मजदूरों-मेहनतकशों की बेरहम पूंजीवादी लूट के 10 साल
May 4, 2024देशी विदेशी पूंजीपतियों के स्वार्थ में मोदी सरकार की लुटेरी आर्थिक नीतियों का कच्चा चिट्ठा
एम असीम
इस समय देश में लोकसभा चुनाव चालू हैं। भाजपा नीत एनडीए गठबंधन की मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल खत्म हो रहा है। जाहिर है कि भाजपा-एनडीए तीसरी बार सरकार बनाने के लिए हर मुमकिन हरबे-हथकंडे आजमा रहे हैं। जनता से हर प्रकार के बड़े-बड़े लुभावने पर झूठे वादे किए जा रहे हैं। मोदी के नाम पर तमाम मनमोहक गारंटियां बांटी जा रही हैं। 2027 तक देश को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था और 2047 तक विकसित भारत बनाने के ख्वाब दिखाए जा रहे हैं। इस भाजपा सरकार ने देशी विदेशी पूंजीपतियों, खासकर अंबानी-अदाणी-टाटा जैसे एकाधिकारी पूंजीपतियों की पिछले 10 साल में जमकर सेवा की है। स्वाभाविक है, और इलेक्टॉरल बांड के हाल के खुलासों से जाहिर भी है, कि ये पूंजीपति भाजपा को खुले हाथों और अन्य सभी पूंजीवादी पार्टियों से कहीं बहुत ज्यादा चुनावी चंदा दे रहे हैं। इनकी अन्य मदद जैसे उनके नियंत्रित मीडिया द्वारा धुआंधार प्रचार, आदि का लाभ भी भाजपा को ही मिल रहा है। अपने पक्ष में चुनावी माहौल बनाने के लिए हरमुमकिन माध्यम से आधे सच्चे या पूरे ही झूठे प्रचार का तूफान खड़ा करने में भाजपा इस मदद का पूरी तत्परता व कुशलता से इस्तेमाल कर रही है।
‘अच्छे दिन’ व न्यू इंडिया के लुभावने सपने चकनाचूर हो चुके हैं
सबका साथ-सबका विकास, तीव्र आर्थिक वृद्धि, 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था, दुनिया की तीसरे नंबर की इकॉनमी, अच्छे दिन, किसानों की आय दुगुनी, 10 करोड़ रोजगार, सौ स्मार्ट शहर, वंदे भारत ट्रेन, न्यू इंडिया, अमृत काल, महाशक्ति व फोन पर रूस-उक्रेन युद्ध रूकवा देने तक के सारे धुआंधार झूठे सच्चे प्रचार के बावजूद रोजमर्रा के असल जीवन की कडवी सच्चाईयों का नतीजा है कि मोदी राज मेहनतकश अवाम को दिखाए जा रहे हसीन सपनों के प्रति कोई खास आकर्षण या उम्मीद पैदा करने में नाकाम हो रहा है। इसीलिए चुनाव प्रचार के दौरान जनता में किसी प्रकार का कोई उत्साह दिखने के बजाय पूर्ण हताशा व सन्नाटा पसरा हुआ है।
अब तो खुद भाजपा सरकार ने भी विकसित भारत बनाने की लुभावनी बात को 2047 तक के लिए टाल दिया है और उसके मुख्य आर्थिक सलाहकार ने तो खुलेआम कह दिया है कि सरकार बेरोजगारी व अन्य आर्थिक समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती एवं इनके लिए जनता खुद जिम्मेदार है। असल में भारत के दुनिया की तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था बनने के दावे तो किए जा रहे हैं, पर यह सब दौलत तो मुश्किल से देश की शीर्ष 5% आबादी एवं उसमें से भी खासतौर पर अंबानी, अडाणी, टाटा, मित्तल, अग्रवाल, जिंदल वगैरह बड़े धनाढ्य सरमायेदारों की ही है। प्रति व्यक्ति औसत के हिसाब से भी भारत की जनता की स्थिति दुनिया में 139वें नंबर पर है और 90% जनता की आय उस औसत से भी कम है। पर औसत के बजाय आबादी के शीर्ष हिस्से को छोडकर निचली 80% आबादी पर ध्यान दें तो यह मजदूर मेहनतकश आबादी दुनिया की सबसे गरीब-वंचित एवं सर्वाधिक कुपोषित, बीमार जनसंख्या में शामिल है। इसकी वजह है कि भारत में अमीर गरीब के बीच की खाई मोदी सरकार के पिछले दशक के शासन में और भी अधिक तेजी से लगातार चौड़ी व गहरी होती गई है।
जहर भरा ‘अमृत काल’
यही वजह है कि इन झूठे दावों को निरंतर दोहराते हुए भी चुनाव में जीत हेतु भाजपा की सबसे ज्यादा उम्मीद एक ओर हिंदू धर्म खतरे में तो दूसरी ओर हिंदू धर्म के गौरव गान के सहारे फिरकापरस्ती की नफरती भावनाओं को भड़काने पर ही निर्भर है। बहुसंख्यक आम हिंदू जनता की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करके, दूसरे अल्पसंख्यक धर्मों के लोगों, खासकर मुसलमानों के खिलाफ नफरत और हिंसा भड़काकर, हिंदू वोट बैंक मजबूत करने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। भाजपा अच्छी तरह जानती है कि पिछले दस सालों में इसने सरमायेदारों की स्वार्थ सिद्धि हेतु मजदूर-मेहनतकश विरोधी नीतियों से आम जनता का जो कचूमर निकाला है, उसने जनता के सामने भाजपा और इसके सहयोगियों से अपने जीवन में सुधार की सारी उम्मीदों को पूरी तरह चकनाचूर कर दिया है। इससे ‘मोदी है तो मुमकिन है’, ‘मोदी की गारंटी’, न्यू इंडिया, विकसित भारत जैसे नारों का पूरी तरह दिवाला निकल चुका है। अब चुनावी जीत की इसकी पूरी उम्मीद धर्म के आधार पर नफरती गोलबंदी करने तथा देश की फिजा में फिरकापरस्ती का और भी ज्यादा जहर घोलने पर ही टिकी हुई है। अतः मोदी से लेकर पूरे भाजपा-संघ का चुनाव प्रचार अब नफरती सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने पर ही केंद्रित हो चुका है।
भारत के एकाधिकारी पूंजीपति अपने धनबल व प्रचार की शक्ति के बल पर नरेंद्र मोदी को सत्ता में अपने एक खास मकसद को पूरा करने के लिए लाए थे। वह मकसद था 2007-08 से आरंभ वैश्विक आर्थिक संकट की वजह से पूंजीपतियों की मुनाफा दर में आई कमी को दूर करने व मुनाफा दर को फिर से बढाने वाले हर उपाय पर तेजी से व बिल्कुल बेहिचक अमल करना। अपने सरपरस्त पूंजीपतियों के इस मकसद को पूरा करने पर मोदी हुकूमत ने आरंभ से ही पूरे जोर से काम किया है। 2014 से ही देशी-विदेशी पूंजीपतियों की खिदमत में और तमाम मजदूर मेहनतकश गरीब उत्पीडित जनता के खिलाफ अर्थव्यवस्था में चौतरफा निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियों को पहले की सरकारों की तुलना में इस सरकार द्वारा कहीं अधिक तेजी और निर्मम सख्ती से लागू किया गया है।
मजदूरों की हालत बद से बदतर हुई है
मोदी हुकूमत की आर्थिक नीतियों का सबसे बड़ा हमला मजदूर, अर्ध-मजदूर मेहनतकश आबादी पर ही हुआ है। यह वह आबादी है जो या तो उत्पादन के साधनों से पूरी तरह से वंचित है या लगभग वंचित हो चुकी है। हर रोज अपनी श्रम करने की क्षमता को बेचना ही इसकी जिंदगी चलाने का एकमात्र या मुख्य सहारा है। इनका गुजारा औद्योगिक, कृषि और सेवा क्षेत्र के पूंजीपतियों को अपनी श्रम शक्ति बेचकर ही चलता है। आज यह मेहनतकश आबादी देश की कुल आबादी का दो तिहाई से भी अधिक है।
मोदी सरकार के दस साल की श्रमिक विरोधी सरमायेदारपरस्त आर्थिक नीतियों ने मजदूरों-अर्धमजदूरों की इस आबादी समेत तमाम मेहनतकश गरीब आबादी के जीवन के हालात बद से बदतर बना दिए हैं। सभी आर्थिक आंकड़े बताते हैं कि एक तो बढती बेरोजगारी की वजह से इन्हें लगातार काम मिलना मुश्किल से मुश्किल होता गया है। दूसरे, सभी रोजगार पहले की तुलना में अधिक अस्थायी, अनियमित व असुरक्षित बना दिए गए हैं। तीसरे, आसमान छूती महंगाई की तुलना में इनकी प्रभावी मजदूरी में शहरी व ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में गिरावट हुई है। इन तीनों ने मिलकर मजदूर मेहनतकश जनता के जीवन में तकलीफों के ऊंचे पहाड़ खड़े कर दिए हैं।
पूंजीपतियों के पक्ष में श्रम कानूनों में बदलाव
मोदी सरकार का एक बहुत बड़ा मजदूर विरोधी कदम श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी संशोधन करना रहा है! 29 पुराने श्रम कानूनों को खत्म करके चार नए श्रम कानून बनाए गए हैं। श्रम कानूनों को सरल बनाने के नाम पर मजदूरों द्वारा लंबे संघर्षों व बड़ी कुर्बानियों से हासिल किए गए पहले के सीमित अधिकारों को भी कमजोर कर इन्हें पूंजीपतियों का ज्यादा पक्षधर बना दिया गया है। देशी-विदेशी पूंजीपतियों को मजदूरों पर शोषण का शिकंजा और भी अधिक कसने तथा पहले से भी ज्यादा दर से मुनाफा कमाने की खुली छूट दे दी गई है। इन नये श्रम कानूनों के जरिए आठ घंटे काम का दिन, न्यूनतम मजदूरी, ओवरटाइम काम के घंटे तथा मेहनताना, कार्य स्थल पर सुरक्षा व अन्य सुविधाएं, यूनियन बनाने, एकजुट संघर्ष करने, सामूहिक सौदेबाजी, हड़ताल करने के अधिकारों पर एक बड़ा हमला बोला गया है।
नए श्रम कानूनों को लागू करने के संबंध में भारत सरकार और राज्य सरकारों के स्तर पर नियम बनाने की प्रक्रिया जारी है। यह नियमावली बन जाने के बाद ये कानून लागू कर दिए जाएंगे। अगर ये नए श्रम कानून लागू हो जाते हैं, तो मजदूरों के कानूनी श्रम अधिकार अत्यधिक कमजोर हो जाएंगे, मजदूरों को पूंजीपतियों की और भी ज्यादा गुलामी झेलनी पड़ेगी, उनके आर्थिक शोषण की दर पहले से कहीं अधिक बढ़ जाएगी, और मालिकों को काम की जगहों पर उनकी सुरक्षा के इंतजाम करने व अन्य सुविधाएं देने से काफी हद तक छूट मिल जाएगी। यह तब है जब पहले ही हमारे देश में सालाना लगभग 48 हजार श्रमिक काम की जगहों पर हुए ‘हादसों’ में अपनी जान गंवाते हैं। श्रम कानूनों में इन संशोधनों के खिलाफ पूरे देश में आवाज बुलंद हुई है। लेकिन मजदूर आंदोलन के कमजोर व बिखरा होने से मजदूर वर्ग इस हमले को पीछे धकेलने में अभी कामयाब नहीं हो पाया है।
कृषि कानूनों के जरिए मेहनतकशों पर हमला
मोदी हुकूमत द्वारा तीन कृषि कानूनों के रूप में मजदूर-मेहनतकश जनता का शोषण तीखा करने लिए एक और बड़ा हमला किया गया था। इन तीन कृषि कानूनों के लागू होने से पूंजीपतियों को कांट्रैक्ट फार्मिंग के अंतर्गत कृषि उपज व उसके व्यापार पर पूरा नियंत्रण हासिल हो जाता, अनाज के भंडारण, जमाखोरी, कालाबाजारी की खुली छूट मिलती, अनाज की सरकारी खरीद बंद हो जाती, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का खात्मा होता, अनाज भंडारण से संबंधित भारत सरकार के एफसीआई सहित विभिन्न राज्य सरकारों के सभी उपक्रम बंद हो जाते। कंपनियों से समझौतों में विवाद संबंध में हाईकोर्ट से नीचे किसी भी कोर्ट में जाने का किसानों का अधिकार छिन जाता। इस प्रकार एकाधिकारी पूंजीपतियों को कृषि के क्षेत्र में अपना पूर्ण दखल कर और अधिक पूंजी संचय करने का मौका मिलता। मगर कृषि उपज के व्यापार पर निजी एकाधिकारी पूंजी के पूर्ण नियंत्रण से आम आबादी के लिए रही सही खाद्य सुरक्षा भी समाप्त हो जाती जबकि पहले ही वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 119 देशों में सौवें से भी निचले क्रम पर है। मोदी सरकार को पूंजीपतियों के हित में इन कानूनों को लागू करने की ऐसी जल्दी थी कि कोरोना लॉकडाउन के दौरान बिना किसी सार्वजनिक चर्चा के इन्हें संसद में लाया गया और राज्यसभा में तो सांसदों के मतों की गिनती किए बगैर ही इन्हें पारित घोषित कर दिया गया। ऐसा है यह महान पूंजीवादी जनतंत्र!
इससे पैदा भारी रोष की वजह से तीन कृषि कानूनों के खिलाफ एक जोरदार जन आंदोलन उठ खडा हुआ। इसमें मुख्य ताकत किसान बने। लंबे अरसे व बड़ी तादाद में कुर्बानियों वाले जनांदोलन के चलते मोदी हुकूमत की पराजय हुई और उसे ये कानून वापस लेने पड़े। लेकिन ‘यथार्थ’ ने तभी चेताया था कि यह सरकार एकाधिकारी पूंजीपतियों की फरमाबरदार है और कृषि कानूनों को वापस लेने के बावजूद पूंजीपतियों के हित में इन कानूनों के मकसद पूरे करने का काम बदस्तूर जारी रहेगा। उस काम में मोदी हुकूमत निरंतर तमाम तरह की कानूनी प्रशासनिक तिकड़मबाजियों के जरिए जुटी हुई है।
अमीर-गरीब के बीच खाई ज्यादा गहरी व चौड़ी हुई है
मोदी हुकूमत की आर्थिक नीतियों के मजदूर-मेहनतकश विरोधी चरित्र को भारत में तेजी से बढ़ी अमीरी-गरीबी के बीच की खाई से देखा जा सकता है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के शीर्ष 1 प्रतिशत अमीरों के पास देश की कुल दौलत का 40 प्रतिशत हिस्सा है और निचली 50 प्रतिशत गरीब आबादी के पास केवल 3 प्रतिशत हिस्सा है। अन्य ऐसी सभी रिपोर्टें भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि देश की लगभग समस्त संपदा शीर्ष दस प्रतिशत संख्या के हाथ में केंद्रित हो चुकी है और निचली दो तिहाई मेहनतकश आबादी लगभग पूरी तरह संपत्तिहीन बन चुकी है।
कोरोना-लॉकडाउन की शुरुआत से लेकर नवंबर 2022 तक अरबपतियों की संपत्ति हर दिन 3608 करोड़ रुपए के हिसाब से बढ़ी है। भारत में अरबपतियों की गिनती 2020 में 106 से 2022 में 166 हो गई। 25 साल में यह पहली बार हो रहा है कि दौलत और गरीबी एक साथ इतनी तेजी से बढ़ रहे हों। इसी का परिणाम है कि हाल ही में आई वर्ल्ड इनइक्वलिटी डाटाबेस की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अमीर-गरीब की खाई बढकर अब उससे भी अधिक हो गई है जितनी ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान थी। याद रहे कि शहीद भगत सिंह और उनके साथियों ने उसी समय चेताया था कि सिर्फ गोरे शासन से मुक्ति ही नहीं, व्यक्ति द्वारा व्यक्ति के हर प्रकार के शोषण से मुक्त हुए बिना वास्तविक आजादी हासिल नहीं हो सकती। सच्चाई यही है कि आज भी भारत की अधिकांश आबादी सही अर्थों में आजाद नहीं है। मोदी सरकार के दस सालों में पूंजीपतियों के मुनाफे को बढाने के मकसद से जनता की रही सही आजादी को छीनने का काम भी और तेज कर दिया गया है।
पूंजीपतियों को रियायतें, गरीबों पर भारी बोझ
पूंजीपतियों के पास पहले ही अकूत दौलत का अंबार लगा है। लेकिन टैक्सों में उन्हें खूब छूट दी जा रही है। उन पर लगने वाले कई प्रत्यक्ष करों जैसे कॉर्पोरेट टैक्स की दरों में बड़ी रियायत दी गई है, जबकि आम लोगों पर अधिक बोझ डालने वाले अप्रत्यक्ष करों जैसे जीएसटी का बोझ बेहद बढा दिया गया है। ऑक्सफैम की ताजा रिपोर्ट में यह बात कही गई है कि जीएसटी का 64% नीचे के 50% लोगों से आया, जबकि शीर्ष 10% से केवल 3% आया। यानी टैक्स का ज्यादा बोझ भी पूंजीपतियों पर डालने के बजाय आम मजदूर-मेहनतकश जनता पर ही डाला जा रहा है। मोदी सरकार अपनी शुरुआत से ही एकाधिकारी पूंजीपति घरानों पर खासतौर पर मेहरबान रही है। ‘द वायर’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक वित्तीय साल 2017-18 में कुल टैक्सों में ‘कार्पोरेट टैक्स’ 32 फीसदी था, जो वित्तीय साल 2020-21 में घटकर 24 फीसदी रह गया। कई आर्थिक क्षेत्रों में तो नई कंपनियों के लिए तो 15 फीसदी टैक्स अदायगी तय कर दी गई है। कॉर्पोरेट टैक्स घटाए जाने का सबसे अधिक लाभ अडानी-अंबानी-टाटा जैसे कार्पोरेटों को ही हुआ है।
पूंजीपति व अमीर लोगों की आमदनी का बड़ा भाग पूंजी निवेश में लगता है जिससे होने वाले लाभ पर बहुत तरह की टैक्स छूट दी जाती है। वे अपनी आय का बहुत छोटा सा हिस्सा ही उपभोग की वस्तुओं की खरीदारी पर खर्च करते हैं। अतः उन्हें अपनी आमदनी के छोटे से हिस्से पर ही जीएसटी जैसे अप्रत्यक्ष कर देने पड़ते हैं। इसके बरक्स मजदूर और अन्य मेहनतकश अपनी पूरी आमदनी या आमदनी का अधिकांश हिस्सा रोजमर्रा की जरूरतों की चीजों की खरीदारी पर लगाते हैं। इस प्रकार उन्हें अपनी लगभग पूरी आमदनी पर अप्रत्यक्ष कर देने पड़ते हैं। इस प्रकार सरकार उनकी पहले से ही कम मजदूरी का भी एक हिस्सा जबर्दस्ती उनकी जेब से निकाल लेती है। मोदी हुकूमत के दौरान अप्रत्यक्ष टैक्सों का बोझ मेहनतकशों पर लगातार बढ़ता गया है। वित्तीय साल 2017-18 में, जब वस्तु और सेवा कर लागू किया गया था, उस वक्त प्रत्यक्ष टैक्सों का कुल टैक्सों में हिस्सा 52 फीसदी था। वित्तीय साल 2020-21 तक यह घटकर 47 फीसदी रह गया। इस प्रकार मेहनतकशों पर टैक्सों का और अधिक बोझ लाद दिया गया है। नतीजा है कि खुद सरकार के उपभोक्ता सर्वेक्षण के मुताबिक मेहनतकश जनता का उपभोग का स्तर गिरा है। उपभोक्ता वस्तुएं बनाने वाली कंपनियों के आंकड़े भी इसी की पुष्टि करते हैं। ये कंपनियां अब ऐसे सामानों के पहले से भी छोटे पैक बाजार में ला रही हैं क्योंकि फिलहाल के छोटे पैक भी अब मजदूर आबादी में खरीदने की कूवत के बाहर हो गए हैं।
मोदी हुकूमत द्वारा सरकारी खजाना पूंजीपतियों पर किस कदर लुटाया जा रहा है, इसका एक बड़ा उदाहरण यह है कि पिछले 10 सालों के दौरान मोदी सरकार ने शीर्ष 150 बड़े पूंजीपतियों का 16 लाख करोड़ रूपये का तो सिर्फ बैंक कर्ज ही माफ किया है। अन्य टैक्सों, शुल्कों, लाइसेंस दरों, आदि की माफी या उनमें दी गई रियायत इसके अलावा है। दूसरी तरफ जनता से आवास, राशन, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली-पानी, परिवहन और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं को शुल्क बढाकर या उनका निजीकरण कर बड़े पैमाने पर छीना गया है।
आसमान छूती महंगाई जनता पर कहर ढा रही है
मोदी सरकार की नीतियों के कारण बेतहाशा बढ़ी महंगाई ने मेहनतकश जनता को बेहाल कर दिया है। तेल, गैस और सब्जियों की कीमतों ने रसोई का बजट पहले से भी कहीं ज्यादा बिगाड़ दिया है। पिछले 10 सालों में ही सभी खाद्य तेलों की कीमतें मनमाने ढंग से बढ़ाई गई हैं और सब्जियों और फलों की कीमतों में भी बुरी तरह आग लगी हुई है। दवा-इलाज, शिक्षा, परिवहन आदि जनता की बुनियादी जरूरतों से जुड़े हर मामले में महंगाई काफ़ी ज्यादा बढ़ गई है। जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, मुद्रास्फीति दर अब तक के उच्चतम स्तर 8% पर पहुंचने के बाद अब गिरकर 5% के दायरे में दिखाई जा रही है। लेकिन असल महंगाई इस सरकारी दर से कहीं अधिक है, क्योंकि सरकारी आंकड़े असल स्थिति को छुपाते हैं। अगर शिक्षा, इलाज, यातायात व आवास भाड़े को देखें तो इनकी कीमतें हर साल 10-15% की रफ्तार से बढ रही हैं। खाद्य पदार्थों की महंगाई दर भी 8.5% है और दस साल के भाजपा शासन में बहुत सी जरूरी चीजों की कीमतें 3 से 4 गुनी तक हो गई हैं। दालों की कीमतें तो पिछले एक साल में ही दोगुनी (93% वृद्धि) हो गईं हैं।
मोदी सरकार ने अपने दस साल के दौरान स्वच्छ भारत, स्किल इंडिया, उज्ज्वला, स्मार्ट सिटी, आदि बहुतेरी बड़ी बड़ी योजनाएं बहुत धूमधड़ाके से शुरू कीं, जिनका बुरी तरह जुलूस निकल चुका है। उदाहरण के तौर पर उज्जवला योजना के तहत जिन 9.6 करोड़ लोगों ने गैस कनेक्शन लिया उनमें से 4.12 करोड़ लोग दूसरी बार सिलेंडर भरवा ही नहीं पाए।
बेरोजगारी विकराल समस्या बन गई है
यूं तो बेरोजगारी इस पूंजीवादी व्यवस्था के वजूद के साथ ही जुड़ा नियम है। लेकिन मोदी सरकार के दस साल के कार्यकाल में बेरोजगारी में भी रिकॉर्ड बढ़ोतरी हुई है। इस समय देश में पिछले 50 साल की रिकॉर्ड बेरोजगारी है। मोदी सरकार ने 2014 में हर साल 2 करोड़ नौकरियां देने की बात कही थी, लेकिन कुर्सी हासिल करने के बाद कितनी नौकरियां दी गईं, इस पर सरकार चुप है। सरकार ने पिछले साल शीतकालीन सत्र के दौरान संसद में बताया था कि 2022 तक आठ साल की अवधि के दौरान कुल 22 करोड़ नौजवानों के आवेदन प्राप्त हुए, जिनमें से 7 लाख 40 हज़ार नौजवानों को रोज़गार दिया गया, जो कि कुल आवेदनों का केवल 0.33 प्रतिशत बनता है।
देश में बेरोजगारी का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि हाल में चार साल की नौकरी के 46 हजार अग्निवीर पदों के लिए 12.8 लाख आवेदन मिले हैं। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश पुलिस में 60,000 कांस्टेबल पदों के लिए करीब 50 लाख आवेदन आए थे। गौरतलब है कि तमाम सरकारी विभागों में लाखों पद खाली पड़े हैं। करीब 1.50 लाख प्राइमरी स्कूलों में सिर्फ एक ही शिक्षक है। देश के स्कूल करीब 11 लाख शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। रेलवे में लगभग 3.12 लाख पद, बीएसएनएल में 18,535 पद खाली पड़े हैं, लेकिन भरे नहीं जा रहे। इसी तरह अकेले केंद्र सरकार के विभागों में 9 लाख से ज्यादा पद खाली पड़े हैं, लेकिन निजीकरण की राह चल रही सरकार इन्हें भर नहीं रही। उधर अगर निजी क्षेत्र को देखें तो वित्तीय वर्ष 2024 में निजी क्षेत्र के पूंजी निवेश प्रस्तावों में 15% की कमी हुई। खासतौर पर मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र में पूंजी निवेश में 40% की कमी हुई। भारत के वस्तुओं के निर्यात व आयात दोनों में ही कमी देखी जा रही है। इससे साफ है कि अर्थव्यवस्था पूंजीवादी मंदी के जाल में है और बेरोजगारी का यह संकट और भी गहराने वाला है हालांकि मोदी सरकार ने पिछले कुछ सालों में मैनुफैक्चरिंग को बढावा देने के लिए लाई गई मेक इन इंडिया व पीएलआई योजनाओं के नाम पर देशी विदेशी पूंजीपतियों को अन्य टैक्स व शुल्क रियायतों के अतिरिक्त लाखों करोड़ रुपये की सीधी सबसिडी भी दी है। यहां तक कि मध्य वर्गीय युवाओं के आकर्षण का केंद्र आईटी कंपनियों में भी इस साल नई भर्ती तो दूर कुल कर्मियों की संख्या पहले से कम हो गई है।
बेरोजगारी की विकरालता को वास्तव में समझना हेतु हमें बेरोजगारी नहीं रोजगार की दर को देखना चाहिए अर्थात काम करने की उम्र के कितने लोग रोजगार के लिए बाजार में हैं। भारत में नोटबंदी के पहले यह दर 45% के ऊपर थी। मगर उसके बाद के सालों में यह गिरती रही और लॉकडाउन के बाद तो 40% के नीचे जा पहुंची। इसका अर्थ है कि बड़ी तादाद अब रोजगार पाने की ओर से पूरी तरह निराश हो चुकी है और रोजगार ढूंढने तक का प्रयास नहीं कर रही है। इसे समझने के लिए हम अन्य देशों से तुलना करें तो सामान्य तौर पर पूंजीवादी देशों में भी यह दर 52 से 60% के बीच है। अब इस रोजगार की दर को बढा हुआ दिखाने के लिए सरकार ने नये पीएलएफएस सर्वेक्षणों में घरेलू खेती या अन्य काम में कभी मदद कर देने वाले युवाओं व स्त्रियों को भी रोजगाररत गिनना शुरू कर दिया है। रोजगार की इतनी नीची दर देश में गरीबी कंगाली का ही नहीं, हताश निराश लाचार निरूद्देश्य जर्द चेहरे वाले युवाओं की बड़ी भीड़ का मुख्य कारण है।
विनाशकारी नोटबंदी का कहर
मोदी सरकार ने 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की थी। इसे काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक बताया गया था। लेकिन असल में यह आम मेहनतकश जनता पर सर्जिकल स्ट्राइक साबित हुई। इसने समस्त संपत्ति के चंद हाथों में केंद्रित करने की रफ्तार और भी तेज कर दी। काले धन का तो यह बाल भी बांका नहीं कर पाई, ना ही इसका ऐसा कोई मकसद था। सुविदित है कि सबसे ज्यादा काला धन तो आज भाजपा के नेताओं और इसके चहेते पूंजीपतियों के पास ही है। नोटबंदी के कारण गरीब मजदूरों के लिए भोजन, दवा-इलाज, शिक्षा, कमरे का किराया, परिवहन जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करना और भी मुश्किल हो गया। इसके अतिरिक्त करोड़ों लोगों को लंबी लंबी लाइनों में लगे रहना पड़ा।
नोटबंदी के कारण हुई सैकड़ों मौतें इस हुकूमत द्वारा गरीबों पर बरपाए गए कहर का एक बेहद दर्दनाक पहलू है। लेकिन मोदी सरकार नोटबंदी को ‘देश’ के हित में उठाया गया साहसी कदम बताती है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात आदि सेवाओं का तेज होता निजीकरण
भारत में पहले ही सार्वजनिक सेवाएं बहुत सीमित थीं। अस्सी के दशक में शुरू उदारीकरण वैश्वीकरण निजीकरण की नीतियों के तहत पहले इन्हें महंगा करने, फासीवादी बाद में निजी हाथों में सौंपना आरंभ किया गया। इस निजीकरण को पिछले दस साल में जबरदस्त ढंग से तेज कर दिया गया है। स्कूल-कॉलेजों, अस्पतालों, बसों, रेलवे, आदि हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप व ठेका-आउटसोर्सिंग के जरिए) तेजी से निजीकरण किया जा रहा है। इन सेवाओं के शुल्क व भाड़े कई गुना बढ़ गए हैं और ये सार्वजनिक सेवाएं आम लोगों की पहुंच के बाहर की जा रही हैं।
रेलवे का उदाहरण लें तो प्रवासी मजदूरों व अन्य आम लोगों द्वारा यात्रा के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले साधारण व स्लीपर डिब्बे बहुत कम कर दिए गए हैं। इससे इनमें ही नहीं, पहले मध्य वर्गीय माने जाने वाले एसी स्लीपर कोच तक में यात्रियों को भेड़ बकरियों की तरह भरकर चलना पड़ रहा है जबकि किराए पहले से बहुत ज्यादा हैं। यहां तक कि पिछले साल रेलवे ने वेटिंग टिकट रद्द करने की फीस के नाम पर ही जनता से 1250 करोड़ रुपये वसूल लिए। उधर रेलवे बजट का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र द्वारा ऊंचे दामों पर सप्लाई की जा रही महंगी वंदे भारत चलाने पर खर्च किया जा रहा है। इस गाड़ी को चलाने के लिए अन्य गाडियां रोक दी जा रही हैं और लेट लतीफ चलकर सामान्य यात्रियों की तकलीफ बढा रही हैं।
बेरहम लॉकडाउन का कहर
कोरोना के नाम पर इलाज व अन्य सुविधाएं देने के बजाय मोदी सरकार ने कुछ घंटे के नोटिस पर जो क्रूर लॉकडाउन थोपा था, उसने मजदूर वर्ग खासतौर पर प्रवासी मजदूरों को गहरे जख्म दिए हैं। इस नृशंस अपराध जिसने बहुत से मजदूरों की जान ली को कभी भुलाया नहीं जा सकता। पहले से ही भयंकर गरीबी की मार झेल रहे मेहनतकश लोगों को भूख से मरने के लिए छोड़ दिया गया था। घरों को लौट रहे मजदूर रेलों, ट्रकों के नीचे कुचले गए। पहले से ही कमजोर सेवाओं के ठप्प होने के कारण गरीब और मध्यम वर्ग के लोग गंभीर ही नहीं, बल्कि बड़े स्तर पर मामूली बीमारियों के कारण भी मारे गए।
कोरोना के बहाने लोगों के जनवादी अधिकारों पर भी बहुत सी सख्त पाबंदियां थोप दी गईं थीं। 8 घंटे के बजाय 12 घंटे कार्य दिवस व कृषि कानून भी इस लॉकडाउन के दौर में ही लाए गए। मोदी हुकूमत को उम्मीद थी कि लॉकडाउन के कारण इनका विरोध नहीं होगा। पर उसकी यह मंशा पूरी नहीं हो सकी। फिर भी कोरोना के डर, लॉकडाउन का लाभ उठाकर इस हुकूमत ने मेहनतकशों का गंभीर आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक नुकसान किया। पूंजीपति वर्ग को बहुत कुछ मिला है। उनकी दौलत के अंबार इस दौर में और ऊंचे हो गए। इसके जरिए वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की मजदूर विरोधी नीतियों को और भी तेज कर दिया गया।
पूंजीपतियों की पक्षधर आर्थिक नीतियों को लागू करने में मददगार है हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता व फासीवाद
भाजपा-आरएसएस ने न सिर्फ सत्ता पाने के लिए हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी राजनीति का खूब इस्तेमाल किया बल्कि सत्ता पाने में कामयाबी हासिल करने के बाद इस फिरकापरस्त सियासत को और भी तेज किया है। देशी-विदेशी पूंजीपतियों के पक्ष में सख्त से सख्त मजदूर मेहनतकश विरोधी आर्थिक नीतियां लागू करने के लिए लोगों का ध्यान असल मुद्दों से हटाने हेतु जनता को धर्म के नाम पर बांटा जा रहा है। अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ नफरत फैलाई गई है। दलितों के खिलाफ जातिगत जुल्म भी बढ रहा है। सीएए-एनआरसी, धारा 370 रद्द करना, राम मंदिर निर्माण-आयोजन जैसे सांप्रदायिक-फासीवादी कदमों का यही मूल मकसद है। इनके जरिए भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की तरफ तेजी से बढ़ा जा रहा है।
जनता के विचार-व्यक्त करने और संगठित संघर्ष करने के जनवादी अधिकारों को कुचलने के लिए यूएपीए, एनएसए, नई अपराध संहिताओं जैसे दमनकारी कानूनों का इस्तेमाल तेज हुआ है। मोदी सरकार की आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक नीतियों के जनविरोधी चरित्र को उजागर करने वाले क्रांतिकारी-जनवादी कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों-पत्रकारों को जेलों में ठूंसा जा रहा है। किसी भी प्रकार के आर्थिक राजनीतिक सामाजिक सवालों पर रोष व्यक्त कर रहे आंदोलनों को दबाने के लिए बर्बर दमन का इस्तेमाल किया जा रहा है। अलग-अलग राष्ट्रीयताओं का एकाधिकारी पूंजीपतियों द्वारा शोषण तेज करने के लिए, उनके आर्थिक संसाधनों की लूट और ज्यादा तीखी करने के लिए तेजी से कदम उठाए गए हैं। कश्मीर से मणिपुर तक इनके भयावह नतीजे सामने हैं। ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ की नीति के तहत सभी राष्ट्रीय समूहों पर हिंदी थोपने की कोशिशें हुई है। अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं के अधिकारों पर इस हमले का सबसे ज्यादा आर्थिक-राजनीतिक नुकसान भी मजदूर-मेहनतकश जनता को ही उठाना पड़ रहा है और पड़ेगा।
इसके अतिरिक्त खुद पूंजीवादी राजनीति के दायरे में भी देखें तो राज्यों के अधिकारों को लगातार सीमित किया जा रहा है। केंद्रीय करों में राज्यों से हिस्सा सेस व सरचार्ज आदि के सहारे बहुत कम कर दिया गया है और राज्यों का जीएसटी बकाया बड़े स्तर पर रोककर रखा जा रहा है। ‘एक देश-एक चुनाव’ लागू करने की कोशिशें तेज हुई हैं। चुनावों में भी केंद्रीय चुनाव आयोग खुलेआम भाजपा की मदद करता दिखाई देता है। ईवीएम की विश्वसनीयता पर उठे किसी भी सवाल व विपक्षी दलों के ऐतराज को वह बिना सुने ही दरकिनार कर दे रहा है। विरोधी राजनीतिक पार्टियों को दबाने के लिए अदालतों, ईडी, इनकम टैक्स, सीबीआई, एनसीबी जैसे संस्थानों के इस्तेमाल के गैर-जनवादी हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। यहां तक कि कुछ विशेष एकाधिकारी पूंजीपति घरानों के हित साधने के लिए कुछ तुलनात्मक रूप से छोटे पूंजीपतियों को भी सीबीआई, इनकम टैक्स, ईडी, आदि एजेंसियों के दबाव का सामना करना पड़ा है। साफ देखा जा सकता है कि न सिर्फ मजदूर वर्ग पर हमला तीखा हुआ है बल्कि चंद एकाधिकारी पूंजीपतियों के हित में खुद पूंजीपति वर्ग के अन्य हिस्सों के लिए भी जनवादी अधिकार सीमित कर दिए गए हैं।
भाजपा को हराना बेहद जरूरी, पर काफी नहीं,
पूंजीपतियों के राज के बजाय जनता की सच्ची सरकार की जरूरत
यह बात बिना किसी शक के कही जा सकती है कि मोदी सरकार अपने दस साल के शासन में कुछ भी ऐसा नहीं गिना सकती, जिसने जनता का जीवन स्तर ऊपर उठाया हो, जिसने देश की जनता को बेहतर जीवन की उम्मीद बंधाई हो। पूंजीपतियों खिदमतगार भाजपा-आरएसएस के घोर जनविरोधी चरित्र को समझने, इनके सांप्रदायिक-फासीवादी सियासत के जाल से बाहर निकलने में ही मजदूरों-मेहनतकशों की बेहतरी है। वरना पूंजीपति अपने इन दलालों के जरिए मजदूरों-मेहनतकशों के खून-पसीने को निर्मम से निर्मम ढंग से निचोड़ते रहेंगे और अपने लिए मुनाफे-धन-दौलत के अंबार लगाते रहेंगे। निश्चय ही यह जरूरी है कि जनता इस सरमायेदारपरस्त सांप्रदायिक फासीवादी मोदी सरकार को सत्ता से बाहर करे। पर पूंजीवादी व्यवस्था में ही भाजपा सरकार को सत्ता से बाहर करना भी इस शोषण चक्र से बाहर निकल पाने का उपाय नहीं। अगर जनता मोदी सरकार को चुनाव के जरिए उखाड़ फेंके तब भी आने वाले किसी भी पार्टी की सरकार भी इन सरमायेदारपरस्त नीतियों को ही लागू करती रहेगी। अतः जनता द्वारा भाजपा को सबक सिखाने हेतु चुनावों में अगर सरकार बदल भी जाए तब भी पूंजीवादी सत्ता के बजाय एक सच्ची जनता की सत्ता, मजदूर मेहनतकश उत्पीडित जनता की सत्ता, एक सच्चे जनतंत्र को स्थापित करने का संघर्ष तेज करते जाना होगा।