भाजपा को हराना जरूरी है, 

May 4, 2024 1 By Yatharth

पूरे देश में चुनाव की सरगर्मियां शबाब पर हैं। जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ रहा है, देश के राजनीतिक हालात तेजी से बदल रहे हैं। हम देख सकते हैं कि जैसे ही चुनाव ने जन-सरोकार के मुद्दों के इर्द-गिर्द घुमना शुरू किया, भाजपा को अपनी हार का डर सताने लगा और इसी के साथ नरेंद्र मोदी जनता को हिंदू-मुस्लिम की नफरत से भरी राजनीति के भंवर में खींच ले आने की घिनौनी कोशिश तथा वोटों का ध्रुवीकरण करने में लग गये। इसमें वे भाजपा की आईटी सेल से प्रतिस्पर्धा करते नजर आ रहे हैं और नीचे गिरने की सारी सीमाएं लांघ रहे हैं। 

दअरसल इस चुनाव में भाजपा किसी भी तरह के जन-सरोकार के मुद्दे को उठाने में दिलचस्पी नहीं दिखा रही है। ज्यादा सही कहें, तो जन-सरोकार के वास्तविक मुद्दे उठाने के लायक वह रह नहीं गई है। जनता दस सालों में यह समझ चुकी है कि नरेंद्र मोदी और भाजपा के वायदे बस जुमले होते हैं। इसलिए भाजपा वायदे करे भी तो कैसे करे। उसे बस राम मंदिर, तीन तलाक, धारा 370, यूनिफार्म सिविल कोड, मुस्लिमों के आरक्षण का विरोध, आदि के इर्द-गिर्द ही बातें करनी पड़ रही है। वैसे तो मुसलमान विरोधी नारे के इर्द-गिर्द जन गोलबंदी करना भाजपा की चारित्रिक विशेषता ही है, लेकिन आज यह उसकी मजबूरी भी बन गई है। साथ में, वह 2047 तक विकसित भारत का सपना भी बेचना चाह रही है। दिक्कत यह है कि इस बार इस तरह के फर्जी सपनों के खरीददार नदारद हैं। 

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि नरेंद्र मोदी को हार मंजूर है। नहीं, बिल्कुल ही नहीं। इस हार को टालने के लिए ही वे चुनावी मंचों से वैमनस्य की आग भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। इसका दोहरा मकसद है। पहला, वे चाहते हैं कि देश में धार्मिक वैमनस्य पर आधारित ध्रुवीकरण हो और वे हिंदुओं के वोट बटोर सकें। दूसरा, वे इसके इर्द-गिर्द जन-गोलबंदी भी करना चाहते हैं, ताकि देश में एक अराजक माहौल बने और नरेंद्र मोदी ‘देश खतरे में है’ की सनसनी मचाते हुए और ‘देश को बचाने’ की बात का हल्ला उठाकर खुले तौर पर जनता पर अपनी तानाशाही थोप सकें। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम संवैधानिक संस्थाएं नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ बोलने या कुछ करने से डरती हैं। देश की राज्य मशीनरी भाजपा की मुट्ठी में है। तब यह प्रश्न पूछना लाजिमी हो जाता है कि क्या मोदी सरकार के चुनाव हारने मात्र से राज्य मशीनरी पर कब्जे की इस स्थिति में फौरी बदलाव आ जाएगा? और तब क्या नई सरकार फासीवादियों के नापाक मंसूबों और हरकतों पर लगाम लगाने में सफल होगी? 

इसे देखते हुए हर न्यायपसंद व्यक्ति का यह कहना है कि भाजपा को इस चुनाव में हराना अतिआवश्यक हो गया है। हर जागरूक व्यक्ति यही चाहता है कि भाजपा हारे और मोदी सरकार से पिंड छुटे, क्योंकि अगर इस चुनाव में भाजपा की जीत होती है तो यह पूंजीवादी जनतंत्र, इसका संविधान, न्याय व कानून का वर्तमान ढांचा और वोट का अधिकार, आदि नहीं बचने वाला है। कम से कम मौजूदा स्वरूप में तो ये कतई नहीं बचा रहेगा। इसलिए यह सही है कि यह चुनाव कोई मामूली चुनाव नहीं है। यह फासीवादी तानाशाही की ओर तेजी से बढ़ते मोदी सरकार के कदम को रोकने की एक महत्वपूर्ण लड़ाई बन चुका है। 

लेकिन ऐसे हर एक व्यक्ति, जो भाजपा की हार को जरूरी मानता है, से जब गहराई से देश की गंभीर परिस्थितियों के बारे में बात की जाती है, तो वह झट से इस बात पर भी राजी हो जाता है या हो जाएगा कि देश को आज एक ऐसी सरकार की जरूरत है जो व्यापक एवं क्रांतिकारी जन-उभार का अंग हो। तभी मोदी सरकार, जो देश की फासीवादी शक्तियों की अगुआई करती है, को सही अर्थों में पराजित किया जा सकता है। इसका कारण स्पष्ट है। विपक्ष चाहे जितने भी बड़े और ‘क्रांतिकारी’ वायदे करे, उसकी सरकार भी बड़ी एकाधिकारी पूंजी और साम्राज्यवाद के हितों से बंधी और उनकी कृपा पर आश्रित सरकार ही होगी। ऐसी सरकार जनता की आकांक्षाओं पर नहीं पूंजीपति वर्ग के संकीर्ण हितों पर टिकी होती है और इसलिए देश में शांति, अमन और भाईचारे को तोड़ने तथा देश में अराजकता का माहौल खड़ा कर देश का माहौल बिगाड़ने और तानाशाही लादने का मंसूबा पालने वाली फासीवादी ताकतों के नापाक इरादों और हरकतों पर ये लगाम नहीं लगा सकती है। और इसलिए भाजपा की जीत में ही नहीं, इसकी हार की संभावना में भी जनता की बदहाली छुपी हुई है। क्योंकि हार की संभावना से बौखलाई भाजपा द्वारा देश को धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिकता की आग में झोंकने के नापाक इरादों और कोशिशों, जिसकी कवायद आज से ही शुरू हो गयी है, को रोकने का साहस और नैतिक बल, एकाधिकारी बड़ी पूंजी के ही हितों से बंधी रहने वाली दूसरी पार्टी, कांग्रेस या इंडिया गठबंधन के पास ना आज है और ना कल होगा। 

भाजपा की हार के बाद बनने वाली सरकार जन-असंतोष की उपज जरूर होगी, लेकिन जन-उभार की उपज नहीं होगी और जनता की किसी क्रांतिकारी कार्रवाई का अंग नहीं होगी। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही एकाधिकारी पूंजी और साम्राज्यवाद के हितों से बंधी पार्टियां हैं। फर्क सिफ इतना है कि जहां भाजपा खुली नंगी तानाशाही की मनोकांक्षा पर सवार है, वहीं कांग्रेस यह समझते हुए कि खुली नंगी तानाशाही जन असंतोष एवं विद्रोह को जन्म देगी, पुराने जीर्ण-शीर्ण जनतंत्र के राजनीतिक खोल में रहते हुए ही, जहां तक संभव हो सके, अपने आका बड़े पूंजीपतियों के हितों को आगे बढ़ाना चाहती है। बड़ी पूंजी और साम्राज्यवाद को जनता के बीच अमन, शांति और भाईचारे की चिंता नहीं है। उसे पता है कि अगर जनता के बीच अमन और शांति तथा भाईचारा कायम होगा और जनता के पास अपने हितों पर विचार करने के लिए उचित परिस्थिति होगी या लोग जाति, धर्म और क्षेत्र को भूलकर आपस में अपने हितों के लिए एकजुट होते हैं, तो इससे लूट की व्यवस्था पर खतरा मंडराने लगेगा। इसलिए बड़े पूंजीपति वर्ग को अपनी लूट का किला अगर और अधिक मजबूत तथा अभेद्य बनाना है, तो उसे जनता को बांटे रखने में ही भलाई महसूस होती है, जो कि उनके लिए स्वाभाविक है। ऐसे में, बड़े पूंजीपति वर्ग पर आश्रित कोई भी सरकार फासीवादी ताकतों से पूरी तत्परता और निर्णायक तरीके से नहीं लड़ सकती है। उल्टे, जल्द ही जनता के विरोध से निपटने के लिए इनकी जरूरत पड़ेगी और वे आपस में सुलह कर एक साथ मिल कर जनता का ही दमन करने में लगेंगे। 

राहुल गांधी 25 गारंटियां और 5 न्याय लेकर आए हैं। लेकिन वे श्रम की लूट पर आधारित मौजूदा व्यवस्था, जो प्रतिदिन और प्रति पल गरीबी, कंगाली और बेरोजगारी पैदा करती है, पर पूरी तरह चुप रहते हैं। कुल मिलाकर वे वित्तीय सहायता के जरिये बेरोजगारी, गरीबी और कंगाली का थोड़ा बेहतर मैनेजमेंट भर करने की बात कह रहे हैं। दरअसल, यह सब वित्तीय पूंजी का ही प्रोग्राम है और इसमें नया कुछ भी नहीं है। यूनिवर्सल बेसिक इनकम और अनाज का उत्पादन नहीं करने के लिए किसानों को अवकाश लाभ स्कीम के तहत लाने का नारा भी वित्तीय पूंजी का ही नारा था और है। यह वास्तव में क्या है? एकाधिकारी वित्तीय पूंजी का मकसद पूरे सामाजिक उत्पादन और समस्त धन-संपदा, चाहे वह श्रम से निर्मित हुआ है या प्रकृति प्रदत्त है, पर नियंत्रण कायम करना, छोटे उत्पादकों को जितना संभव हो उजाड़ना, समाज में आय के सारे स्रोतों पर एकाधिकार कायम करना, अधिकाधिक आबादी को बेरोजगार कर दाने-दाने को मोहताज बना देना और जीवन चलाने के लिए चंद हजार रुपयों की खातिर शासकों के दान पर मोहताज बना देना है। इसीलिए वित्तीय पूंजी का आम जनता, जिसे इसी वित्तीय पूंजी की सार्विक लूट द्वारा सार्वजनिक निशुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, सामाजिक सुरक्षा के अधिकार से वंचित कर दिया गया है और बेरोजगार बना कर निठल्ला दर-दर की ठोकर खाने के लिए छोड़ दिया गया है, को बेसिक इनकम प्रदान करने का प्रोग्राम असल में जन विस्फोट की स्थिति को मैनेज करने का प्रोग्राम है। इसी तरह सुक्ष्म एवं लघु ऋण की सामूहिक व्यवस्था बनाने की नीति भी महिलाओं को घर की कंगाली को दूर करने की नहीं उसे मैनेज करने के लिए दी जाने वाली सहायता की नीति है ताकि महिलाओं के विक्षोभ को अलग ही दिशा में कुछ दिनों के लिए मोड़ा जा सके और वे इस विश्वास में उसमें लगी रहें कि इससे उनकी कंगाली दूर हो जाएगी। इसलिए यह साफ है कि राहुल गांधी के 5 न्याय और 25 गारंटियों के नारे का भी वही हस्र होना तय है जो 2014 के मोदी के अच्छे दिनो का हुआ है। राहुल एकाधिकारी पूंजी की ही सेवा मोदी से भिन्न तरीके से कर रहे हैं। 

जहां तक उनके द्वारा जनता के अधिकारों के बारे में की जा रही बातों का सवाल है, तो हम जानते हैं कि वे इसका दो-टूक जवाब नहीं देते कि क्या जनता के हक-हकूक की लड़ाई का उनकी सरकार दमन नहीं करेगी, या पुराने श्रम कानूनों व अन्य कानूनों, जो एक हद तक जनपक्षी थे, जिन्हें मोदी सरकार ने बदला या खत्म कर दिया दिया है, उनकी वापसी वे करेंगे या नहीं, और नये दमनकारी कानूनों को खत्म या रद्द किया जाएगा या नहीं। इन सब पर वे खुलकर कुछ भी नहीं बोलते हैं। बस अमूर्त रूप में जनतंत्र और संविधान बचाने तथा जनता के अधिकारों की बात करते हैं। राहुल गांधी अपने 5 न्याय और 25 गारंटियों को क्रांतिकारी बता रहे हैं। लेकिन सवाल है, अगर जनता उनके 25 गारंटियों और 5 न्याय से भी आगे बढ़कर अपने हक-हकूक और अधिकार की बात करती है, तो क्या नई सरकार जनता पर लाठी-गोली नहीं चलाएगी? मोदी सरकार को हर हाल में सत्ता से बाहर करना है, लेकिन सवाल है, जब जनता इनकी ‘क्रांतिकारिता’ के खांचे से बाहर निकल कर फासीवाद को इसकी जननी सहित, यानी फासीवाद के साथ-साथ श्रम की लूट की मौजूदा व्यवस्था को भी ध्वस्त करने के लिए और अपना भाग्य विधाता स्वयं बनने की राह पर आगे कदम बढ़ाएगी, तो क्या राहुल गांधी तब भी जनता के साथ खड़े होंगे? 

प्रसंगवश, यहां राहुल गांधी से पूछना जरूरी है कि 1991 में नवउदारवाद के जिस रास्ते पर देश को ले जाया गया और जिसका उपयोग करते हुए बड़ी पूंजी ने फासीवादी तानाशाही का तानाबाना रचा, वह किसकी देन थी या है? क्या वे इसे स्वीकारेंगे कि विश्वपूंजीवाद का संकट वह मूलभूत कारण है जो फासीवाद को जन्म दे रहा है? क्या वे यह मानेंगे कि इसका निदान पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के नाश में निहित है? मोदी से सीधे ताल ठोकने वाले राहुल गांधी क्या इन प्रश्नों का सच्चा जवाब देंगे? मोदी द्वारा खुली प्रेस वार्ता नहीं करने की आलोचना बहुत हुई, लेकिन क्या जनता के दरबार में इन प्रश्नों पर खुली बहस करने के लिए राहुल स्वयं तैयार हैं? हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारी लड़ाई फासीवादी शक्तियों से तो है ही, लेकिन हर उस चीज से भी है जिसकी वजह से ये खतरनाक विचारधारा बार-बार इतिहास में पनपती है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सरकार जिसकी भी हो, मौजूदा व्यवस्था मुट्ठी भर बड़े पूंजीपतियों, साम्राज्यवादियों और जमींदारों की तरफदारी की नीति पर खड़ी है। यह यूं ही नहीं है कि जनता की जायज से जायज लड़ाई भी सरकारों के लिए सरदर्द बन जाती है। इसलिए जनता को इस बार शासन की पुरानी परंपरा और तौर-तरीके को पलट देने के लिए कमर कस लेना चाहिए जिसका अर्थ है – खुदमुख्तारी के लिए उठ खड़ा होना, जिसके बाद न शोषण रहेगा, और न ही फासीवाद का खतरा। आज के सच्चे जन-संघर्ष का एकमात्र यही तकाजा है।  

विश्वपूंजीवाद के मौजूदा संकट के मद्देनजर फासीवाद को पराजित करने की जनता की लड़ाई शोषणविहीन समाज के लक्ष्य के लिए हमारी दूरगामी लड़ाई के रास्ते में पड़ने वाला एक अहम ठौर है, एक अहम मंजिल है। यह मंजिल एक ऐसी सरकार कायम करने की मंजिल है जो जन-उभार की उपज होगी, संघर्ष की लय में आई जनता के संघर्षों की उपज होगी। एकमात्र ऐसी सरकार ही जनता की वास्तविक सरकार हो सकती है। वर्तमान परिस्थिति में हम इसे मजदूर वर्ग का न्यूनतम एवं तात्कालिक राजनीतिक कार्यभार भी कह सकते हैं जो मजदूर वर्ग के नेतृत्व में क्रांतिकारी जन-उभार के गर्भ से निकलने वाली एक अंतर्वर्ती एवं संक्रमणकारी व्यवस्था का रूप लेगा। इसका फौरी दायित्व फासीवाद के विषबेल तथा इसके पनपने की जमीन और हर उस कारक को अधिकाधिक पूर्णता के साथ खत्म करना होगा जिसे कोई सामान्य बुर्जुआ सरकार कभी भी खत्म नहीं कर सकती है। इसके अतिरिक्त इसका एक और अहम कार्यभार सभी तरह के जनवादी अधिकारों की पूर्ण बहाली करना होगा। 

इसलिए आइये, नरक में तब्दील होती अपनी जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए, खत्म होते अपने जनवादी अधिकारों की पूर्ण बहाली के संघर्षों को आगे बढ़ाने के लिए, इस दुनिया को सुंदर और शोषणविहीन बनाने के लिए निकट भविष्य में होने वाले प्रचंड एवं तूफानी जन-संघर्षों का रास्ता प्रशस्त करने के लिए और इस रास्ते की सबसे बड़ी बाधा फासिस्टों को सत्ता से बाहर करने की तैयारी के साथ वोट करें।