन उन्हें छुट्टी दे दी गई।

दुर्घटना के बाद पुलिस ने सह मालिक अखिल जैन और जमीन की मालकिन राजरानी को भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (गैर इरादतन हत्या) के तहत गिरफ्तार कर लिया है। 16 फरवरी को दिल्ली मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने घटनास्थल का दौरा किया और मृतकों के परिवारों के लिए 10 लाख रुपये और घायल व्यक्तियों के लिए 2 लाख रुपये की मुआवजा राशि की घोषणा की।

19 फरवरी को 6 ट्रेड यूनियन व मजदूर संगठन (इंकलाबी मजदूर केंद्र, इफ्टू सर्वहारा, मजदूर एकता केंद्र, टीयूसीआई, एआईएफटीयू न्यू, वर्कर्स यूनिटी) के प्रतिनिधियों ने घटना का तथ्यान्वेषण, प्रत्यक्ष अवलोकन और स्थानीय लोगों से बातचीत करने के लिए अलीपुर का दौरा किया। 21 फरवरी को इसका एक छोटा समूह दुबारा घटनास्थल पर गया, आपदा से संबंधित स्थानीय नैरेटिव और भिन्न सामाजिक तबकों के बीच ऐसी घटनाओं में ‘अपराध’ और ‘दोष’ जैसे विचारों का मानचित्रण करने के लिए। इस रिपोर्ट को उपरोक्त दौरों से प्राप्त टिप्पणियों व विमर्श के साथ-साथ मीडिया रिपोर्टों और पुलिस प्राथमिकी में मौजूद जानकारी के मिश्रण का उपयोग करके संकलित किया गया है।

जमीनी अवलोकन व स्थानीय जनता से बातचीत

जिस पेंट फैक्ट्री में आग लगी थी, उसका नाम ‘ओम संस पेंट एंड केमिकल्स’ है, जो अलीपुर के दयाल मार्केट में मेन रोड से थोड़ी दूर एक संकरी गली में स्थित थी। हमारे पहुंचने पर घटनास्थल पर थोड़ी ही भीड़ थी। फैक्ट्री पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी थी और उसकी 100 गज की जमीन मलबे और रसायन से भरी पड़ी थी। अगल-बगल की कुछ इमारतें भी बुरी तरह जल चुकी थीं, और हवा रसायनों की तेज़ गंध से भरी थी। 2 जेसीबी मशीनें मलबा उठाने में कार्यरत थीं। आसपास की अन्य इमारतें भी दिखने में काली पड़ गई थीं लेकिन गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त नहीं थीं। लोग उनके अंदर रह रहे थे। पुलिस के अनुसार शुरुआती चिंगारी परिसर के अंदर चल रहे वेल्डिंग कार्य के कारण उठी थी। साइट पर बड़ी मात्रा में ज्वलनशील तरल पदार्थ मौजूद होने का मतलब था कि पूरी जगह तेजी से आग की लपटों में घिर गई, और पेंट व रासायनिक पदार्थों से भरे ड्रम फटने से एक श्रृंखला में कई ‘विस्फोट’ भी हुए। पुलिस एफआईआर में उल्लिखित है कि आग फैक्ट्री के गेट के पास लगी थी और कोई अलग निकास नहीं होने के कारण अंदर फंसे लोगों का बचना असंभव हो गया। पूरी तरह जल चुकी इमारतों में ‘टर्निंग पॉइंट’ नामक एक नशा मुक्ति केंद्र और दो अन्य दुकानें – एक सैलून और एक कांच की दुकान, तथा 4-5 अन्य आवासीय इमारतें शामिल हैं।

शुरुआती हिचकिचाहट के बाद मौजूद स्थानीय लोगों से आए वक्तव्य रोष से भरे थे, परंतु यह रोष सरकार या प्रशासन की लापरवाही व मिलीभगत के खिलाफ कम और घटना के दौरान मौजूद जनता और उसकी निष्क्रियता पर अधिक केंद्रित था। हालांकि सरकार द्वारा अब तक की गई कार्रवाई के बारे में पूछे जाने पर लोगों का गुस्सा दिल्ली मुख्यमंत्री के खिलाफ भी उठता दिखा, जिनके अनुसार मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा घटनाक्रम के बाद अलीपुर आना और महज 10 लाख मुआवजे की घोषणा करना जान-माल के नुकसान पर कोई गंभीर या ठोस प्रयास से ज्यादा घटना का एक मीडिया अवसर के रूप में इस्तेमाल किया जाना था। इसपर एक स्थानीय व्यक्ति ने कहा कि: “अगर उस दिन हम मीडिया को आने से रोक देते, तो कसम से, केजरीवाल को ये भी पता ही नहीं होता कि अलीपुर है कहां।”

दमकल वाहनों को घटनास्थल पहुंचने में लगभग 45 मिनट से एक घंटे तक का समय लग गया। संकरी गलियों और लोगों की भीड़ के कारण उनका प्रवेश अधिक बाधित हुआ। पुलिस उसके पहले पहुंच गई थी। हालांकि निवासियों ने ही बताया कि स्थानीय लोगों ने ही ज्यादातर एक-दूसरे को बचाने का काम किया था। हमारे दौरे के दौरान मौजूद टर्निंग पॉइंट (नशा मुक्ति एनजीओ) के कार्यकर्ताओं ने बताया कि कैसे कारखाने से निकलने वाली आग की लपटों के कारण एनजीओ की इमारत में तुरंत आग लग गई। इसके बाद उन्होंने विस्फोटों की एक श्रृंखला सुनी जो पेंट और/या रसायनों से भरे ड्रम फटने के कारण पैदा हुए थे। सभी तरफ से फंस कर वे अंततः इमारत की छत पर चढ़े, जहां से पड़ोसियों ने लोहे के तारों को किसी तरह काटा और उन्हें दूसरी इमारत की छत पर चढ़ने में मदद की जिसके बाद ही वे बच निकल पाए। उनमें से एक फिर धुएं के कारण बेहोश हो गया और उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। पड़ोस में रहने वाली दो महिलाएं (मां और बेटी) भी चारों ओर धुएं से बेहोश हो गई थीं। पड़ोसियों ने ही उन्हें अपनी जान दांव पर लगाते हुए घर में घुस कर किसी तरह बचाया, और फिर अस्पताल में भर्ती कराया। ये तीनों जल्द ही ठीक हो गए और अगले दिन उन्हें अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया।

‘द हिंदू’ की खबर के अनुसार यह फैक्ट्री 2017 से चालू थी, पुलिस चार्जशीट के अनुसार करीब 20 साल पहले से। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में कहा गया है कि फैक्ट्री के अंदर पेंट निर्माण और पैकेजिंग के साथ-साथ स्टील रैक की वेल्डिंग भी हो रही थी। हालांकि जिन लोगों से हमने बात की, उनमें फैक्ट्री और इसके संचालन को लेकर ज्यादातर अस्पष्टता थी। आग लगने से पहले बहुत से लोगों को इस बात की भी स्पष्ट जानकारी नहीं थी कि अंदर क्या बन रहा है। “उसका गेट कभी नहीं खुलता था, जब माल आता था, तब ही खुलता था,” एक चाय वाले ने कहा। ‘गूगल मैप्स’ के माध्यम से हमें कारखाने की एक पुरानी तस्वीर मिली (2022 में खींची गई) जिससे पता चलता है कि इमारत में किसी भी साइनबोर्ड या स्पष्ट चिन्ह का अभाव था जिससे पहचाना जा सके कि यह एक औद्योगिक इकाई है। हालांकि इंडियन एक्सप्रेस के एक अन्य लेख में कहा गया है कि आग लगने से दो साल पहले ही स्थानीय निवासियों ने फैक्ट्री से निकल रहे रसायनों के कारण भर जा रहीं नालियों की शिकायत स्थानीय अधिकारियों को सौंपी थी। जैसा कि जाहिर है, शिकायत के बावजूद फैक्ट्री चलती रही।

दूसरे दौरे में हमने कारखाने के आसपास के क्षेत्र का मुआयना किया जिसमें अलीपुर के आवासीय इलाकों के बीच स्थित कई अन्य उद्योग भी देखने को मिले। बाहर से यह पहचानना मुश्किल था कि ये गोदाम थे या उत्पादन इकाइयां, क्योंकि वे सभी ऊंची दीवार या लोहे के गेट से छिपे हुए थे। कुछ स्थानीय लोगों ने कहा कि जली हुई फैक्ट्री के अलावा उन्हें क्षेत्र में किसी अन्य रासायनिक/खतरनाक फैक्ट्री के बारे में जानकारी नहीं थी। हालांकि कई लोगों ने आसपास के क्षेत्र में हाल ही में हुई अन्य आग की घटनाओं का जिक्र किया, जिनमें से एक इस घटना से एक सप्ताह पहले ही अलीपुर के बाहरी इलाके में एक जूता फैक्ट्री में हुई थी। एक स्थानीय व्यक्ति के अनुसार वह आग और भी विशाल थी, फिर भी इसने मीडिया का ध्यान आकर्षित नहीं किया क्योंकि घटना में कोई जान हानि नहीं हुई थी। वर्तमान घटना से कुछ हफ्ते बाद, होली के दिन (25 मार्च), अलीपुर के बुद्धपुर इलाके में लगभग 4 गोदामों में भी भीषण आग लग गई। संयोग से होली की छुट्टी से मजदूर-कर्मचारियों की अनुपस्थिति के कारण कोई जान हानि नहीं हुई।

अगर लोगों की जान जाने की वजह से अलीपुर, जो कि दिल्ली के बाहरी उत्तरी क्षेत्र का एक ‘अज्ञात’ इलाका था, अचानक मीडिया और नेताओं को दिखाई देने लगा, तो यह भी गौरतलब है कि हमारे दौरे के दौरान इन जिंदगियों का बमुश्किल कोई जिक्र हुआ। जहां मध्य वर्ग के स्थानीय निवासियों के वक्तव्यों में हमें संपत्ति का नुकसान झेलने वाले लोगों से सहानुभूति और मीडिया व बाकी जनता पर गुस्से की कई अभिव्यक्तियां देखने को मिलीं, वहीं अपनी जान गंवाने वाले मजदूरों की खबर पर लगभग सन्नाटा पसरा हुआ था। पुलिस प्राथमिकी के अनुसार अधिकांश मजदूर उत्तर प्रदेश से आए प्रवासी मजदूर थे। इलाके में मिले अन्य मजदूरों की तरह वे भी संभवतः अलीपुर में किराए पर रह रहे थे, ज्यादातर अपने परिवारों के बिना। हम केवल एक या दो दुकानदारों से मिले जिन्होंने बताया कि वे दोपहर में लंच ब्रेक के दौरान उन मजदूरों के साथ बातचीत किया करते थे, जब वे बीड़ी, गुटका आदि खरीदने उनकी दुकानों पर आते थे। हालांकि व्यक्तिगत स्तर पर उन मृत मजदूरों को शायद ही कोई जानता था।

मुआवजे के सवाल पर भी लोगों का सरकार के वादों पर कोई भरोसा नहीं दिखा। सबसे पहले तो एक परिवार से एकमात्र कमाने वाले जवान सदस्य की मृत्यु की भरपाई पैसे से नहीं की जा सकती, परंतु ऐसी मृत्यु के बाद एक असहाय परिवार की सहायता हेतु जो राशि की घोषणा दिल्ली मुख्यमंत्री द्वारा हुई (मृतकों के परिवारों के लिए ₹10 लाख और घायल व्यक्तियों के लिए ₹2 लाख तक) वह आज की परिस्थिति में बेहद अपर्याप्त है। दूसरा, मुआवजा राशि मुख्यमंत्री द्वारा घोषित हो जाने और मीडिया चैनलों में यह प्रकाशित हो जाने के बावजूद उन्हें पता था कि वास्तविकता कुछ और ही होने वाली है। “कुछ नहीं होने वाला”, यही मुआवजे के सवाल पर सबसे आम प्रतिक्रिया थी। लोगों को ऐसा क्यों महसूस हुआ, इसमें राज्य की नौकरशाही के साथ मिले अब तक के अनुभवों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कोविड महामारी के दौरान ‘वाउचर’ का वितरण लेकिन उससे कोई मुआवजा राशि अब तक नहीं आना, लोगों के जहन में एक ताजा उदाहरण था। हेयर सैलून (जो अब पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है) चलाने वाले व्यक्ति के लिए मुआवजे को लेकर यह प्रश्न मुख्य था कि वह अपना समय प्रशासनिक कार्रवाई को लागू करवाने में लगाए या फिर अपना व परिवार का पेट पालने और नुकसान की भरपाई करने हेतु नया काम ढूंढे। “बार-बार चक्कर काटने पड़ेंगे”, उसने कहा।

अलीपुर के दूसरे दौरे में हमारी मुलाकात घटनास्थल से कुछ ही दूर रहने वाली कुछ महिलाओं से हुई। हालांकि इस आग का उन पर कोई सीधा प्रभाव नहीं पड़ा था, लेकिन इस घटना ने उन्हें अपने आसपास आग के खतरों के प्रति अधिक सतर्क कर दिया। इसका मुख्य कारण था उनकी गली के ठीक पीछे स्थित एक इमारत, जिसके बारे में उन्हें संदेह था कि यह भी एक रासायन/पेंट फैक्ट्री ही है। उन्होंने बताया कि इस इमारत से अकसर काला धुआं निकलता है और इसका वेस्ट उत्पाद स्थानीय नालियों में लगातार छोड़ा जाता है जिससे नाली का पानी हरा और दुर्गंधयुक्त हो गया है। आग की वर्तमान घटना के बाद ही उनमें से एक महिला ने इस इमारत के अंदर की विडियो बनाई जिससे रासायनिक उत्पाद की उपस्थिति (ड्रमों में) को लेकर उनका शक सही प्रतीत होता है। यह स्पष्ट नहीं है कि यह उत्पादन इकाई है या भंडारण इकाई। महिलाओं ने इस चिंता को व्यक्ति किया कि “उसमें आग लगेगी तो सबसे पहले हमारे घर ही जलेंगे”। यदि आग लगती है, तो उनके अनुसार आसपास के प्लास्टिक व जूट के गोदामों की वजह से इसके फैलने में भी मदद मिलेगी। पुनः बता दें कि ये सारी फैक्ट्रियां व गोदाम एक आवासीय इलाके में स्थित हैं जो कि बेहद खतरनाक होने के साथ गैर-कानूनी भी है।

यह उल्लेखनीय है कि जिस महिला ने पड़ोस की फैक्ट्री/वेयरहाउस में जांच की पहल ली थी, उसने यह करने के पहले अधिक सावधानी बरतने की भावना व्यक्त की जिसका कारण उसने अपनी मुस्लिम पहचान और “परदेसी आदमी” होने को ठहराया। चूंकि वे हाल ही में उत्तर प्रदेश से यहां आये हैं तो, उनके अनुसार, उनकी बात उन लोगों की तुलना में कम महत्व रखती है जो लंबे समय से इस इलाके में रह रहे थे। इन स्थानीय लोगों के पास आमतौर पर यहां अपने मकान हैं, जबकि वह और उसकी गली के अन्य लोग किराए पर रहते हैं। उन्होंने बताया कि कैसे महिलाओं को उपरोक्त पहल हेतु एकजुट करने के उनके प्रयासों के दौरान कुछ लोगों ने उन्हें ‘ज्यादा आवाज नहीं उठाने’ की चेतावनी/सलाह दी थी, वर्तमान राजनीतिक माहौल का हवाला देते हुए जिसमें उन पर ‘लोगों को भड़काने’ का आरोप आसानी से लगाया जा सकता है। वर्तमान अग्निकांड के ठीक बाद इन महिलाओं के परिवारों ने अपने पड़ोस में भी आग के खतरों के बारे में बताने के लिए घटनास्थल पर मौजूद पुलिसकर्मियों और पत्रकारों से संपर्क करने की भी कोशिश की थी, हालांकि उन्हें अनसुना कर दिया गया।

पुलिस से बातचीत

अलीपुर थाना के हमारे पहले दौरे पर हमारी मुलाकात और बातचीत थानाध्यक्ष श्री शैलेन्द्र कुमार शर्मा से हुई, जो कुछ ही महीने पहले इस थाने में स्थानांतरित हुए हैं। अग्निकांड की खबर मिलने पर वह एक एसीपी और करमवीर नामक कांस्टेबल के साथ घटनास्थल पहुंचे थे। हमने घटना के विवरण और घटना के पहले और बाद पुलिस की कार्रवाई पर उनसे बातचीत की।

उन्होंने बताया कि कार्रवाई के क्रम में पुलिस ने अग्निकांड के अपराधियों को गिरफ्तार कर लिया है। इसमें फैक्ट्री का सह-मालिक अखिल जैन और जमीन की मालकिन राजरानी शामिल हैं। चर्चा में हमारी टीम ने इस बात पर जोर दिया कि यह आग कोई एकाकी घटना नहीं थी, बल्कि दिल्ली और अलीपुर में ही अवैध फैक्ट्रियों व खतरनाक कामकाजी परिस्थितियों के व्यापक प्रसार से जुड़ी हुई थी। इसलिए हमने सवाल उठाया कि पुलिस प्रशासन ने अब तक ऐसी जानलेवा घटनाओं को रोकने के लिए क्या कदम उठाए हैं तथा आगे क्या कदम उठाने का इरादा रखती है यह सुनिश्चित करने के लिए कि ऐसी आपदा दोबारा न हो। इस पर थानाध्यक्ष ने जवाब दिया कि वह अपने अधिकार-क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले इलाकों का डोर-टू-डोर ऑडिट बुलाएंगे, तथा आवासीय क्षेत्रों में अवैध रूप से संचालित सभी फैक्ट्रियां सील करेंगे। इसके साथ ‘व्यावसायिक क्षेत्र’ में यह जांचा जाएगा कि वैध फैक्ट्रियां कानूनी दिशानिर्देशों के अनुसार चल रही है या नहीं। हालांकि इसपर चुप्पी साध ली गई कि पुलिस प्रशासन की मौजूदगी के बावजूद एक आवासीय क्षेत्र में इतनी अवैध फैक्ट्रियां इतने सालों से कैसे चल रही हैं। चर्चा के अंत में हमने पुलिस जांच की स्टेटस रिपोर्ट की कॉपी और FIR की संख्या ले ली।

दूसरे दौरे में थाना दुबारा जाकर हमने घटनास्थल पर मौजूद पुलिस कांस्टेबल करमवीर से बातचीत की। करमवीर एकलौते पुलिसकर्मी थे जिन्होंने आग में फंसे लोगों को अपनी जान जोखिम में डाल कर बचाने का काम किया और इस क्रम में वह थोड़े घायल भी हो गए। उन्हें भी एक दिन में डिस्चार्ज कर दिया गया लेकिन हाथ पर अभी भी पट्टी थी। करमवीर ने नगर निगम पर सवाल उठाए कि उसकी अनुमति/प्रश्रय से ही यह अवैध फैक्ट्रियां परिचालित हो पाती हैं, चाहे लाइसेंस देकर या बिना लाइसेंस दिए ही। हालांकि ऐसी फैक्ट्रियों व घटनाओं को रोकने में पुलिस के दायित्व को लेकर उन्होंने भी चुप्पी साधी।

विमर्श और निष्कर्ष

हमारे जमीनी अवलोकन से एक चीज स्पष्ट हो गई कि ऐसी अग्निकांड दुर्घटनाओं के प्रति प्रतिक्रियाओं में और इनके पश्चात ‘अपराध’ व दोष’ संबंधित विचारों में भिन्नता दरअसल व्यक्तियों की भिन्न वर्गीय स्थिति को ही प्रतिबिंबित करते हैं। इसी के तहत क्रोध और हताशा की अभिव्यक्तियां प्रतिबिंबित करती हैं कि भिन्न समूहों के लिए क्या दांव पर लगा हुआ है। उदाहरण के लिए, घटनास्थल के पास संपत्ति के मालिकों के बीच आवासीय क्षेत्र में भी ऐसे खतरनाक उद्योगों के परिचालन की अनुमति देने के लिए सरकार-प्रशासन व स्वयं उद्योगपतियों को दोषी ठहराने में निश्चित ही एक झिझक या विरोध दिखा। इसके बजाय उनका गुस्सा आम जनता, मीडिया या सरकार के अवसरवादी और प्रचार-केंद्रित रवैये, तथा हम जैसे सवाल पूछने वाले ‘बाहरी लोगों’ पर निर्देशित था। आग को लेकर उनके बीच चर्चाएं भी ज्यादातर संपत्ति के संदर्भ में ‘नुकसान’ पर केंद्रित थीं, जबकि मजदूरों के जीवन की क्षति का शायद ही कभी उल्लेख किया गया। हालांकि मालिक की मृत्यु का वर्णन कई बार उठता रहा। एक मालिक की मृत्यु को आम विमर्श में असाधारण रूप में देखा गया, जबकि दस मजदूरों की मृत्यु को सामान्य बना दिया गया। जबकि सच्चाई है कि जहां मालिक दुर्भाग्य से हादसे के दिन ही फैक्ट्री में मौजूद था, वहीं वे मजदूर अपना और परिवार का पेट पालने के लिए रोज ही आग से जान गवाने के जोखिम के अधीन रहने को मजबूर थे।

हालांकि औद्योगिक कार्यस्थलों पर होने वाली मजदूर वर्ग की मृत्यु के बारे में कुछ भी ‘सामान्य’ नहीं है, परंतु आम विमर्श में उनके सामान्य बन जाने का एक बड़ा कारण मजदूरों की मौतों की विशाल और बढ़ती संख्या है जो बताता है कि मजदूरों की जान इस समाज-व्यवस्था में कितनी सस्ती है। उदाहरण के लिए, अलीपुर में आग लगने के कुछ ही दिनों बाद, मध्य प्रदेश के हरदा शहर में एक पटाखा फैक्ट्री में आग लगने से 11 श्रमिकों की जान चली गई और 200[2] घायल हो गए। अलीपुर के ही बाहरी इलाके में स्थित बुद्धपुर में विगत 25 मार्च की सुबह को दमकल मानकों के अनुसार ‘गंभीर’ श्रेणी की लगी भीषण आग ने कई बड़े गोदामों को जलाकर राख कर दिया, जिसमें केवल होली की छुट्टी के कारण मजदूर-कर्मचारियों की अनुपस्थिति ही कोई जान हानि नहीं होने का कारण बनी।[3] 16 मार्च को हरियाणा के रेवाड़ी जिले में धारूहेड़ा औद्योगिक क्षेत्र की एक फैक्ट्री में बॉयलर फट जाने से अब तक 14 मजदूरों की मौत हो गई और 100 से अधिक घायल हो गए।[4] दिल्ली में ही 2022 का मुंडका फैक्ट्री अग्निकांड एक और ताजा भयावह उदाहरण है जिसमें कम से कम 27 (से लेकर 60) मजदूरों, जिसमें अधिकतर महिलाएं थीं, की मौत हुई थी और कम से कम 40 मजदूर घायल हुए थे।5[5] केंद्रीय श्रम मंत्रालय के ही आंकड़ों के अनुसार भारत की फैक्ट्रियों में प्रतिदिन 3 मजदूर ऐसी ही ‘दुर्घटनाओं’ में अपनी जान गवाते हैं। 2017-20 के बीच हर वर्ष भारत की पंजीकृत फैक्ट्रियों में 1109 मजदूरों की मौत हुई और 4000 से अधिक घायल हुए हैं। जबकि विशेषज्ञों का ही कहना है कि यह भयावह आंकड़ा भी असली संख्या से बेहद कम है, क्योंकि भारत में (अलीपुर जैसी) अपंजीकृत फैक्ट्रियों की संख्या तथा अनौपचारिक क्षेत्र काफी बड़ा है।[6] इस तरह की लगातार और बारंबार होने वाली ‘दुर्घटनाएं’ मजदूरों की कार्य परिस्थितियों तथा प्रशासनिक व कानूनी व्यवस्था पर तत्काल गंभीर सवाल खड़ा करती हैं।

अलीपुर की घटना के बाद नगरपालिका और दमकल विभाग दोनों ने घोषणा की है कि अलीपुर में फैक्ट्री ‘अवैध’ थी। एसडीएम के निर्देश के तहत यह पता लगाने के लिए कि इलाके में क्या अन्य औद्योगिक इकाइयां भी हैं जो अवैध आधार पर चल रही हैं, पुलिस जांच का आदेश जारी हुआ है। अलीपुर थानाध्यक्ष ने भी इलाके की ऑडिट का आश्वासन दिया है। हालांकि एक भयानक घटना घट जाने के बाद प्रशासन की और से वैधता व सुरक्षा को लेकर ये आश्वासन व कार्रवाइयां प्रथम दृष्टया अविश्वसनीय लगती हैं क्योंकि अब तक इसी प्रशासन की नाक के नीचे यह अवैध कंपनियां चल रही थीं और हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि नगर निगम को इस दुर्घटनाग्रस्त फैक्ट्री के बारे में जानकारी नहीं थी, खास कर तब जब स्थानीय निवासी इससे निकलने वाले वेस्ट उत्पाद की शिकायत भी दो साल पहले ही कर चुके थे? नगर निगम को कैसे पता नहीं चला, जब फैक्ट्री को कई वर्षों से पानी और बिजली की आपूर्ति की जा रही थी? इससे नगर निगम की उदासीनता से अधिक इन अवैध उद्योगों के परिचालन में उसकी मिलीभगत का सवाल खड़ा हो जाता है।

फैक्ट्री अधिनियम, 1948 की धारा 38 में 10 या अधिक श्रमिकों को नियुक्त करने वाली औद्योगिक इकाइयों के भीतर आग की रोकथाम के लिए विस्तृत प्रावधान हैं। इसमें अग्नि निकास की आवश्यकता, अभिगम मार्गों की न्यूनतम चौड़ाई, ज्वलनशील तरल पदार्थों के भंडारण पर प्रतिबंध, और प्राथमिक चिकित्सा व अग्निशमन उपकरणों के प्रावधान शामिल हैं। हालांकि छोटे पैमाने के अनौपचारिक उद्योगों में, जैसे अलीपुर में पाए जाते हैं और जो दिल्ली और भारत के कुल उद्योगों में से अधिकांश हिस्सा बनाते हैं, उद्योगपति बिना लाइसेंस के संचालन करके या श्रमिकों की वास्तविक संख्या का खुलासा न करके इन नियमों का पालन करने से बचने में सक्षम हो जाते हैं। जिस आसानी से वे ऐसा कर पाते हैं, उससे इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता है कि इसका कारण उनका केवल दिल्ली के बाहरी इलाकों में स्थित होना नहीं है बल्कि इन कानूनों को लागू करने के लिए जिम्मेदार राजनीतिक अंगों (सरकार, नगरपालिका, पुलिस, श्रमायुक्त विभाग, आदि) का पूंजीपक्षीय गठजोड़ है, जो इन उल्लंघनों को नजरंदाज करता है या/और उनसे लाभान्वित भी होता है। नतीजतन, भले ही आग की घटना एक हादसा हो, परंतु ऐसी दुर्घटनाओं का बढ़ता खतरा और इनसे बचने के लिए सुरक्षा प्रावधानों का भारी अभाव कोई हादसा या आकस्मिक घटना नहीं है। बल्कि वे एक ऐसी सरकारों और सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के डिजाइन को दर्शाते हैं जो मालिकों का मुनाफा बढ़ाने के लिए श्रमिक वर्ग के जीवन को कौड़ियों के मोल में तोलने पर आमादा रहती है। 2020 में 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को खारिज कर उनकी जगह पर आए 4 नए लेबर कोड में से एक व्यावसायिक सुरक्षा कोड (OSH) पुराने फैक्टरी अधिनियम को प्रतिस्थापित करते हैं। बाकी लेबर कोड की तरह इसके प्रावधान भी मालिक वर्ग के लिए रियायतों से भरे हैं। उदाहरण के लिए, जहां फैक्ट्री अधिनियम न्यूनतम 20 श्रमिकों वाली फैक्ट्रियों में लागू होते थे (बिजली उपयोग करने वाली फैक्ट्रियों में 10 श्रमिक), वहीं OSH कोड न्यूनतम 40 श्रमिकों वाली फैक्ट्रियों (बिजली वाली फैक्ट्रियों में 20) पर ही लागू होंगे। त्रैमासिक रोजगार सर्वेक्षण, जनवरी 2022 के अनुसार भारत में 76% इकाइयां 40 से कम श्रमिकों को नियुक्त करती हैं, जिनपर व्यावसायिक सुरक्षा के प्रावधान लागू ही नहीं होंगे।[7]

ऐसी आपदाओं के बाद हम अकसर देखते हैं कि राज्य की भूमिका मुआवजा देने (या महज घोषणा करने) तक ही सीमित रह जाती है। जिन लोगों से हमने बात की उन्होंने मुआवजे मिलने की धीमी प्रक्रिया और इसे हासिल करने का भार पीड़ितों पर ही होने को लेकर विभिन्न चिंताएं व्यक्त कीं, लेकिन कोई यह भी सवाल कर सकता है कि राज्य की तरफ से क्या मुआवजा एक पर्याप्त प्रतिक्रिया है। ‘द वायर’ के 2023 के एक लेख में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे मुआवजा राशि आम तौर पर ‘मनमाने तरीकों’ से निर्धारित की जाती है जिसमें न तो श्रमिकों के वेतन और न ही महंगाई को ध्यान में रखा जाता है। दूसरी तरफ, पूरा नैरेटिव मुआवजे के इर्द-गिर्द सिमट जाने से राज्य का अन्य कानूनी व नैतिक दायित्व अकसर छुप जाता है। अलीपुर थाने के हमारे दौरों में दिखी पुलिस कार्रवाई में सक्रियता की कमी से यह और स्पष्ट हुआ। हालांकि अधिकारी हमारे समक्ष उत्तरदायी दिखे, लेकिन ऐसा ही प्रतीत हुआ कि दिल्ली मुख्यमंत्री द्वारा मुआवजे की घोषणा और दो गिरफ्तारियों के बाद उनके लिए मामला सुलझ चुका है। ऑडिट प्रक्रिया की बात भी तभी सामने आई जब हमने पहले और आगे की कार्रवाई को उनपर सवाल खड़े किए। जैसा कि इस रिपोर्ट में निर्दिष्ट है, औद्योगिक इकाइयों में ऐसे अग्निकांड पृथक दुर्घटनाएं मात्र नहीं हैं, बल्कि लापरवाही और भ्रष्टाचार की व्याप्त संस्कृति के कारण पैदा होने वाली घटनाएं हैं जिनमें मजदूर वर्ग को लगातार अपनी जानें गवानी पड़ी है। ऐसी संस्कृति मुनाफे को सर्वोच्च (यहां तक कि मानव जीवन से भी ऊपर) प्राथमिकता देने वाली वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था से ही उत्पन्न होती है। अतः यदि तात्कालिक राहतों से आगे बढ़ कर इस व्यवस्था और संस्कृति के मद्देनजर ढांचागत समाधान नहीं तलाशे गए तो हम अगली ‘दुर्घटना’ का इंतजार मात्र करने के लिए अभिशप्त होंगे जिनमें और अधिक मजदूरों की जानें जाएंगी। तदनुसार, अलीपुर पेंट फैक्ट्री अग्निकांड को एक बड़े राजनीतिक संकट के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए। इन ‘दुर्घटनाओं’ में जान गवाने वाले मजदूर वर्ग की आवाज को केंद्र में रख कर ही इन घटनाओं को मुकम्मल तरीकों से संबोधित किया जा सकता है।


[1] मजदूरों के नाम हैं – रामसूरत सिंह, बृजकिशोर, मीरा, पंकज कुमार, विशाल गोंड, अनिल ठाकुर, शुभम, कृपाशंकर, रामपरवेश कुमार, और हरिश्चंद्र यादव।

[2] बीबीसी, 7 फरवरी 2024 – bbc.com/hindi/articles/cn0ne34909ko

[3] प्रभात खबर, 25 मार्च 2024 – prabhatkhabar.com/state/delhi/delhi-news-alipur-fire-accident-zzz

[4] पंजाब केसरी, 26 मार्च 2024 – m.haryana.punjabkesari.in/haryana/news/rewari-factory-blast-death-toll-increase-day-by-day-1958298

[5] यथार्थ के जून 2022 अंक में मुंडका अग्निकांड पर एक विश्लेषणात्मक लेख – yatharthmag.com/2022/06/20/mundka-fire/ [संपादक मंडल]

[6] वर्कर्स यूनिटी, 22 जनवरी 2023 – workersunity.com/ground-report-2/every-day-3-laborers-die-due-to-accidents-at-work-revealed-in-the-report/

[7] labourbureau.gov.in/uploads/pdf/Final_6th_Round_Updated-7-2.pdf