फिलिस्तीनी जनता पर जारी जनसंहारक युद्ध के खिलाफ अमेरिकी विश्वविद्यालयों के छात्रों ने छेड़ा बहादुराना संघर्ष

May 4, 2024 0 By Yatharth

अमेरिका में पिछले कुछ सप्ताह उथल-पुथल भरे रहे हैं। हजारों की संख्या में छात्र, अमेरिका भर के लगभग 25 विश्वविद्यालयों में विरोध मार्च और शिविरों (encampments) में भाग लेते हुए अपने विश्वविद्यालय प्रशासन से हथियार निर्माण इकाइयों में निवेश बंद करने और फिलिस्तीन पर इजरायल के आक्रमण से लाभ कमाने वाले व्यवसायों में हिस्सेदारी बेचने की मांग पर निरंतर दबाव बनाये हुए हैं। फिलिस्तीन की जनता के विरुद्ध छेड़े जा रहे जनसंहारी युद्ध की खिलाफत करते हुए, वे प्रशासनिक कार्यवाई एवं पुलिसिया दमन से बिना डरे, विरोध प्रदर्शनों में अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए मैदान में डंटे हुए हैं। “डिस्क्लोस, डाईवेस्ट, वी विल नॉट स्टॉप, वी विल नॉट रेस्ट”  और “फ्री फ्री पैलेसटाइन” जैसे नारे माहौल में गूंज रहे हैं। यह उल्लेखनीय है कि प्रतिरोध का सामना करने वाले विश्वविद्यालयों के पास अरबों डॉलर की भारी बंदोबस्ती (endowments) है, जिसे वित्तीय बाजार, स्टॉक, रियल एस्टेट और निवेश फंडों में निवेश किया जाता रहा है! ‘विनिवेश’ के साथ-साथ, इज़राइल में उनके समग्र निवेश की तस्वीर को समझने के लिए विश्वविद्यालयों से उनकी निजी हिस्सेदारी (private holdings) पर अधिक ‘पारदर्शिता’ या ‘खुलासे’ की मांग भी जोरों से उठाई जा रही है।

फिलिस्तीनी समर्थक छात्र कार्यकर्ताओं का दावा है कि ‘विनिवेश’ आंदोलन का उद्देश्य युद्ध के अपराधों में उनके संस्थानों की मिलीभगत को समाप्त करना है और कंपनियों को उनकी युद्ध-सहायता गतिविधियों के परिणामों का एहसास कराना है। कॉलेजों को उपयुक्त कार्यवाई करने पर मजबूर करने के रास्ते को वे एक महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक जीत मानेंगे क्यूंकि स्वाभाविक रूप से यह नागरिक समाज पर एक व्यापक प्रभाव डालेगा। यह बात आंदोलन में अंतर्निहित सीमा को भी दर्शाता है।

ब्राउन यूनिवर्सिटी की 23 वर्षीय छात्रा आरिएला रोसेनज्वाइग कहती हैं, “मुझे विश्वास है कि एक यहूदी व्यक्ति के रूप में, मेरी विरासत के उपकरणीकरण (instrumentalisation) का विरोध करने की मेरी विशेष जिम्मेदारी है। मैं नहीं चाहती कि यह विशेष समुदाय रंगभेद से, युद्ध से, जनसंहार से लाभ उठाए।” साउथ कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के एक छात्र ने रिपोर्टर को दिए इंटरव्यू में कहा कि, “मुझे लगता है कि समाधान इसमें ही है कि मैं इन विरोध प्रदर्शनों में भागेदारी लूं क्योंकि कम से कम मैं ऐसा महसूस कर सकूंगी कि मैं अपना कर्तव्य निभा रही हूं। भले ही मेरा योगदान पर्याप्त न हो, फिर भी मैं इसमें अपना पूरा योगदान देने की कोशिश करूंगी। मुझे इसमें शांति मिलती है।” येल विश्वविद्यालय के 24 वर्षीय छात्र एडी आठ दिन की अपनी भूख हड़ताल को याद करते हुए कहते हैं कि,“मेरा मानना ​​है कि स्वतंत्र फिलिस्तीन की लड़ाई उस कल्पना की लड़ाई है जो दिखलाती है कि एक नई दुनिया संभव है और हम सब को अन्याय किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए।” इस प्रकार राज्य के दमन का सामना करने के बावजूद साम्राज्यवाद-विरोधी  स्वर में ढला हुआ छात्रों का यह साहसी संघर्ष सराहनीय है। एली विज़ेल के ये शब्द, “ऐसा समय हो सकता हैं जब हम अन्याय को रोकने में शक्तिहीन हों, लेकिन ऐसा समय कभी नहीं होना चाहिए जब हम विरोध करने में विफल हों” उन तमाम छात्रों और शिक्षकों के विवेक का सटीक वर्णन करते हैं।

अब तक विश्वविद्यालयों ने छात्र आंदोलन के जवाब में विनिवेश के आह्वान को स्पष्ट रूप से ठुकराया ही है। व्यापक संदेश यह है कि वे अपने पोर्टफोलियो में बदलाव नहीं करेंगे या इज़राइल से जुड़ी संपत्ति नहीं बेचेंगे। पिछले सप्ताह जारी एक बयान में, येल के प्रशासन ने कहा कि वह हथियार निर्माण से विनिवेश नहीं करेगा क्योंकि यह “गंभीर सामाजिक क्षति की सीमा को पूरा नहीं करता है” जो कि विनिवेश के लिए आवश्यक था!  

वास्तव में, विभिन्न विश्वविद्यालयों में छात्रों के शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों पर उचित प्रक्रिया के बिना अनुशासनात्मक कार्रवाइयां, निलंबन, अवैध हिरासत, गिरफ्तारियां और पुलिस की बर्बरता जारी है, जिससे उनके अभिव्यक्ति की आजादी और शांतिपूर्ण सभा के संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त अधिकारों पर अंकुश लगाया जा रहा है! छात्रों द्वारा प्रदर्शनों की लहर 18 अप्रैल से कोलंबिया विश्वविद्यालय से शुरू हुई, जहां पर में उन्होंने फिलिस्तीन एकजुटता शिविर बनाए, जिसके परिणामस्वरूप विश्वविद्यालय के अध्यक्ष ने न्यूयॉर्क पुलिस को शिविरों को ध्वस्त करने और सैकड़ों की संख्या में प्रदर्शनकारियों को सामूहिक रूप से गिरफ्तार करने के लिए आदेश दिया। इस कार्यवाई ने अमेरिका के साथ-साथ अन्य देशों के विश्वविद्यालयों की व्यापक छात्र आबादी को न सिर्फ आंदोलन में शामिल होने बल्कि सामूहिक संघर्ष को मजबूत करने के लिए उत्प्रेरित किया है। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में प्रदर्शन पर बर्बर राजकीय हिंसा हुई क्योंकि सशस्त्र पुलिस ‘रबर की गोलियों और दंगा गियर’ के साथ छात्रों को तितर-बितर करने के लिए पहुंच गयी थी। इसी तरह के चौंकाने वाले दृश्य जॉर्जिया सहित अन्य राज्यों से सामने आए, जहां पर में पुलिस ने प्रतिबंधित छात्रों पर ‘टेज़र’ (बिजली के झटके देने वाला यंत्र) का इस्तेमाल किया और प्रदर्शनकारियों पर ‘काली मिर्च के गोले’ दागे। पुलिस द्वारा ‘रासायनिक उत्तेजक पदार्थों’ के उपयोग की भी सूचना प्राप्त हुई है। अधिकारियों द्वारा छात्रों, प्रोफेसरों और पत्रकारों को हिंसक तरीके से हिरासत में लेने के फुटेज से भी आक्रोश फैल रहा है। ऑस्टिन में, ‘घुड़सवार पुलिस ट्रूपों’ प्रदर्शनकारियों से भिड़ गए जिसके परिणामस्वरूप छात्रों को गहरी चोटें आई हैं और भी गिरफ्तारियां हुई हैं।

विरोध को कुचलने के प्रयास में, रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी दोनों के ही नेतागण छात्रों पर ‘यहूदी विरोधी भावना को बढ़ावा देने’ का सरासर गलत आरोप लगा रहे हैं जिसके जवाब में प्रदर्शनकारियों द्वारा इन आरोपों का जोरदार खंडन किया गया है। फिलिस्तीनी समर्थक छात्रों के विरोध प्रदर्शन की बढ़ती गति को देखते हुए, संसद स्पीकर माइक जॉनसन ने कोलंबिया के परिसर में अपनी विवादास्पद यात्रा में प्रदर्शनों को ‘भीड़ तंत्र’ और ‘यहूदी विरोधी वायरस’ जैसी अभद्र भाषा में संबोधित करते हुए कहा कि यदि विरोध प्रदर्शनों पर जल्दी से काबू नहीं पाया गया तब ‘नेशनल गार्ड्स’ को लाया जा सकता है! लगभग 25 रिपब्लिकन सीनेटरों ने कानून प्रवर्तन विभाग को “शांति” की बहाली के लिए तुरंत कार्रवाई करने, यहूदी छात्रों के खिलाफ हिंसा के लिए “भीड़” पर मुकदमा चलाने और “आतंकवाद” को बढ़ावा देने में भाग लेने वाले सभी विदेशी नागरिकों का वीजा रद्द करने के लिए लिखा है। तथाकथित “प्रगतिशील” डेमोक्रेट अलेक्जेंड्रिया ओकासियो-कोर्टेज ने अपने सामरिक बयान में कहा कि देश को आकार देने में युवाओं की शक्ति को कम नहीं आंका जाना चाहिए। ‘यहूदी-विरोधी’ दावे का करारा जवाब देते हुए छात्र कार्यकर्ताओं ने लिखा,“हम नफरत या कट्टरता के किसी भी रूप को दृढ़ता से खारिज करते हैं और उन गैर-छात्रों के खिलाफ सतर्क खड़े हैं जो फिलिस्तीनी, मुस्लिम, अरब, यहूदी, अश्वेत एवं फिलिस्तीन समर्थक सहपाठी और सहकर्मी जो हमारे देश की संपूर्ण विविधता का प्रतिनिधित्व करते हैं, की एकजुटता को बाधित करने का प्रयास कर रहे हैं।”

विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षकों ने भी छात्रों के समर्थन में सामूहिक वाकआउट किया। ऑस्टिन में, उन्होंने शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों पर ‘सैन्यीकृत प्रतिक्रिया’ के खिलाफ हड़ताल की योजना की भी घोषणा की। अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ यूनिवर्सिटी प्रोफेसर्स (एएयूपी) और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के शिक्षकों और कर्मचारियों ने अपने बयान में, न केवल आंदोलित छात्रों के युद्ध-विरोधी प्रतिरोध को यहूदी-विरोधी रंग में ढालने की कोशिशों एवं डराने-धमकाने के दावों का खुले तौर पर खंडन किया है, बल्कि पुलिस द्वारा अपनाई गयी रणनीतियों की कड़ी निंदा भी की है। उन्होंने “अप्रतिबंधित विद्वतापूर्ण अनुसंधान और अकादमिक स्वतंत्रता” की भावना को बनाए रखने के लिए छात्रों पर सभी प्रकार के राजकीय दमन को रद्द करने की मांग पेश की है जिसके पूरा होने तक अपने “शैक्षणिक श्रम” को रोकने का भी प्रण लिया है।

जिस तरह फिलिस्तीन पर की जा रही बमबारी और जमीनी हमलों से होने वाले नस्लीय संहार (जिसमें कुल 34,000 से अधिक फिलिस्तीनी लोगों की मौत हो चुकी है) का हवाला देते हुए इजराइल में निवेश करती कंपनियों से अलग होने के लिए युवा प्रदर्शनकारियों को लड़ते हुए देखा जा सकता है, उसी तरह यह भी याद रखना महत्वपूर्ण है कि अमेरिकी विश्वविद्यालयों का छात्र सक्रीयता का आकर्षण केंद्र (hotbed) होने का एक लंबा इतिहास रहा है। 1964 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में छात्रों ने मैक्कार्थी युग के जनतंत्र-विरोधी व कम्युनिस्ट-विरोधी ‘सुधारों’ के खिलाफ छोटे धरने और प्रदर्शन शुरू किए थे। यह वही युग था जब सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के भीतर राजनीतिक गतिविधियों और नागरिक अधिकार आंदोलन एवं वियतनाम-युद्ध के दौरान अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध लगा दिया था। बाद में, परिसर में पूर्ण संवैधानिक अधिकारों की मांग करते हुए बड़े पैमाने पर रैलियां और विरोध प्रदर्शन आयोजित हुए। लगभग 800 छात्रों को गिरफ्तार किया गया। हालांकि, अंततः विश्वविद्यालय को झुकना पड़ा और प्रतिबंधात्मक नीतियों को पलटना पड़ा। वियतनाम युद्ध और कंबोडिया पर अमेरिका के आक्रमण के खिलाफ सबसे उर्वर विश्वविद्यालय विरोध प्रदर्शन मई 1970 में केंट स्टेट यूनिवर्सिटी, ओहायो में हुआ। कुछ ही दिनों में, नेशनल गार्ड्स ने युद्ध-विरोधी प्रदर्शनकारियों के जनसैलाब पर “गोलीबारी” कर दी थी, जिसमें चार युवा छात्र मारे गए थे।  हॉवर्ड जिन ने अपनी एक पुस्तक में बताया है कि “1970 के वसंत में संयुक्त राज्य अमेरिका के इतिहास में पहली आम छात्र हड़ताल देखी गई जहां पर में चार सौ से अधिक कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्रों ने कंबोडिया पर राज्य द्वारा आक्रमण, केंट राज्य में हुई गोलीबारी की घटना, मिसिसिपी में जैक्सन स्टेट कॉलेज में दो अश्वेत छात्रों की हत्या और वियतनाम पर युद्ध जारी रहने के विरुद्ध कक्षाएं बंद कर दी थी।” 1980 के दशक में, कोलंबिया विश्वविद्यालय दक्षिण अफ्रीकी रंगभेद से समर्थित व्यावसायिक समूहों में कॉलेजों को विनिवेश करने से रोकने के आंदोलन का केंद्र बन गया था। इस आंदोलन ने 155 कॉलेजों में गति पकड़ी जिसके परिणामस्वरूप अमेरिकी कांग्रेस को “व्यापक रंगभेद विरोधी अधिनियम, 1986” पारित करना पड़ा था।  

यह गौरवशाली इतिहास इस बात की पुष्टि करता है कि छात्रों की पीढ़ियों ने अपने समय के ज्वलंत राजनीतिक सवालों को इस तरह महसूस किया और जुनून से काम किया कि उनमें जनमत पर असर डालने की क्षमता थी। इसी कारण जारी फिलिस्तीन समर्थक प्रदर्शन, भले ही सीधे तौर पर नीतिगत बदलाव में परिणत हो या न हो, फिर भी यह दुनिया के आर्थिक और सैन्य शक्ति के रूप में सबसे प्रभावशाली केंद्र में साम्राज्यवाद-विरोधी, पूंजीवाद-विरोधी और युद्ध-विरोधी आंदोलन की एक हद तक धुरी बना हुआ है जिसका कि अन्य देशों में हलचल पैदा करना लाजमी है। साथ ही, यह उल्लेखनीय है कि छात्रों के ये विरोध प्रदर्शन दुनिया के लगभग हर कोने में महीनों तक चले फिलिस्तीन समर्थक जन आंदोलनों की पृष्ठभूमि में उभरे हैं जिन्होंने इजराइल व अमेरिका के गठजोड़ (द्वारा नियंत्रित दुनिया के सबसे खुनी युद्दों में से एक) की भूमिका एवं मानव-विरोधी चरित्र पर प्रकाश डाला है। 

शिकागो विश्वविद्यालय की समाजशास्त्री इमान अब्देलहादी सही हैं जब वह यह टिप्पणी करती हैं कि फिलिस्तीन एकजुटता विरोध प्रदर्शन के लिए कठोर कानून प्रवर्तन दृष्टिकोण केवल डेमोक्रेट के तर्क को ही कमजोर करता है कि बिडेन का चुनाव राष्ट्र को “तानाशाही” से बचाएगा! हालांकि यह डेमोक्रेट ही हैं जो आवाज उठाते रहे हैं कि लोकतंत्र को बचाने के लिए युवाओं को आगे आने की जरूरत है, लेकिन जब राज्य के सैनिकों ने छात्रों और शिक्षकों पर शारीरिक हमला करने के लिए विश्वविद्यालय परिसर में घुसपैठ की तब यह “लोकतंत्र” कहां था? यह “उदार लोकतंत्र” (जिसका अमेरिका होने का दावा करता है) के गहराते संकट का सटीक सार प्रस्तुत करता है। 

हाल ही में, ईरान ने आधिकारिक तौर पर अपना पक्ष लेते हुए छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर अमेरिकी राज्य द्वारा किये जा रहे कठोर दमन पर चिंता व्यक्त की पर विडंबना यह है कि 2022 में महसा अमिनी (जो कि सरकार द्वारा महिलाओं पर व्यवस्थित उत्पीड़न के खिलाफ छेड़े गए संग्राम की प्रतीक बन गई) की राज्य प्रायोजित हत्या उपरांत शांतिपूर्ण असहमति और अभिव्यक्ति की आजादी पर आधारित जनता के व्यापक आंदोलन पर बर्बर कार्रवाई ईरान की हुकूमत द्वारा ही की गयी थी। इस कार्रवाई के तहत हत्याओं में लगभग 500 लोग मारे गए जिनमें 69 बच्चे भी शामिल थे।

व्यापक छात्रों के विद्रोह ने “बुर्जुआ लोकतंत्र” के मुखौटे को उजागर कर दिया है, जिसने न केवल गाजा में बर्बर हमलों के प्रति खुद को प्रतिरक्षित बना लिया है, बल्कि युद्ध अपराध करने के लिए इजरायल को लगातार सहायता और पूर्ण समर्थन भी दे रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन के अत्यधिक दमनकारी रुख जिसने वहां राजनीतिक अधिकारों का दावा करना लगभग असंभव बना दिया है, को छात्रों द्वारा सामूहिक रूप से पहचाना जाने लगा है। यह विरोध प्रदर्शन दुनिया भर के विश्वविद्यालयों के लगातार बढ़ते संकट का भी संकेतक है जहां शिक्षा का उद्देश्य (यानी ऐतिहासिक सामाजिक प्रगति के विचार का वाहक बनने के लिए न्याय और समानता की वैज्ञानिक-प्रगतिशील दृष्टि विकसित करना है) एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के हमले का सामना कर रहा है। यह ऐसा वर्ग है जो अपने अधिशेष के लिए समाज के हर मेहनतकश तबके का शोषण दिनों दिन तीव्र रूप से बढ़ा रहा है और इस यथास्थिति को बनाए रखने के लिए, दुनिया भर में नग्न तानाशाही-निरंकुश शासन या फासीवादी शासन के उभार को ला रहा है। एक ओर विश्वविद्यालयों के भीतर तेजी से सिकुड़ती लोकतांत्रिक जगहें और दूसरी ओर प्रतिक्रियावादी विचारों का व्यापक फैलाव, हमें उस समाज के प्रति सचेत बना रहे हैं जो प्रतिगामी ताकतों के हाथों में जा रहा है, जिससे अनिवार्य रूप से पूंजी की बेड़ियों से मुक्त कर के एक बेहतर समाज के पुनर्निर्माण का कार्य सामने आता है जो कि वैज्ञानिक सोच और कार्य पद्धति को अपना आधार बनाता है। 

हालांकि यह सच है कि छात्रों के आंदोलन ने फिलिस्तीन के राष्ट्रीय उत्पीड़न और फिलिस्तीनी जनता के जनसंहार के मुद्दे को लड़ाकू ढंग से उठाया है, परंतु राष्ट्रीय उत्पीड़न, युद्धों और जनसंहारों का हमेशा के लिए अंत करने को लेकर कोई एकजुट केन्द्रीय नारा यह आंदोलन प्रस्तुत करने में विफल रहा है क्योंकि उसने वित्तीय पूंजीपति वर्ग और राज्य को तूफ़ान के केंद्र में नहीं रखा फिर भी इसका क्रांतिकारी आधार कुछ ध्यान देने योग्य कारकों में निहित है। क्योंकि यह संघर्ष तात्कालिक आर्थिक हित के मुद्दों के बजाय ‘उत्पीड़ित या दमित राष्ट्रीयता’ और ‘मानवता पर युद्ध’ के सवाल के इर्द-गिर्द है और एक समावेशी, जुझारू और समझौताहीन तरीके से लड़ा जा रहा है राज्य और उसके तमाम अंगों के खिलाफ (बिना पहचान की राजनीति के भटकाव में आये) और बर्बर राजकीय उत्पीड़न के बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका बढ़ता विस्तार देखा जा सकता है, यह इसे क्रांतिकारी दृष्टिकोण से विशेष बनाता है। विश्व पूंजीवादी संकट के तेजी से परिपक्व हो रहे समय में, ऐसे संघर्षों का अनुभव, युवाओं को समाज को प्रगतिशील दिशा में आगे ले जाने में और इजारेदार पूंजीवादी वर्ग के खिलाफ अंतिम और निर्णायक युद्ध के लिए शिक्षित और तैयार ही कर रहा है। विरोध प्रदर्शनों ने एक बार फिर राजनीतिक अस्तित्व के सवाल को सामने ला खड़ा किया है। 

यदि कोई अमेरिकी परिदृश्य में घटित हो रहे छात्रों के विरोध प्रदर्शन, ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन, रेल रोड कर्मियों की हड़ताल, आवास का संकट, नौकरियों में बढती असुरक्षा और मजदूर वर्ग के बीच खराब होती कामकाजी परिस्थितियों के अंतर्संबंधों पर गौर करे तो इससे सड़ते हुए पूंजीवाद द्वारा किये जा रहे विनाश का पूरा दृश्य दिखाई दे जाएगा। सच तो यह है कि पूंजीवाद अपने उदय के समय से ही मानवता के साथ लगातार युद्ध की स्थिति में है। हॉवर्ड जिन का कथन, ‘वे कहेंगे कि हम शांति भंग कर रहे हैं, लेकिन कोई शांति नहीं है। जो चीज़ उन्हें वास्तव में परेशान करती है वह यह है कि हम युद्ध में खलल डाल रहे हैं’ इस समय के लिए वास्तव में प्रासंगिक है। इसी के साथ, अमेरिकी विश्वविद्यालयों में संघर्षशील छात्रों एवं शिक्षकों के बहादुराना संग्राम को हम क्रांतिकारी अभिनन्दन पेश करते हुए, यह आशा करते हैं कि वे मैदान में डंटे रहेंगे और मजदूर वर्गीय ताकतों के साथ मिलकर समाज के आमूलचूल परिवर्तन की लड़ाई, जो कि सर्वप्रमुख लड़ाई है, उसमें अपनी भागेदारी निभाएंगे।