महिलाओं का जीवन : सोवियत समाजवाद बनाम पूंजीवाद

May 4, 2024 0 By Yatharth

सोवियत समाजवाद के बारे में पूंजीवादी देशों द्वारा चाहे जितना कुत्साप्रचार किया गया या चलाया जा रहा हो, सोवियत संघ में आम जनता के भौतिक जीवन में आया विशाल सकारात्मक परिवर्तन उन सारे प्रचारों को अंततः गलत साबित कर देता है। सैकड़ों सालों से निरंकुश, प्रतिक्रियावादी और घोर जनविरोधी ज़ारशाही के जुए के नीचे त्राहिमाम करती जनता ने सोवियत समाजवाद के कुछ दशकों में ही न सिर्फ अपने देश के लिए, बल्कि पूरी मानव जाति के लिए अभूतपूर्व उपलब्धियां हासिल की। केवल सोवियत रूस ही नहीं, बल्कि दुनिया का एक-तिहाई हिस्सा शोषणकारी पूंजीवादी व्यवस्था से मुक्त हुआ और वहां मजदूर-मेहनतकशों का राज स्थापित हुआ। खुशहाली और सुख-समृद्धि की ऐसी बयार चली जिसने पूरी मानवजाति पर अपना अमिट प्रभाव डाला। आज हमारे पास उपलब्ध कई सारी सुविधाएं उसी सोवियत समाजवाद की देन है, चाहे वो विज्ञान के क्षेत्र में हों या सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्रों में। इन सारी महान उपलब्धियों में से सबसे आगे की कतारों में है – सोवियत संघ में महिलाओं के भौतिक और सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आये विराट सकारात्मक परिवर्तन।

क्रांति-पूर्व ज़ारशाही के कानूनों के अनुसार महिलाएं अपने पतियों की संपत्ति मानी जाती थीं। पति के हाथों पत्नियों को पीटा जाना कानूनन वैध था। अपने पतियों की आज्ञा का पालन करना पत्नी का परम धर्म था और इसकी अवहेलना करना उन्हें दंड का पात्र बनाता था। क्रांति के पहले मात्र 13.1 प्रतिशत महिलाएं साक्षर थीं। उस अंधकारमय, शोषणकारी और घोर पितृसत्तात्मक दौर से निकल कर क्रांति के बाद महिलाओं को ना सिर्फ उनके अपने जीवन को सुधारने की जगह मिली, बल्कि महिलाओं ने आगे बढ़ कर सोवियत समाजवाद के विकास में अपनी अपरिहार्य भूमिका अदा की। और तो और खुद रूसी क्रांति में भी महिलाओं की बड़ी भूमिका थी। उस आतताई शासन से जब महिलाएं मुक्त हुईं तो उन्होंने फिर पीछे मुड़ कर दुबारा नहीं देखा। धरती पर पहली बार मानव को सही मायनों में मुक्ति मिली थी और सोवियत महिलाओं ने इस अवसर को दोनों हाथों से पकड़ा। सोवियत राज्य ने केवल नारों और कानूनों में ही नहीं, बल्कि जमीन पर भौतिक रूप से महिलाओं के जीवन में परिवर्तन लाने के लिए कई व्यवस्थाएं की। हर कदम पर इन कोशिशों का मूल्यांकन किया और उन्हें जरूरत के हिसाब से परिवर्तित और बेहतर भी किया। सजग रूप से उठाये गए इन सभी कदमों का नतीजा था कि दुनिया में पहली बार महिलाओं ने अपने जीवन की बागडोर सही मायनों में खुद संभाली। अब वे किसी की मोहताज नहीं थीं। उन्हें अपने जीविकोपार्जन के लिए किसी पुरुष पर आर्थिक या सामाजिक रूप से निर्भर होने की कोई जरूरत नहीं रह गयी थी। वे अपने जीवन और जीवनसाथी का फैसला इन सभी दबावों से मुक्त हो कर कर सकती थीं। यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि सोवियत राज्य ने महिलाओं को केवल एक याचक नहीं, बल्कि पुरुषों के साथ सोवियत समाजवाद के सह चालक, उसके कारीगर के रूप में भी विकसित किया। वे केवल राज्य से लाभ लेने वाला समाज का एक कमजोर और निरीह हिस्सा नहीं, बल्कि अपनी क्षमता को लगातार बढ़ाते हुए सर्वहारा वर्ग के उस सुंदर समाज के निर्माण में योगदान देने वाला एक सक्रिय हिस्सा बनी। चाहे हम फैक्टरियों में उत्पादन बढ़ाने का रिकॉर्ड लें, या सामूहिक खेतों में पैदावार बढ़ाने का रिकॉर्ड, इन सब में महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर आगे बढ़ रही थीं।

इन सब के पीछे केवल सोवियत राज्य की भलमनसाहत नहीं, बल्कि महिलाओं को रसोईघरों और मातृत्व के बन्धनों से मुक्त करने के लिए की गयी ठोस भौतिक व्यवस्थाएं थीं जिसने महिलाओं के लिए अन्य क्षेत्रों में आगे बढ़ने की ठोस जमीन तैयार की। जैसे, दुनिया में पहली बार बड़े पैमाने पर “फैक्ट्री किचन” को स्थापित किया गया जहां मुफ्त या कम कीमत पर पौष्टिक आहार सबों के लिए उपलब्ध था। नई माताओं के लिए “क्रेच” (पालनाघर) सिस्टम की व्यवस्था व्यापक स्तर पर की गयी ताकि उन्हें बच्चों का पालन-पोषण करने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को निभाते हुए भी अपने काम से समझौता ना करना पड़े। आज भी अधिकतर पूंजीवादी देशों में कुल कार्यबल (वर्क-फोर्स) में महिलाओं की संख्या, खासकर विवाह के बाद, कम होने के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी समाज गर्भवती महिलाओं और नई माताओं की सुविधा के लिए कोई व्यवस्था नहीं करता, उलटे महिलाओं के गर्भवती होने की खबर मिलते ही मालिक महिला कर्मचारियों को नौकरी से निकाल देता है या गर्भावस्था के दौरान लिए गए अवकाशों के लिए उनका पगार काट लेता है। इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को निभाने के लिए महिलाओं को पुरस्कृत करने के बजाय पूंजीवाद उन्हें सजा देता है। सोवियत संघ में इन दोनों ही पक्षों पर जोर दिया गया – पहला, मानव जाति को आगे बढ़ाने की अतिमहत्वपूर्ण जिम्मेदारी को निभाते हुए भी वे कार्यबल में अपना योगदान दे सकें, और दूसरा, उन्हें मां बनने के फलस्वरूप किसी प्रकार का नुकसान ना उठाना पड़े या कोई समझौता ना करना पड़े। इसके तहत सोवियत संघ ने दुनिया में पहली बार सवेतन मातृत्व अवकाश को कानूनन रूप से लागू किया। क्रांति होते ही, यानी 1917 में, सोवियत राज्य ने कानून बनाया कि गर्भवती महिलाओं को कुल 16 हफ़्तों का सवेतन अवकाश दिया जाएगा, जिसमें से 8 हफ्ते बच्चे के जन्म के पहले और बाकि के 8 बच्चे के जन्म के बाद दिए जायेंगे। किसी भी पूंजीवादी देश में तब तक मातृत्व अवकाश लागू नहीं हुआ था। इसके साथ ही महिलाओं को अपने कार्यस्थल के पास क्रेच की सुविधा दी गयी। 1918 में मास्को में केवल 4 क्रेच थे, 1928 में इनकी संख्या बढ़ कर 104 हुई और 1931 तक ये बढ़ कर 120 हो गयी, जिसे सम्बंधित पंच-वर्षीय योजना के हिसाब से अपर्याप्त माना गया था एवं इसे और बढ़ाने पर जोर दिया गया। स्तनपान कराती माताओं के लिए क्रेच उपलब्ध ना होने पर अवकाश का प्रावधान भी था। साथ ही, गर्भावस्था के पांचवे महीने के बाद महिलाएं नौकरी सम्बंधित यात्राओं या तबादलों से बिना इस डर के इनकार कर सकती थीं कि इससे उनकी नौकरी चली जाएगी। छठे महीने के बाद उन्हें आसान या हल्के कार्य ही सौंपे जाने का प्रावधान था।

इन सबके साथ-साथ मेडिकल साइंस के क्षेत्र में भी गर्भवती महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर खासा ध्यान दिया गया और कई ऐसी उपचार खोजे गए जिससे प्रसव की प्रक्रिया मां और बच्चे के लिए सुरक्षित होने के साथ-साथ सुखद और आसान भी हो। ये ऐसे प्रयोग थे जिन्हें केवल वैज्ञानिक क्षेत्र की उपलब्धियों तक सिमित नहीं रखा गया, बल्कि इन्हें हर एक गर्भवती सोवियत महिला तक पहुंचाने के कष्टसाध्य काम को भी उचित तव्वजों के साथ हाथ में लिया गया और इसमें बहुत हद तक सफलता भी प्राप्त हुई। आइये इस पर और विस्तार से चर्चा करें।

‘सोवियत वोमन’[1] मैगज़ीन के मार्च-अप्रैल 1951 के अंक में डी अगातोवा द्वारा प्रस्तुत लेख ‘पेनलेस चाइल्डबर्थ’ (दर्द-रहित प्रसव) में वो बताती हैं कि उस समय सोवियत रूस में डॉक्टरों द्वारा गर्भवती महिलाओं को होने वाली प्रसव पीड़ा और बच्चा जनने के समय के दर्द और वेदना को कम करने की कोशिशें की जा रही थीं। गर्भवती महिलाओं के लिए अलग से अस्पताल थे जहां उन्हें प्रसव पीड़ा और अन्य सम्बंधित असुविधाओं और तकलीफों के बारे में विस्तार से समझाया जाता था जिससे वे उसके लिए मानसिक रूप से खुद को तैयार कर सकें। पूरे सोवियत संघ में फैले इन अस्पतालों और मातृत्व सेंटरों में इसके लिए साप्ताहिक चर्चाएं आयोजित की जाती थीं। इन चर्चाओं में जाने वाली एक गर्भवती महिला के हवाले से अगातोवा लिखती हैं –

“यहां [उन चर्चाओं में] डॉक्टर ने बच्चे के जन्म पर बातचीत की, और सबसे पहले उन्होंने जिस बात पर जोर दिया – एक आश्चर्यजनक तार्किक विचार और जिसने उन्हें आशा से भर दिया – वह यह था कि प्रसव महिला के शरीर के लिए एक सामान्य, प्राकृतिक क्रिया है और जो कुछ भी सामान्य है उसमें दर्द नहीं होना चाहिए।”

वे आगे लिखती हैं कि –

“प्रसव के समय दर्द को दूर करने की मनो-रोगनिवारक (psycho-prophylactic) विधि[2] इतनी सरल और साथ ही इतनी प्रभावी है कि इसकी जितनी प्रशंसा की जाये वो कम है। इस पद्धति की शुरुआत डौसेंट आई जेड वेल्वोव्स्की के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक समूह ने खार्कोव में की थी। यह उसी सिद्धांत पर आधारित था जो गर्भवती महिलाओं को डॉक्टरों द्वारा बताया गया था, यानी – दर्द केवल जटिल या रोग संबंधी मामलों में होना स्वाभाविक है; जहां सामान्य से कोई विचलन न हो, वहां सामान्यतः दर्द नहीं होना चाहिए। दर्द का डर अप्रिय संवेदनाओं को बढ़ा देता है, महिला को थका देता है और उसे अतिसंवेदनशील बना देता है। भावी मां को इस मानसिक रूप से प्रभावी भय (fear psychosis) से छुटकारा दिलाने के लिए, उनके दिमाग के कॉर्टेक्स पर अधिक ध्यान देना चाहिए। कॉर्टेक्स जीव में सभी प्रक्रियाओं का स्वामी और नियामक है, यह गर्भाशय को भी संकेत भेजता है और प्रसव को सामान्य और तेज कर सकता है।”[3]

सैकड़ों सालों तक ज़ारशाही के अवैज्ञानिक और रुढ़िवादी दौर से निकल कर केवल तीन-चार दशकों में ही सोवियत विज्ञान का महिलाओं के प्रति कितना संवेदनशील रुख था! वहीं दूसरी तरफ विकसित पूंजीवादी देशों की स्थिति इससे कोसों दूर थी। “प्रत्येक वर्ष संयुक्त राज्य अमेरिका में 14,000 से अधिक महिलाएं प्रसव से जुड़े कारणों से मर जाती हैं, जिससे कम से कम 35,000 बच्चे मातृहीन हो जाते हैं। . . . 75,000 से अधिक शिशु मृत पैदा होते हैं और 69,000 से अधिक शिशु जीवन के पहले महीने के दौरान मर जाते हैं।” यह आंकड़े 1937 में छपी एला रीवी ब्लूर की किताब ‘वोमन इन सोवियत यूनियन’ से ली गयी हैं। वे बताती हैं कि 17-18 जनवरी 1938 को वाशिंगटन डी.सी. में “बेटर केयर फॉर मदर एंड बेबीज़” विषय पर हुए सम्मेलन, जिसमें सैकड़ों वैज्ञानिक पुरुष और महिलाएं शामिल हुए थे, में पेश एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में ये आंकड़ें प्रकाशित किये गए थे। वे आगे लिखती हैं –

“इस तरह के बयानों से भरी रिपोर्ट, संयुक्त राज्य अमेरिका में माताओं और बच्चों की भयानक मृत्यु दर का कारण ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखभाल की कमी’, ‘पोषण की कमी,’ आदि, को बताती है – जिन सब की जड़ में अंततः केवल ‘सामाजिक सुरक्षा’ की कमी है और कुछ नहीं।”

ये है असली फर्क एक पूंजीवादी राज्य और एक समाजवादी राज्य में! जहां एक तरफ द्वितीय विश्व युद्ध में जान-माल की भीषण क्षति झेल कर भी महिलाओं की उत्तम से उत्तम चिकित्सा का प्रश्न सोवियत संघ की प्राथमिकताओं में से एक था; उसमें भी प्रसव काल के दौरान मां और बच्चे की केवल सुरक्षा और सेहत का ध्यान रखने तक प्रयासों को सीमित ना करते हुए, इसके आगे बढ़ कर, प्रसव पीड़ा को कम से कमतर करने की ओर संसाधनों को लगाने पर भी जोर दिया गया। वहीं दूसरी तरफ, अमेरिका में, जो संसाधनों के मामले में सोवियत संघ से बिलकुल पीछे नहीं था, हर साल हजारों महिलाएं प्रसव काल के दौरान दम तोड़ देती थीं, कितने ही बच्चे मृत पैदा हुए या जन्म के एक महीने के भीतर मर गए – और इन सब के पीछे का मुख्य कारण था नागरिकों के पास सामाजिक सुरक्षा का ना होना, मतलब सरकार द्वारा जनता के जीवन की जरूरतों से हाथ खड़े कर लेना और उन्हें निजी बाजार के हाथों मरता छोड़ देना।   

इसके ठीक विपरीत, जैसा कि हमने ऊपर बताया, सोवियत संघ में चिकित्सा के क्षेत्र में हो रही प्रगति को ले कर राज्य की पहली प्राथमिकता थी कि इन सुविधाओं और उपचारों को देश के कोने-कोने तक पहुंचाया जाए। ऐसे अस्पतालों के संदर्भ में अगातोवा ‘पेनलेस चाइल्डबर्थ’ में मास्को टेलीफ़ोन प्रणाली में कार्यरत एक महिला कर्मचारी के हवाले से लिखती हैं –

“”हमारी सरकार हमारे लिए कितनी फिक्रमंद और चिंतित रहती है!” मॉस्को टेलीफोन प्रणाली की कर्मचारी वेलेंटीना स्मिरनोवा बताती हैं। “सरकार न केवल मैटरनिटी हॉस्पिटल नंबर 32[4] जैसे शानदार संस्थानों का निर्माण करती है, न केवल हमें सभी प्रकार की चिकित्सा सहायता निःशुल्क प्रदान करती है, बल्कि यह भी देखती है कि दर्द मां की खुशी को धूमिल न कर दे। ऐसे देश में मां बनना बहुत बड़ी ख़ुशी है।””

वे आगे लिखती हैं –

“दर्द रहित प्रसव की मनो-रोगनिवारक पद्धति (psycho-prophylactic method) को व्यापक मान्यता मिल रही है। यह कई अन्य विधियों से एक खास तरीके से भिन्न है, जिसे सोवियत विज्ञान सबसे ऊपर महत्व देता है, और वह है – जनता तक इसकी पहुंच। इस पद्धति को मॉस्को व लेनिनग्राद के क्लीनिकों और ग्रामीण अस्पतालों व कोल्खोज़ के आराम-गृहों (lying-in homes) में समान सफलता के साथ लागू किया जा रहा है। सोवियत चिकित्सा की उपलब्धियां प्रत्येक सोवियत मां को उपलब्ध करायी जाती हैं।”

सोवियत चिकित्सा की तुलना अगर पूंजीवादी देशों से की जाये तो हमें पूंजीवादी राज्य की ओर से केवल उदासीनता ही नहीं, बल्कि सक्रिय पितृसत्तात्मकता के भी दर्शन होते हैं। आज भी इस पितृसत्तात्मकता ने उनका पीछा नहीं छोड़ा है। उदाहरण के लिए, अमेरिका और कई यूरोपीय देशों में 1980 तक महिलाओं द्वारा झेली जाने वाली सभी बीमारियों/लक्षणों को ‘हिस्टेरिया’ की श्रेणी में डाल कर उसे दरकिनार कर दिया जाता था। किसी भी असुविधा, दर्द या मानसिक तकलीफ की शिकायत करने वाली महिला को ‘हिस्टेरिकल’ घोषित कर दिया जाता और उन्हें इलाज से वंचित कर दिया जाता। जो इलाज होता भी, वह इस मानसिकता के साथ किया जाता कि महिलाओं की बनावट में ही कुछ दोष है जिसके कारण ये तकलीफें उत्पन्न होती हैं और इसलिए इसका कोई समाधान नहीं हो सकता; साथ ही इसके लिए एक तरह से महिलाएं खुद ही दोषी हैं। या दूसरा रुख यह था कि महिलाएं अपनी तकलीफों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करती हैं, या वे कमजोर/नाजुक होती हैं और उनके दर्द सहने की क्षमता बहुत कम होती है। ऐसा कह कर उनकी तकलीफों को ख़ारिज करने या कम करके आंकने की मानसिकता चिकित्सकों में व्याप्त थी। कई मामलों में महिलाओं द्वारा इलाज के लिए दबाव बनाये जाने पर उन्हें मानसिक रूप से असंतुलित घोषित करके पागलखाने भेज दिया जाता था या फिर ये मानते हुए कि हिस्टेरिया की ये सारी समस्याएं महिलाओं के गर्भाशय से जुड़ी होती हैं, हिस्टेरेक्टॉमी सर्जरी के जरिये उनका गर्भाशय हटा दिया जाता था। कुछ ही दशक पहले, यानी 1980 में, ‘अमेरिकन साइकियाट्रिक एसोसिएशन’ द्वारा प्रकाशित ‘डायग्नोस्टिक एंड स्टैटिस्टिकल मैन्युअल ऑफ मेंटल डिसऑर्डर” के मानसिक रोगों की सूचि से ‘हिस्टीरिया’ को हटाया गया। मेडिकल साइंस का महिलाओं के प्रति ये नजरिया समाज में गहरी जड़ें जमाये पितृसत्तात्मक सोच का ही परिचायक है। पितृसत्तात्मकता के कारण ही 1990 के दशक तक महिला शरीर-रचना-विज्ञान (female anatomy) पर चिकित्सकों में जानकारी का घोर अभाव था क्योंकि तब तक इस क्षेत्र में शोध ना के बराबर हुआ था! 

आज, लगभग चार दशक बीत जाने के बाद भी, यह भयावह और शर्मनाक इतिहास पूरी तरह अपनी कब्र में नहीं जा सका है। आज भी भारत के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को डायन कह कर मारने-पीटने, बेइज्जत करने, तलाक दे कर छोड़ देने, उनका बलात्कार करने, गांव से बहिष्कृत करने या कई मामलों में उनकी हत्या तक कर देने की प्रथा बदस्तूर जारी है। इसके पीछे लगभग वही मानसिकता है जो चिकित्सकों के बीच ‘हिस्टेरिया’ को ले कर थी। इन घटनाओं को अशिक्षा, अज्ञानता और रूढ़िवादी-पितृसत्तातमक सोच का फल समझा जा सकता है। लेकिन इसे कैसे समझा जाये कि भारत के शहरों में, यहां तक कि कई विकसित देशों में भी, महिलाएं आज भी अस्पतालों में डॉक्टरों द्वारा महिला होने की वजह से भेदभाव झेल रही हैं? सोशल मीडिया पर कई महिलाएं अपनी आपबीती बयां करती हैं जिसमें वे असह्य पेट दर्द की शिकायत ले कर अस्पताल गयीं और डॉक्टर ने उन्हें बिना पर्याप्त जांच के, केवल दर्द की कुछ प्राथमिक दवाइयां दे कर घर भेज दिया। कई ऐसे मामले सामने आये जहां माहवारी के दौरान भयानक दर्द की शिकायत ले कर सालों तक वे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटकती रहीं, लेकिन लगभग सभी जगह उनके दर्द को सामान्य बता कर, कुछ दर्द की दवाइयां और दर्द सहना सीखने की सलाह दे कर मामले को नजरंदाज कर दिया गया। कई सालों तक हर महीने ये भयानक दर्द झेलने के बाद उन्हें पता चला कि उन्हें इंडोमीट्रियोसिस (endometriosis) की बीमारी थी जो इतने सालों तक इलाज नहीं मिलने के कारण काफी ज्यादा बढ़ गयी। यह केवल कुछ गिने-चुने मामलों की बात नहीं है। अमेरिका में इस बीमारी से ग्रसित किसी महिला को इलाज मिलने में औसतन 11.7 साल की देरी होती है। इंग्लैंड में मरीजों को औसतन 8 साल और नॉर्वे में 6.7 साल की देरी होती है। एक तिहाई महिलाओं ने बीमारी पकड़ में आने के पहले कम से कम छः बार अपने जनरल फिजिशियन को दिखाया था।[5] ध्यान रहे कि ये स्थिति आज अमेरिका, इंग्लैंड, नॉर्वे जैसे विकसित देशों की है। भारत जैसे देशों में, जहां मेडिकल साइंस के प्रति जागरूकता काफी कम है और अज्ञानता, अशिक्षा के साथ-साथ आर्थिक गैरबराबरी भी भयंकर रूप से हावी है, पर्याप्त इलाज के बिना ही महिलाएं जिंदगी भर दर्द झेलती हैं और बदतर होने पर बांझपन और उससे जुड़ी मानसिक-शारीरिक प्रताड़ना की शिकार होती हैं। दूसरी तरफ ग्रामीण क्षेत्रों में इस समस्या का एक दूसरा वीभत्स पहलू भी है जहां महिलाओं द्वारा, एक उम्र के बाद, गर्भाशय निकलवाने का चलन व्याप्त है। 2018 में किए गए एक अध्ययन में बताया गया कि भारत में प्रति 1000 विवाहित महिलाओं में से लगभग 17 महिलाएं गर्भाशय निकलवा लेती हैं। विभिन्न राज्यों में ये संख्या प्रति 1000 महिलाओं में 2 से 63 तक है। इसके अलावा, यह पाया गया कि हिस्टेरेक्टॉमी (गर्भाशय निकालने की सर्जरी) महिलाओं के बीच की जाने वाली सभी सर्जरियों में अव्वल नंबर पर है।[6] यह भी पाया गया है कि यह सर्जरी ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के बीच ज्यादा प्रचलित है। और सरकारी अस्पतालों की भयानक कमी के कारण यह सर्जरी ज्यादातर निजी अस्पतालों और क्लिनिकों में करायी जाती है। ग्रामीण इलाकों में ऐसे निजी क्लिनिकों और अस्पतालों की भरमार होती है जहां इस सर्जरी के लिए ना तो पूरी व्यवस्था होती है, ना ही प्रशिक्षित डॉक्टर। नतीजतन महिलाओं के बीच इन्फेक्शन और अन्य बीमारियों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।

भारत सहित पूरी दुनिया के पूंजीवादी, विकसित या विकासशील, देशों की स्थिति का अध्ययन करने से यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि आज से सात-आठ दशक पूर्व भी सोवियत संघ मेडिकल साइंस में विकास के जिस पायदान पर था या जिस द्रुत गति से ना सिर्फ चिकित्सा और विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति कर रहा था बल्कि उन नई तकनीकों, दवाइयों और उपचारों को अपनी व्यापक जनता तक पहुंचा भी रहा था, इतने दशकों बाद भी पूंजीवाद सामूहिक रूप से भी उस गति को हासिल नहीं कर पाया है। आज हम सुनते हैं कि कई जानलेवा बीमारियों, जैसे कैंसर, आदि का सस्ता और कम दुष्प्रभावों वाला इलाज संभव है लेकिन उसे जनता को उपलब्ध नहीं कराया जाता क्योंकि ऐसा करने से कैंसर के इलाज के नाम पर तिजोरियां भर रहे मल्टी-बिलियन डॉलर उद्योगों का मुनाफा बंद हो जाएगा। जहां एक तरफ पूंजीवाद के बाल्यकाल में पूंजीपतियों ने दाम युद्धों में आगे निकलने के लिए अनुसंधान और विकास (research and development) पर जोर दिया, उसमें अपने मुनाफे का एक हिस्सा लगाया; वहीं आज के एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के दौर में, जहां पूंजीवाद के मुनाफे का पहिया गहरे और अनुत्क्रम्नीय संकट के कारण लगभग रुक गया है और वो मरणासन्न अवस्था में चला गया है, उसे जनता के उपभोग और इस्तेमाल की चीजों/क्षेत्रों में ऐसे तकनीकी और वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास की जरूरत नहीं रह गयी है। असल में, जनता को सस्ता और अच्छा इलाज या उपभोग की वस्तुएं देना आज उसके खिलाफ जाता है इसलिए अपना मुनाफे का पहिया चलायमान रखने की कोशिश में वो ऐसे शोध और अनुसंधानों को सक्रिय रूप से रोकता है और कई मामलों में दंडित तक करता है।   

मजदूरों-मेहनतकशों के नेतृत्व में बने सोवियत समाजवाद में मानवजाति ने एक नई सभ्यता का जन्म होते देखा है, जहां बराबरी कोई सुदूर भविष्य की चीज या नेताओं के भाषण में सुना जाने वाला कोई लुभावना वादा नहीं था, बल्कि सोवियत समाजवाद के अस्तित्व में आते ही समाज में इसकी झलक देखी और महसूस की जा सकती थी। महिलाओं का समाज में समान दर्जा होने की बात सोवियत संविधान में अलग से लिखी गयी थी। सोवियत संघ के संविधान का अनुच्छेद 122 घोषित कहता है:

“सोवियत संघ में महिलाओं को आर्थिक, राज्य, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ समान अधिकार दिए गए हैं।

“महिलाओं द्वारा इन अधिकारों को प्रयोग करने की संभावना, पुरुषों के समान महिलाओं को काम करने का अधिकार, काम के लिए भुगतान, आराम और अवकाश, सामाजिक बीमा और शिक्षा, एवं मां और बच्चे के हितों की राज्य द्वारा सुरक्षा, सहवेतन मातृत्व अवकाश के साथ-साथ प्रसूति गृहों, नर्सरी और किंडरगार्टन के विस्तृत नेटवर्क का प्रावधान प्रदान करके सुनिश्चित की जाती है।”[7]

महिलाओं के जीवन में आया भौतिक परिवर्तन इस बात का प्रमाण है कि यह दावे केवल संविधान के पन्नों तक सीमित नहीं थे। उदाहरण के लिए, 1917 की क्रांति से पहले रूस में केवल दो हजार महिला चिकित्सक थीं और केवल दो दशक बाद, यानी 1937 में इनकी संख्या बीस गुना से भी अधिक हो गई। 1937 तक सोवियत महिला वैज्ञानिकों की संख्या 1,000 से अधिक हो गयी थी, और शहर के स्कूलों में 90 प्रतिशत शिक्षक महिलाएं थीं। यह उस देश में है, जहां क्रांति से पहले, महिलाओं को कानून द्वारा पुरुष से कमतर माना जाता था।[8] सोवियत राज्य ने इस बात को समझा कि सैकड़ों सालों से दबाई गयी महिलाओं को केवल कानूनी अधिकार देना भर ही काफी नहीं है, अतः राज्य द्वारा कई कार्यक्रम चलाये गए जहां महिलाओं को अपनी प्रतिभाओं को पहचानने और उनका विकास करने का मौका मिला। महिलाएं ना सिर्फ साक्षर हुईं, बल्कि कई महिलाएं जरूरी प्रशिक्षण और अथक परिश्रम के बाद कई वैज्ञानिक और तकनीकी शोध के कामों में भी लगीं। सैकड़ों सालों की गुलामी और उत्पीड़न से निकली महिलाएं उन खोई हुई सदियों की क्षतिपूर्ति कुछ दशकों में ही करने की तरफ बढ़ गयीं और इसमें उन्हें कॉम स्टालिन के नेतृत्व वाले सोवियत राज्य का पूरा सहयोग मिला। चाहे वह शांति काल में सोवियत समाजवाद का निर्माण हो, या फिर द्वितीय विश्व युद्ध के उथल-पुथल के बेहद खौफनाक दौर में मजदूरों-मेहनतकशों के इस राज्य को बचाने, उसकी शक्ति को मजबूत करने और हिटलर के नाज़ी सेना को हराने का काम हो, महिलाओं की भूमिका उल्लेखनीय और अभूतपूर्व है। द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत महिलाओं की भूमिका अपने आप में एक अलहदा विषय है जिस पर हम अगले अंक में चर्चा करेंगे। लेकिन अभी के लिए यह पूरी दृढ़ता और विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि महिलाओं की इस भूमिका के बिना सोवियत संघ इन दोनों कार्यों, सोवियत समाज का निर्माण और द्वितीय विश्व युद्ध में फासीवादियों को हराने, में सफल नहीं हो पाता।

बुर्जुआ नारीवादियों के विपरीत, सोवियत महिलाओं ने ये सब समाज में पुरुषों के खिलाफ किसी वैमनस्य या प्रतिस्पर्धा के भाव से या उन्हें कुछ साबित करने के लिए नहीं, बल्कि एक ऐसे राज्य के प्रति प्रगाढ़ प्रेम और समर्पण के भाव से किया जिसने उन्हें मानव इतिहास में पहली बार इंसान के रूप में उन्मुक्त जीवन जीने की जमीन दी थी। इसी भाव से ओतप्रोत हो कर दुस्या विनोग्रादोवा ने टेक्सटाइल उद्योग में पूरे सोवियत संघ में एक साथ सबसे ज्यादा मशीनों पर काम करके उत्पादन करने का रिकॉर्ड कायम किया और इसके लिए उन्हें सोवियत संघ के सबसे ऊंचे सम्मान – ऑर्डर ऑफ लेनिन – से सम्मानित किया गया। इसी भाव के साथ ल्यूदमिला पावलिचेंको, जो द्वितीय विश्व युद्ध में स्नाइपर थीं, ने 309 नाज़ियों को मार कर दुश्मन के दिलों में दहशत पैदा कर दी। ऐसी अनगिनत सोवियत महिलाएं जिन्होंने अपने प्यारे सोवियत समाजवाद के लिए बिना किसी महत्वाकांक्षा के ऐसी भूमिकाएं निभाई जिन सब का पूर्ण उल्लेख करना इतिहास में कभी संभव ना हो सकेगा। लेकिन सोवियत समाजवाद के नाम के साथ ही वहां की महिलाओं का नाम, हर सोवियत नागरिक का नाम, मानव इतिहास के सुनहरे पन्नों में हमेशा के लिए दाखिल हो चुका है और हमेशा रहेगा।


[1] ‘सोवियत वुमन’ एक सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक सचित्र पत्रिका थी, जिसकी स्थापना 1945 में ‘सोवियत महिला समिति’ द्वारा मास्को में की गई थी। यह पत्रिका कई भाषाओं में प्रकाशित हुई और विभिन्न देशों में वितरित की गई। सोवियत संघ के विघटन के बाद, यानी 1991 में, ‘सोवियत वोमन’ मैगज़ीन बंद हो गयी।

[2] इस विधि के तहत महिलाओं को प्रसव, उसके चरणों, दर्द और कष्ट के कारणों की स्पष्ट और सरल व्याख्या बताई गयी, और प्रसव के दौरान पेट की हल्की मालिश के साथ-साथ रीढ़ की हड्डियों की उंगलियों से मालिश और सांस पर खास तरीके से नियंत्रण करके दर्द को कैसे रोका जा सकता है इस पर भी चर्चाएं की गयी। यह चर्चाएं और व्याख्या डॉक्टरों द्वारा थोड़ी सी सम्मोहक नींद लाने के बाद की गयी, क्योंकि इस विधि के अनुसार इस अवस्था में सुझाव विशेष रूप से प्रभावी होते हैं और वे शब्द सुनने वालों के दिमाग में स्थायी रूप से अंकित हो जाते हैं।

[3] लमाज़ तकनीक, जो आज भी अमेरिका सहित कई देशों में प्रचलित है, सोवियत यूनियन के डॉक्टरों द्वारा किये जा रहे इन्हीं प्रयोगों से प्रेरित हो कर विकसित की गयी थी। यह वही साइकोप्रोफिलैक्टिक विधि है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। इसे, प्रसव के दौरान चिकित्सीय हस्तक्षेप के विकल्प के रूप में, 1950 के दशक में फ्रांसीसी प्रसूति विशेषज्ञ फर्नांड लमाज़ द्वारा लोकप्रिय बनाया गया था। फर्नांड लमाज़ ने ये तकनीक सोवियत संघ में रह कर वहां के डॉक्टरों से ही सीखी थी।

[4] सोवियत संघ में खासकर गर्भवती महिलाओं के लिए गांवों और शहरों में कई मुफ्त मैटरनिटी अस्पताल बनाये गए थे। हर पंच-वर्षीय योजना में अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या बढ़ाई जाती थी, जैसे 1939 तक की योजना के हिसाब से औद्योगिक क्षेत्रों में कुल 11,000 बिस्तर बढ़ाने थे जिसमें से 1936 में 2,000; 1937 में 4,000; 1938 में 5,000 बिस्तर लगाये जाने थे। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों और सामूहिक खेतों वाले इलाकों में इस योजना के तहत 1939 तक कुल 38,000 बिस्तर लगाये जाने थे।

[5] स्रोत : Pugsley Z, Ballard K (June 2007). “Management of endometriosis in general practice: the pathway to diagnosis” The British Journal of General Practice.

[6] स्रोत : Prevalence and determinants of hysterectomy in India, published Sept 4, 2023 https://www.nature.com/articles/s411598-023-41863-2

[7] स्रोत : सोवियत संघ का संविधान, 1936 का अनुच्छेद 122

[8] यह आंकड़े एला रीवी ब्लूर की पुस्तक ‘वोमन इन सोवियत यूनियन’, 1937 में छपे एक रेडियो संबोधन से है जो 2 नवंबर 1937 की रात को मास्को से इंग्लैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रसारित किया गया था।